ॐ
पतञ्जलि योग सूत्र
(अष्टाङ्ग योग)
पतञ्जलि योग सूत्र
(अष्टाङ्ग योग)
[ ट्विटर पर मेरे लिखे नोट ]
{- १ -}: पतञ्जलि योग सूत्र मे ४ पाद हैं | ४ पाद मिलाकर १ पूर्ण होता है | समाधि पाद, साधन पाद, विभूति पाद एवम् कैवल्य पाद |
{- २ -}: पतञ्जलि योग सूत्र मे १९५ सूत्र हैं | ये श्लोक रूप मे न होकर सूत्र रूप मे हैं |
{- ३ -}: पतन्जलि योग सूत्र -- समाधि पाद मे ५१, साधन पाद मे ५५, विभूति पाद मे ५५ और कैवल्य पाद मे ३४ सूत्र हैं | एकुण १९५ सूत्र |
{- ४ -}: श्री पतञ्जलि योग के ८ अङ्ग बताते हैं | यम, नियम आसन प्राणायाम प्रत्याहार धारणा ध्यान समाधि योग के ८ अङ्ग हैं |
{- ५ -}: यम नियमासन प्राणायाम प्रत्याहार धारणा ध्यान समधयो(s)ष्टावङ्गानि - {साधन पाद - २९}
{- ६ -}: पहली बात यह है की यह "योगा " नहीं , "योग " है | अङ्ग्रेजी चष्मा को हटा लें | अपने विषयों को अपने ही आंखों से देखें | योगा नहीं योग |
{- ७ -}: महर्षी पतञ्जलि की विशेषता - एक सूत्र कहते और उसमे प्रयोग किया गया प्रत्येक शब्द को एकेक सूत्र मे समझाते |
{- ८ -}: योगश्चित्त वृत्ति निरोधः - चित्त की वृत्तियां रुक जाना योग है - श्री पतञ्जलि ने योग की व्याख्या इस प्रकार किया है |
{- ९ -}: यम क्या है? अहिंसा सत्यास्तेय ब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः| (साधन पाद-३०).|
{- १० -}: अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य एवम् अपरिग्रह (संग्रह न करना) ये पांच यम हैं | जीवन मूल्य हैं |
{- ११ -}: यम महाव्रत बनता है जब जाती देश काल समय की सीमा से रहित सार्वभौम हो जाता है | तीर्थक्षेत्र मे सत्य का पालन - देश सापेक्ष यम है |
{- १२ -}: साधु, ब्राह्मण के साथ अहिंसा, चातुर्मास मे ब्रह्मचर्य ये जाती-काल सापेक्ष यम हुए | इन सीमाओं से रहित यम महाव्रत हैं |
{- १३ -}: जाति देश काल समयानवाच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतं | (साधन पाद - ३१)
{- १४ -}: शौचसंतोषतपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः - (साधन पाद-३२) | शौच सन्तोष तप स्वाध्याय ईश्वरप्रणिधान / शरणागति ये ५ नियम हैं |
{- १५ -}: शौच / पवित्रता, संतोष, तपस्, स्वाध्याय् / धर्म ग्रन्थों का अध्ययन, ईश्वर प्रणिधान या शरणागति ये ५ नियम हैं |
{- १६ -}: अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः | अहिंसा की दृढ स्थिति जिसमे हो उस योगी के समीप सब प्राणि वैर-त्याग कर देते | (साधन पाद ३५)
{- १७ -}: (साधन पाद ३५) | इसी भावार्थ का एक तिरुक्कुरल है | "कोल्लानै पुलाल मरुत्तानै कै कूप्पि एल्ला उयिरुं तोळुम् | इसका अर्थ ???
{- १८ -}: (साधन पाद ३५) तिरुक्कुरल का अर्थ - जो मारता नहीं, जो मांस खाता नहीं उसे सभी जीव हाथ जोडकर प्रणाम करते हैं |
{- १९ -}: साधन पाद ३६ - सत्य प्रतिष्ठित हो जाने से उस के मुख से जो भी शब्द निकले, वह सत्य हो जाता है |
{- २० -}: साधन पाद -३६. सत्य प्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयल्वम् | सत्य दृढ स्थित व्यक्ति के ही शाप /आशीर्वचन सत्य हो जाते हैं |
{- २१ -}: अस्तेय प्रतिष्ठायां सर्व रत्नोपस्थानम् - (साधन पाद ३७) | अस्तेय (चोरी का अभाव) दृढ प्रतिष्ठित होने से सब् कुछ उसीका |
{- २२ -}: (साधन पाद ३७). जब चोरी न करना दृढ स्थित हो जाता है, संसार के उत्तम रत्न उसके लिये उपलब्ध हो जाते हैं |
{- २३ -}: साधन पाद ३७ - सत्य व नेक जीवन चलाने वाले को उसकी आवश्यकता सर्व उसके चाहने से पहले ईश्वरीय (अज्ञात) सहायता से प्राप्त होते हैं |
{- २४ -}: ब्रह्मचर्य प्रतिष्ठायां वीर्य लाभः - (साधन पाद ३८) | ब्रह्मचर्य की स्थिर प्रतिष्ठा हो जाने पर सामर्थ्य का लाभ होता है |
{- २५ -}: ब्रह्मचर्य प्रतिष्ठायां वीर्य लाभः (साधन पाद ३८) ब्रह्मचर्य याने शारीरिक,मानसिक स्तरपर | वीर्य भी स्थूल व सूक्ष्म स्तर का |
{- २६ -}: साधन पाद ३८ - जब ब्रह्मचर्य दृढ प्रतिष्ठित हो जावें शरीर, इन्द्रिय, मन एवम् बुद्धि मे अपूर्व साहस व पल प्राप्त हो जाता है |
{- २७ -}: अपरिग्रह स्थैर्ये जन्म कथन्तासंबोधः - {साधन पाद ३९}.| अपरिग्रह स्थिर बस जाने से उसे पूर्व जन्म ज्ञान हो जात है |
{- २८ -}: वस्तु न जमाना यह अपरिग्रह | सन्न्यासी अपरिग्रह इस यम का मूर्त रूप है | गृहस्थ के लिये भी |
{- २९ -}: अपरिग्रह- संन्यासी एकवस्त्रधारी तो गृहस्थ द्विवस्त्र धारी | संसार से कम से कम लेना, संसार को अधिक से अधिक देना यही अपरिग्रह |
{- ३० -}: साधन पाद के सूत्र ३०,३१,३४,३५,३६,३७,३८व३९ ये अष्टाङ्ग योग का प्रथम अङ्ग यम के बारे मे बताते हैं | सूत्र ३४?? भविष्य मे
{- ३१ -}: साधन पाद सूत्र ४० से ४५ तक महर्षी पतञ्जलि ने अष्टाङ्ग योग का दूसरा अङ्ग नियम का विवरण दिया है | नियम ५ हैं |
{- ३२ -}: नियम याने मनमानी से जब् चाहे जैसे चाहे नहीं, अपितु दैनन्दिन, दक्षता से, कठोरता से पालन किया जाने वाला संकल्प है |
{- ३३ -}: शौचात्स्वाङ्गजुगुप्सा परैरसंसर्गैः - (साधन पाद ४०) | शौच प्रथम नियम है | शौच का पालन से शरीराङ्गों के प्रति वैराग्य जगता है |
{- ३४ -}: शौचात्स्वाङ्गजुगुप्सा परैरसंसर्गैः - (साधन पाद ४०) | शौच का दृढ पालन से अन्य शरीरों से संसर्ग करने की इच्छा मिटती है |
{- ३५ -}: शरीर शुद्ध करने के प्रयत्न- कर्म | शरीर मल-मूत्र का पिण्ड है और कभी स्वच्छ हो नहीं सकता इस अनुभूति की प्राप्ती - यह लक्ष्य |
{- ३६ -}: सत्त्व शुद्धि, सौमनस्यैकाग्र इन्द्रियजय आत्मदर्शन योग्यत्वानि च - (साधन पाद ४१) | पवित्रता के नियम पालन के ये अन्य लाभ हैं |
{- ३७ -}: पवित्रता के नियम पालन से अन्तःकरण की शुद्धि, प्रसन्न मन, चित्त की एकाग्रता इन्द्रियों पर विजय, आत्मदर्शन की योग्यता होती है |
{- ३८ -}: इस प्रकार बाह्य शौच आन्तरिक शुद्धि के लिये प्रेरक बनता है | (साधन पाद ४१)
{- ३९ -}: संतोषादनुत्तम सुख लाभः - (साधन पाद ४२) | संतोष से उत्तमोत्तम सुख या आनन्द प्राप्त होता है |
{- ४० -}: चाह यह भीखमङ्गा-पन है | अधिक चाह अधिक उतावला मन और अधिक दुःख | ना कोई कमी ना कोई चाह - यह हर्षित मन की स्थिति है |
{- ४१ -}: तोष याने तृप्ति | श्री शिवजी का एक नाम है आशुतोष याने सुलभता से तृप्त होने वाला | संतोष याने पूर्ण तृप्ति |
{- ४२ -}: कायेन्द्रिय सिद्धिरशुद्धि क्षयात्तपसः - (साधन पाद ४३) | तपस् यह तीसरा नियम है |
{- ४३ -}: शरीर व इन्द्रियों को होने वाले कष्ट सहकर निरन्तर साधना मे लगे रहना - यह तपस् है | (साधन पाद - ४३)
{- ४४ -}: शरीर व इन्द्रियों को कष्ट देना ही तप नहीं बल्कि साधना के पथ पर आने वाले कष्टों को धैर्य पूर्वक सहना तपस् है | (साधन पाद ४३)
{- ४५ -}: तप से अशुद्धि के नाश हो जाने से शरीर और इन्द्रियं वशवर्तिनी हो जाती हैं | उन्हें सिद्धियां प्राप्त होती हैं | (साधन पाद ४३) |
{- ४६ -}: स्वाध्यायादिष्ट देवता संप्रयोगः साधन पाद ४४. यह चौथा नियम है | स्वध्याय इष्ट देव का साक्षात्कार लभता है |
{- ४७ -}: स्व + अध्ययन = स्वाध्याय | स्व का अध्ययन या अपने आप को जानने का प्रयास ही स्वाध्याय है | इस नियम का पालन प्रतिदिन हो |
{- ४८ -}: दैनन्दिनी लिखना भी स्वाध्याय माना जा सकता है | परन्तु वेद, शास्त्र व अपना उद्धार करने वाले ग्रन्थों का अध्ययन स्वाध्याय है |
{- ४९ -}: अतः स्वाध्याय क्या है ? क्रिया है ग्रन्थों का दैनन्दिन अध्ययन | लक्ष्य है अपने आप का अध्ययन और आत्म ज्ञान |
{- ५० -}: समाधि सिद्धीरीश्वरप्रणिधानात | (साधन पाद ४५) ईश्वर प्रणिधान - ईश्वर शरणागति |
{- ५१ -}: ईश्वर प्रणिधान - ईश्वर शरणागति | इसमे सौदा नहीं, लेन-देन नहीं, शर्त नहीं, केवल शरणागति - पूर्ण शरणागति.
{- ५२ -}: शरणागति | सब कुछ उस पर सौंपना | चाह नहीं-कमी नहीं-मांग नहीं-लक्ष्य नहीं-प्रार्थना नहीं | जो भी प्राप्त हुआ, उसी की कृपा प्रसाद |
{- ५३ -}: समाधि सिद्धीरीश्वरप्रणिधानात - (साधन पाद ४५) | ईश्वर प्रणिधान से - ईश्वर शरणागति से समाधि सिद्धी होती है | प्रज्ञा जागृत होती है |
{- ५४ -}: ईश्वर प्रणिधान - शरणागति, इस नियम का दिन प्रति दिन, ना ना, क्षण प्रति क्षण अनुसरण हो | ईश्वर प्रणिधान, यह पांचवा नियम है |
{- ५५ -}: वितर्क बाधने प्रतिपक्ष भावनम् - (साधन ३३) | साधक के लिये बहुमूल्य सूत्र है यह | यम नियम के पालन मे वितर्क विचार बाधा उत्पन्न हो तो ??
{- ५६ -}: सत्यपालन मे बाधा स्वरूप असत्य भाव मन मे आता है | अस्तेय पालन मे चोरी की भाव, अहिंसा मे हिंसा का भाव ... इसी प्रकार नियम पालन मे भी |
{- ५७ -}: मन मे उठते इन वितर्क विचार यम एवम् नियम पालन मे बाधा पहुंचाते हैं | तो क्या करें? उनके प्रतिपक्ष विचारों का चिन्तन करें |
{- ५८ -}: वितर्का हिंसादयः कृतकारितानुमोदिता लोभ क्रोध मोह पूर्वका मृदुमध्याधिमात्रा दुःखाज्ञानानन्त फला इति प्रतिपक्ष भावनम् |
{- ५९ -}: यम नियम के विरोधी हिंसा आदि भाव वितर्क हैं| ये ३ प्रकार- १. स्वयम् किये हुए | २. दूसरों से करवाये हुए | ३. अन्यों के किये हुए का समर्थन करना |
{- ६० -}: वितर्क के कारण हैं क्रोध लोभ व मोह | दुःख और अज्ञान रूप अनन्त फल देने वाले हैं ये वितर्क विचार | ऐसा विचार करना प्रतिपक्ष की भावना है|
{- ६१ -}: पतञ्जलि योग सूत्र के आठ अङ्गों मे तीसरा अङ्ग है आसन | स्थिर सुखमासनम् यह है श्री पतञ्जलि का विश्लेषण (साधन पाद ४६) |
{- ६२ -}: आसन के पहले यम और नियम, ये दो अङ्ग हैं | यम (जीवन मूल्य) और नियम (दैनिक अनुशासन) के पालन के बिना आसन अभ्यास व्यर्थ है |
{- ६३ -}: किसी भी आसन के दो लक्षण हैं | स्थिरता और सुखमय | आसन स्थिर हो | वह स्थिति हमारे लिये सुखमय हो |
{- ६४ -}: आसन मे कम से कम कुछ क्षण स्थिर रहें | कोई हलचल न हो | दृष्टी व दृष्टी पटल भी न हिलें और चेहरे पर मुस्कान हो याने कोई तनाव न हो |
{- ६५ -}: अस्थिर-अशान्त मनस शरीर के अनावश्यक हलचल के लिये कारणभूत है | शरीर स्थिरता मन को शान्त करता है |शान्त मन शरीर को स्थिर करता है |
{- ६६ -}: शरीर पर आसन का प्रभाव महत्वपूर्ण है | मन व अन्तःकारणों पर प्रभाव अधिक महत्वपूर्ण | स्वस्थ शरीर, स्वस्थ मन और कुशाग्र बुद्धि |
{- ६७ -}: जिस आसन मे हम बिना जोर जबर्दस्ति, सहजता से लम्बे समय स्थिर बैठ सकते, वही हमारे लिये सिद्ध है | पद्मासन बुद्ध के लिये सहज सिद्ध | भरद्वाज् आसन गान्धीजी के लिये |
{- ६८ -}: प्रयत्न शैथिल्यानन्त समपत्तिभ्याम् {साधन पाद ४७} | शरीर को स्थिर करने के प्रयत्न छोड दें शिथिल हो जाने दें परमात्मा पर ध्यान लगा दें |
{- ६९ -}: ततो द्वन्द्वानभिघातः {साधन पाद ४९} | उस आसन की सिद्धी से सर्दी गर्मी, भूख, प्यास, हर्ष विषाद आदि द्वन्द्व का आघात नहीं होता |
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