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गीता की कुछ शब्दावली - १०२


गीता की कुछ शब्दावली - १०२


येऽप्यन्य देवता भक्ता यजन्ते  ...  तेऽपि मामेव यजन्ति  ...  अविधिपूर्वकम् ।  (अध्याय ९ - श्लोक २३)
யேப்யந்ய தேவதா பக்தா யஜந்தே  ...  தேபி மாமேவ யஜந்தி  ...  அவிதி பூர்வகம்  ...  (அத்யாயம் 9 - ஶ்லோகம் 23)
Yepyanya Devataa Bhaktaa Yajante ...  Tepi Maameva Yajanthi -  AvidhiPoorvakam .. (Chapter 9 - Shlokam 23)

अर्थ :  जो अन्य देवताओं को पूजते हैं , वे भी मुझे ही पूजते हैं , अविधि पूर्वक ।

येशु अपने आप को , 'ईर्ष्या युक्त भगवान' कहते हैं ।  उन्हें कैसी ईर्ष्या ?  किससे ईर्ष्या ?  अन्य भगवानों पर ??  क्यूँ ?  उन्हें पूजने वालों की संख्या देखकर ईर्ष्या ।  इसी ईर्ष्या के कारण , चर्च संस्था उन सभी जनों का मत परिवर्तन कर उन्हें ख्रिस्ती बनाने में जी जान से जुटा हुआ है ।  उन सभी को अपने अपने भगवानों को भूल कर येशु के पीछे लगाने के कठोर प्रयत्न में लगा है ।  इन अन्य भगवानों के आलयों को ध्वस्त करने और मत परिवर्तन न करने वालों को मार डालने की संकोच भी चर्च और उसके एजेंट करते नहीं ।  उग्र ईर्ष्या ...

इन शब्दों को कहते हुए श्री कृष्ण भी ऐसी ही भावना तो व्यक्त नहीं कर रहे ।  "मैं अकेला भगवान हूँ" क्या ऐसा कहना है श्री कृष्ण का ?  श्री कृष्ण का साकार स्वरुप का पूजन न करते हुए , अन्य रूपों की उपासना करने वाले भी , "मेरी ही उपासना कर रहे हैं" ।  यह तो अद्भुत बात कही है श्री कृष्ण ने ।  यह वैदिक घोषणा है ।  भारत देश में अनादि काल से मानी हुई धारणा है ।  हिंदुओ की मानसिकता में गहरी बसी हुई निष्ठा है ।  "अर्चना - आराधना किसी भी स्वरुप की हो , ये एक ही परमेश्वर को पहुँचते हैं ।  भगवान एक है ।  उसके रूप अनेक हो सकते हैं ।  श्री कृष्ण भी यही कह रहे हैं ।

परन्तु 'अविधि-पूर्ण' क्यूँ कह रहे हैं ?  श्री कृष्ण  शब्दावली में यजन्ते कहते हुए विग्रह आराधना की , पुष्प और श्लोकों से की जाने वाली अर्चना का उल्लेख नहीं कर रहे ।  अन्य देवता कहते हुए , अन्य रूपों का उल्लेख नहीं कर रहे ।

हम में से कई संसार में धन , पद , कीर्ति , सन्तान जैसे संसारी विषयों में किसी एक की प्राप्ति की लालसा लेकर जीवन जीते हैं ।  उनकी यह लालसा तीव्र होती है ।  उनके मन में बस यह एक ही चिन्तन भरा रहता है ।  शरीर का रोम रोम भी इस दिशा में किये जाने वाले प्रयत्न में जुट जाते हैं ।  उनकी प्रत्येक चेष्टा इसी हेतु से प्रेरित रहती है ।  यह स्थिति किसी भक्त की स्थिति से कम नहीं ।  इस पूजन में इनकी अधिदेवता धन , पद , कीर्ति या सन्तान है ।  (या इनको प्रदान करने वाली शक्ति भी कह सकते हैं ।)  इन अधिदेवताओं की कृपा वृष्टि स्वयं पर हो जाए इस प्रार्थना से यह पूजन चलता है ।  इस पूजन में बाहरी क्रिया कर्म होते नहीं ।  भावना मात्र भक्त की जैसी होती है ।  अनन्य भावना ।  अन्य किसी चिन्तन के लिए स्थान नहीं ।  बस एक ही चिन्तन ।  भक्ति के सर्व लक्षण होते हुए भी इस प्रयत्न को श्री कृष्ण "अविधि पूर्ण" कह रहे हैं ।

कोई धन प्राप्ति के पीछे लगता है ।  कोई और पद प्राप्ति के पीछे ।  कोई कीर्ति जुटाने में लगता है ।  और कोई सन्तान प्राप्ति के पीछे ।  बस !  उस एक ही चिन्तन में मग्न होकर जीता है ।  क्यूँ प्राप्त करना चाहता है ?  धनको प्राप्त करने से आनन्द , परम आनन्द प्राप्त हो जाएगा इस आशा से ।  जितना अधिक धन उतना अधिक आनन्द ।पद की प्राप्ति से ऐश्वर्य या सर्वाधिकार प्राप्त होकर , सर्व शक्तिशाली बन जाने का विशवास है ।  कीर्ति और सन्तान की प्राप्ति अनिश्चितता और नश्वर 'मैं' को इस संसार में निरन्तर और शाश्वत बना देगी यह विचार ।  परन्तु , क्या यह संभव है ?

धन से कुछ वास्तु खरीदे जा सकते हैं ।  कुछ सुख भोग के साधन खरीदे जा सकते हैं ।  किन्तु , धन से , अपार हो तो भी आनन्द खरीदा जा सकता है ?  नहीं ।  आनन्द तो दूर , दुःख रहित पूर्ण सुख , शत प्रति शत सुख भी खरीदने में असमर्थ है धन ।  पद से , पद कितना भी ऊँचा क्यूँ न हो ,  सीमित अधिकार प्राप्त अवश्य होती है ।  सीमित , सीमित काल , सीमित प्रभाव , सीमित प्रभाव क्षेत्र ।  पद से असीम ऐश्वर्य , असीम अधिकार , सभी पर पूर्ण शासन असम्भव है ।  कीर्ति से कुछ शिलाओं पर नाम लिखे जाना सम्भव है ।  कुछ प्रतिमा और मूर्ती स्थापित हो जाते हैं ।  ग्रेनाइट या मार्बल की समाधि बन जायेगी ।  इन सब की आयु बस कुछ वर्षों की है ।  अमरत्व की प्राप्ति ?  असंभव ।  इसी लिए श्री कृष्ण इन प्रयत्नों को , "अविधिपूर्ण" कह रहे हैं ।  उद्देश्य एक है ।  उस उद्देश्य की ओर पहुँचाने वाला एक मार्ग है ।  उस मार्ग को त्याग कर , अन्य मार्ग पर चलने के ये प्रयत्न "अविधि पूर्ण" है ।

धन , पद , कीर्ति जैसे इनकी लालसा के विषय ही अन्य देवता हैं ।  इन लालसा पूर्ती के लिए इनके द्वारा किये जा रही चेष्टाओं को ही श्री कृष्ण 'यजन्ते' या पूजन कह रहे हैं ।  धन , पद , कीर्ति , सन्तान प्राप्ति की इच्छा लेकर चलने वाले ये भक्त हैं ।  इनकी भावना भी अनन्य है ।  परन्तु इनके द्वारा किये जाने वाले प्रयत्न या पूजन है अविधिपूर्ण ।

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