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गीता की कुछ शब्दावली - १०५


गीता की कुछ शब्दावली - १०५


समोऽहं सर्व भूतेषु , न में द्वेष्योsस्ति न प्रियः  ...  (अध्याय ९ - श्लोक २८)
ஸமோ(அ)ஹம் ஸர்வ பூதேஷு .. ந மே த்வேஷ்யோsஸ்தி ந ப்ரியஹ ...  (அத்யாயம் 9 - ஶ்லோகம் 28)
Samo(a)ham Sarva Bhooteshu .. Na Me Dweshyo(a)sti Na Priyah  ...  (Chapter 9 - Shlokam 28)

अर्थ :  सभी जीव मेरे लिये सम हैं ।  जीवों में मेरे लिए न कोई द्वेष्य है और न ही कोई प्रिय है  ...

माता के लिए अपने सभी बच्चे सामान ही हो सकते हैं ।  एक माँ अपने एक सन्तान को द्वेष्य और अन्य को प्रिय तो नहीं मानेगी ?  वैसे ही सृजनकर्ता के लिए तो अपनी सृष्टि में सभी जीव सामान ही हो सकते हैं ।  तो श्री कृष्ण के ये वचन , "न कोई मेरे लिए द्वेष्य है , न ही कोई प्रिय" किस लिए ?

यह सत्य है की उसके लिये तो सभी जीव सम हैं ।  जीवों में कोई प्रिय या द्वेष्य नहीं हैं ।  परन्तु प्रकृति में सभी सम तो दिख नहीं रहे ।  कितने भेद हैं ?  आर्थिक स्तर , क्षमता , अवसर , बुद्धि , गुण , शारीरिक अवस्था , स्वास्थ्य आदि के आधार पर कितने भेद हैं ?  इन भेदों को देखकर हम मनुष्य के मन में उठ रहे प्रश्न के ये उत्तर हैं ।

कुछ दरिद्री में जन्मते हैं , दरिद्री में ही सम्पूर्ण जीवन जीते हैं और दरिद्री में ही मरते हैं ।  इस के विपरीत कुछ अपार धन के बीच जन्मते हैं , जीते हैं और मरते हैं ।  इन दो छोर के बीच अनेकानेक सम्भावनायें हैं ।  उसी प्रकार , कुछ अद्भुत क्षमताओं के साथ जन्मते हैं , उक्त अवसर भी उन्हें प्राप्त होती है और संसार में यशस्वी जीवन जीते हैं ।  कुछ कठोर परिश्रम से अपनी क्षमता का विकास कर लेते हैं ।  ऐसे भी कुछ हैं जो क्षमता प्राप्त होकर भी अवसर के अभाव में अज्ञात जीवन जीते हैं ।  ऐसे भी कुछ हैं जो क्षमता शून्य हो कर भी यशस्वी और कीर्तिमान जीवन जीते हैं ।  कुशाग्र बुद्धि , साधारण बुद्धि और मन्द बुद्धि आदि बुद्धि के आधार पर कई भेद ।  राक्षसी से दैवी तक गुणों के आधार पर सहस्रों स्तर हैं ।  त्वचा का रंग , ऊँचाई , स्त्रीत्व , पुरुषत्व , पूर्णाङ्ग , विकलांग आदि कई शारीरिक भेद ।  नित्य रोगी से नित्य निरामय तक स्वास्थ्य के आधार पर अनेकानेक भेद ।  उपरोक्त विषयों के मिश्रित सहस्रों लाखों सम्भावनाएँ ।  भेद मय है यह संसार ।

इतने भेदों को देखकर अपने मन में प्रश्न उठना सहज है ।  "यदि एक ही सृष्टिकर्ता है , तो उससे सृजित सभी जीव एक समान जन्म लेकर , समान अवसर प्राप्त कर , समान सुख - दुःख भोगकर , समान जीवन जगकर मरना चाहिए ।  इतने भेद क्यूँ ?"  "भेद इतने हैं तो क्या यह निश्कर्ष निकालें की उसके लिए सभी जन्म सम नहीं हैं ?"  "कुछ सुख सागर में तैरते हैं ।  कुछ दुःख सागर में डूबे हुए हैं ।  तो क्या यह माने की उस के लिये कुछ जीव प्रिय हैं और अन्य कुछ द्वेष्य ?"

श्री कृष्ण कह रहे हैं , "नहीं ।  नहीं ।  मेरे लिये तो सभी सम हैं ।  कोई द्वेष्य नहीं ।  ना ही कोई प्रिय ।"  फिर ियने भेद क्यूँ ?

वर्षा होती है ।  वर्षा सभी के लिये होती है ।  वर्षा के लिए कोई स्थान या जीव प्रिय नहीं , न ही अप्रिय ।  परन्तु , आकाश के ओर मुख खोली घडा वर्षा को स्वीकारती हैं और भरती हैं ।  उलटी घड़ा ?  उसके ऊपर वर्षा बरसती है , परन्तु जल नष्ट हो जाता है ।  साफ़ किये गये तालाब और कुंड भरते हैं ।  झाड़ियों से , कचरा से और मनुष्य के बाँध काम से अतिक्रमण किये गये तालाब कुंड और नहर भरते नहीं ।  ऊपर से नाश का भी कारण बनते हैं ।  आकाश की ओर मुख खुले समुद्र पर तैरने वाली शिम्पी वर्षा की एक बूँद स्वीकारती है और समुद्र की गहराई अपनी तपश्चर्या से उसे सुन्दर मोती में परिवर्तित करती है ।  ऐसे करने से कतरने वाली लाखों शिम्पी व्यर्थ नष्ट होती हैं ।  इन विविध परिणामों का उत्तरदायित्त्व वर्षा का तो नहीं !!

सूर्य प्रकाशित है ।  सब के लिए प्रकाशित है ।  क्या सभी सूर्य प्रकाश और उष्ण का समान उपयोग करते हैं ?  नहीं ।  इसमें सूर्य का क्या दोष ?

श्री परमात्मा की दृष्टी सब पर समान है ।  परन्तु , हम यदि मुख मोड़ ले तो ?  उसको पीठ दिखाकर , संसारी सुख भोग की ओर मुँह ताकते रहे तो ?  संसारी आकर्षण में डूबकर हम यदि उसकी दृष्टी से छुप जाये तो उसका क्या दोष ?

उसका अनुग्रह मिलेगा ।  निश्चित उसकी कृपा मिलेगी ।  उस हेतु जीव की एक चेष्टा , एक अल्प चेष्टा की आवश्यकता है ।  उस के ओर मुड़ना ।  उसको जीवन का केंद्र बनाना ।  श्री कृष्ण कहते हैं की "ऐसा हो गया तो दुराचारी भी तत्क्षण साधू में परिवर्तित हो जाता है" ।  अगली शब्दावली में देखें ।

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