ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - १२०
अश्वत्थः सर्व वृक्षाणाम् ... (अध्याय १० - श्लोक २६)
அஶ்வத்தஹ ஸர்வ வ்ருக்ஷாணாம் ... (அத்யாயம் 10 - ஶ்லோகம் 26)
Ashvatthah Sarva Vrukshaanaam ... (Chapter 10 - Shlokam 26)
अर्थ : वृक्षों में मैं अश्वत्थ वृक्ष हूँ ।
वृक्षों में मैं अश्वत्थ वृक्ष हूँ । कठोपनिषद संसार की तुलना अश्वत्था वृक्ष से करता है । गीता के १५ वे अध्याय में उलटा अश्वत्था वृक्ष का जड़ परमात्मा वृक्ष और शाखायें संसार कहे गए हैं । यहाँ , विभूति योग में अश्वत्थ वृक्ष को स्वयं का ही स्वरुप बता रहे हैं श्री कृष्ण ।
जो पौधा या वृक्ष मनुष्य के लिए किसी न किसी रूप में उपयोगी है , वह उगाया जाता है और पाल पोसा जाता है । इसलिए निसर्ग में उसका रक्षण हो जाता है । हमारे भूख मिटाने वाले सब्जी , फल और कंद मूल देने वाले वृक्ष , दवाई के लिए पुष्प , पत्ती और छाल देने वाले वृक्ष , भोजन को स्वादिष्ट बनाने हेतु मसाले देने वाले वृक्ष , छत के लिए या भोजन पाने के लिए पत्ती या छाल देने वाले वृक्ष , पूजा और अलंकार के लिए पुष्प देने वाले वृक्ष आदि किसी विशेष प्रयास के विना ही निसर्ग में बच पाते हैं । अश्वत्थ वृक्ष के पुष्प या पत्ती या फल या छाल मनुष्य के लिए प्रत्यक्ष रूप में उपयोगी नहीं । परन्तु निसर्ग में परम उपयोगी है यह वृक्ष । वायु मंडल में अधिकतम प्राण वायु छोड़ने वाला वृक्ष । [अप्रत्यक्ष रूप में यह मनुष्य के लिए भी उपयोगी विषय है । अश्वत्थ वृक्ष का सामीप्य गर्भ को स्थिर करता है और रक्षण करता ।] वृक्ष विशाल होता है तो सहस्रों पक्षि और कीट जीवों को आश्रय देता । इस वृक्ष के फल छोटे पर असङ्ख्य होते हैं और पक्षी और गिलहरी जैसे जीवों के लिए आहार बनते हैं । [विशेष रूचि नहीं होने के कारण मनुष्य से कोई स्पर्धा नहीं ] अश्वत्थ ऊंचे वृक्ष होने के नाते वर्षा को आकृष्ट करने में सहायक हैं ।
हिन्दू की दृष्टी अनोखी है । सामान्यतः स्वयम के लिए प्रत्यक्ष उपयोगी न हो तो मनुष्य उसके प्रति सुहृद होता नहीं । परन्तु अश्वत्थ तो प्रकृति में बहु उपयोगी वृक्ष है । अतः रक्षणीय है । इस भगवद्स्वरूप माना है । वृक्ष का अधो भाग ब्रह्म , मध्य भाग विष्णु और ऊर्ध्व भाग शिवजी माना गया है । तीनों का ऐक्य स्वरुप श्री दत्तात्रेय हैं । अश्वत्थ वृक्ष श्री दत्तात्रेय का मूर्त स्वरुप है । अश्वत्थ प्रदक्षिणा विशेष है । इस वृक्ष की टहनियाँ होम हवन में प्रधान सामग्री है । यह वृक्ष पूजा जाता है और सहज रक्षित भी किया जाता है ।
निसर्ग के लिए पोषक अश्वत्थ वृक्ष निसर्ग से ही सहज पाला पोसा जाता है , मनुष्य के विशेष प्रयत्न के विना । यह कहीं भी जड़ पकड़ता है । इसका बीज जहाँ भी गिर जाय , दीवार में , गोपुरम पर , किसी अन्य वृक्ष पर , वहीं अश्वत्थ अंकुरित हो कर पलने लगता है । तृशिरापुर श्री शंकर मठ में नीम वृक्ष के एक ही आधार पर दो विशाल वृक्ष , अश्वत्थ और नीम , खड़े हैं ।
निसर्ग का कठोर शोषण करने के बाद , आज जब निसर्ग विनाश के खगार पर दिख रहा है , तो पश्चिम देशों में , "Save the Earth" , "Conserve Nature" , "Save Bio - Diversity" जैसे शब्द बोले जा रहे हैं । निसर्ग के बारे में यह चिन्ता के लिए भी "मनुष्य जीवन बाधित होते दिख रहा है" , यही स्वार्थी कारण है । हम हिन्दू तो अनादि काल से निसर्ग को मातृ स्वरुप पूजते आये हैं । निसर्ग में प्रत्येक जीव हमारे लिए परमात्मा का प्रकट स्वरुप है ।
पाश्चात्य देश बाइबल के आधार पर स्त्री को भी एक पूर्ण जीव की दर्जा गत शताब्दी में ही दिया है । अन्यथा , उनके लिए तो स्त्री पुरुष के हड्डी से , उसके मनोरंजन के लिए बनायी गयी जड़ वस्तु है । आज भी पश्चिम देशों में स्त्री को एक भोग वस्तु ही मानकर उसका उपयोग किया जा रहा है । स्त्री भी स्वयं का इस प्रकार शोषण की अनुमति दे रही है । हम हिन्दू अपने अर्ध नारी तत्त्व से स्त्री को सृष्टि में सम भागीदार माना है । स्त्रीत्व याने मातृत्व । उसके आगे , हमारे लिए वृक्ष भी पूजनीय और रक्षणीय है जब की वृक्ष आज भी पश्चिम के वैज्ञानिक की दृष्टी में जड़ है ।
अश्वत्थः सर्व वृक्षाणाम ... वृक्षों में मैं अश्वत्थ हूँ ।
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