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गीता की कुछ शब्दावली - १३८


गीता की कुछ शब्दावली - १३८


स्व तेजसा विश्वम इदं तपन्तम् ... (अध्याय ११ - श्लोक १९)
ஸ்வ தேஜஸா விஶ்வம் இதம் தபந்தம் ... (அத்யாயம் 11 - ஶ்லோகம் 19)
Swa Tejasaa Vishvam Idam Tapantam .. (Chapter 11 - Shlokam 19)

अर्थ :  आपके तेज से यह विश्व तप रहा है ।

इस वचन को वह निर्बल मन बोल रहा है जो यह मानने को तैयार नहीं की  ...  नाश या विनाश भी प्रकृति का ही अंग है ।  आप के तेजस में यह संसार दधक रहा है ।  आपकी कोपाग्नि में फंसकर जीव सब तड़प रहे हैं ।  यह घोर तांडव है आपका ।  मनुष्य को जब जब नाश का दर्शन होता है , उन अवसरों में मनुष्य इन शब्दों को बोलता है ।  प्रकृति की विनाशक शक्ति के सामने स्वयं को असहाय अनुभव करते समय ऐसे वचनों को बोलता है ।

नाश में छोटा नाश , बड़ा नाश , अल्प नाश , महा नाश ऐसे विभागीकरण भी है ??  वृक्ष से छूटकर एक पत्ती गिरती है , तो वह भी नाश ही तो है ।  एक मछर . एक मछली , एक मुर्गा , एक बकरा आदि कोई जीव मरता है तो वह नाश ही है ।  युवक की मृत्यु और वृद्ध की मृत्यु स्तर या महत्त्व में भिन्न प्रकार के नाश नहीं ।  परन्तु ,मनुष्य मन वर्गीकरण करता है ।  साधारण नाश , भयंकर नाश , महा नाश आदि ।  यह जिसे छोटा अल्प या साधारण नाश समझता है , वह नाश इसको हिलाता नहीं ।  अधिक संख्या में , यह जिसे अधिक महत्त्व पूर्ण समझता हो , उन जीवों के नाश में इसे मृत्यु का दर्शन होता है ।  सुख भोग में मग्न है इसी लिए , सुख प्राप्ति की आशा में डूबा है इसलिए , संसार की मोह माया में फंसा है इसलिए , इसका मन एक प्रकार से नशा ग्रस्त अवस्था में है ।  स्व प्रज्ञा खोयी अवस्था में है ।  सत्य को टालने की निर्बल अवस्था में है ।  नशे के इस कवच को भेदकर इस के मन में पहुँचना नाश की मात्रा बृहद , महा भयङ्कर हो तो ही सम्भव है ।  इस महाभयंकर नाश के दर्शन का प्रभाव भी अल्प समय तक ही रहता है और यह पुनः अपनी नशा ग्रस्त अवस्था में लौट जाता है ।

मेरे एक परिचित युवक को टाइम्स आफ इंडिया में पत्रकार के नाते नौकरी लगी ।  पहला दिन प्रधान मार्ग पर हुए अपघात का समाचार लेकर आया ।  "कितने मरे ?"  मुख्य सम्पादक ने उसका लेखा पढ़े विना पूछा ।  "भगवान की कृपा से कोई मरा नहीं ।  "क्या ये भी कोई समाचार है " कहते हुए इसके लेख को सम्पादक ने कूड़ादान में फ़ेंक दिया ।  "क्या किसीका मृत्यु ही मुझे भोजन दिलाएगा" युवक के मन में प्रश्न उठा और उसने तत्क्षण नौकरी छोड़ दी ।

तमिळ नाड के समुद्र तट पर सुनामी का आघात हुआ ।  उन दिनों में मछुआरों के एक ग्राम में मैं खड़ा था ।  उस समय एक व्यक्ति लॉरी भर सामान और कुछ लाख रूपयों के साथ सहायतार्थ उस ग्राम में आया ।  ग्राम का मुखिया ने उसे सुनामी के अनुभवों का विस्तृत वर्णन किया ।  "कितने मरे ?" इस व्यक्ति ने पूँछा ।  "ईश्वर की कृपा से मृत्यु संख्या कम ही रही ।  ग्राम के सभी चिदम्बरम स्थित श्री नटराज आलय में दर्शन के लिए चले गए ।  केवल २ जानें गयी ।"  (मुखिया केवल मनुष्य जीवों को ही गिन रहे थे ।)  सहायतार्थ आया हुआ व्यक्ति मुझे अलग ले गया और "आस पास कोई ऐसा ग्राम जानते हो , जहाँ अधिक संख्या में मृत्यु घटी है ?  सहायता के ये सामान और पैसे वहाँ पहुँचा दूंगा ।"  मुझे गुस्सा आया । बेचारे पर गुस्सा क्या करना । यही उसका मापदण्ड है नाश का ।

सृजन , पोषण के समान ही नाश भी प्रकृति का ही अंश है ।  नहीं ।  और सूक्ष्मता से देखें तो यह दिखेगा की केवल सृजन और नाश हैं ।  जिस क्षण सृजन हुआ , तत्क्षण ही नाश प्रारम्भ हो जाता है ।  नाश की ओर प्रवास आरम्भ हो जाता है ।  हम देखते नहीं ।  तो हम  सृजन का उस क्षण और वह क्षण जब नाश हमें दीखता है , इनके मध्य काल को पोषण का काल समझ लेते हैं ।

नाश को जानना क्या आवश्यक है ?  नाश को जानने से जीवन में रुचि  घट तो नहीं जायेगी ?  सत्य तो सत्य है ।  हम जानें , न जानें , जानने में अक्षम हो , जानने की इच्छा न हों , सत्य पर इन बातों का कोई प्रभाव पड़ता नहीं ।  जानना और ना जानना यह अपने स्वभाव के अनुरूप होगा ।  जानें तो व्यर्थ आशाओं से , व्यर्थ प्रयत्नों से , और व्यर्थ अपेक्षाओं से स्वयं बच सकते हैं ।

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