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गीता की कुछ शब्दावली - १४६


गीता की कुछ शब्दावली - १४६


निमित्त मात्रं भव सव्यसाचिन  ...  (अध्याय ११ - श्लोक ३३)
நிமித்த மாத்ரம் பவ ஸவ்யஸாசின்  ... (அத்யாயம் 11 - ஶ்லோகம் 33)
Nimitta Maatram Bhava Savyasaachin  ...  (Chapter 11 - Shlokam 33)

अर्थ :  केवल निमित्त बनो ।

निमित्त मात्र बनो कहते हुए अर्जुन को सव्यसाचिन नाम से सम्बोधित कर रहे हैं श्री कृष्ण , यह विशेष है ।  सव्यसाचिन याने वह व्यक्ति जो अपने बाए हाथ से उतना ही सक्षम जितना  दाहिने हाथ से ।  उसके हाथ मनुष्य के लिए उपकरण ।  क्या अपने हाथ सक्षम उपकरण हैं ?  क्या अपने दोनों हाथ सम सक्षम हैं ?  सामान्यतः हम यही देखते हैं की बाया हाथ की क्षमता दाहिने हाथ से बहुत कम है ।  कई कार्यो में बाया हाथ पूर्ण रूप से अक्षम है ।  दाहिना हाथ भी साधारण नित्य कार्यो के लिए प्रशिक्षित है ।  असाधारण समय में आने वाले असामान्य कार्यों के लिए तैयार नहीं ।

उपकरण की अपनी योजना होती नहीं ।  उसे तो बस स्वयं को सौंप देना है , उपयोग करने वाले के हाथ में ।  योजना तो उसकी है ।  अपनी योजना में उपकरण का यथोक्त उपयोग वह करता है ।

क्या मनुष्य एक उपकरण मात्र है ?  क्या उसके हाथ में कुछ नहीं ?  इस विषय में संसार में टोक के दो विचार हैं ।  सब कुछ विदित है ।  सब कुछ पूर्व नियोजित है ।  इस नियोजन में स्वयं को समर्पित कर देना मनुष्य के हाथ में है ।  उस योजना में बस निमित्त बनना है ।  इस के ठीक विपरीत है दूसरा विचार जिसके अनुसार मनुष्य मनुष्य जो चाहे , जो सोचे , जो संकल्प करे , कर सकता है ।  सब कुछ उसके हाथ में है ।  असम्भव उसके लिए कुछ भी नहीं ।

ये दोनों विचारधारी एक दूसरे को समाज में प्रचलित कमियों के लिए उत्तरदायी मानकर , उस विचार का खंडन करते हैं ।  मनुष्य केवल निमित्त बनें ऐसा कहने वाला यह समझता है की समाज में बढ़ता हुआ स्वार्थ प्रेरित दौड़ , निर्दयी स्पर्धा , मानसिक तनाव और उससे जनित रोग आदि सभी 'मनुष्य को सर्वस्व' और 'स्व जीवन को स्वयं की कार्यशीलता और परिश्रम से निर्माण कर सकने वाला' समझने वाला विचार ही कारण है ।  मनुष्य के 'स्व' पर विशवास रखने वाला यह समझता है की समाज में प्रचलित 'क्रिया - शून्यता, प्रयत्न का अभाव, चमत्कारी साधना की कमी, उत्कृष्ट बनने की इच्छा में कमी' आदि न्यूनताओं के लिए मनुष्य को निमित्त मात्र समझने वाला विचार ही कारण है ।

दोनों कथन में आंशिक सत्य है ।  यह सत्य है की जीवन की अनिश्चितता के कारण , अपना भविष्य स्वयं को ही सुरक्षित करने का मांग , स्वयं की कुशलता पर सन्देह , स्पर्धा की कटुता आदि के कारण तनाव तो निश्चित है ।  जीवन निर्माण करने की दौड़ में रिश्ते नातों का बिछड़ना भी निश्चित है ।  आवश्यकता पड़ने पर टेकने के लिए मानसिक और आर्थिक आधार का अभाव भी निश्चित है ।  भौतिक सुख सम्पन्नता रहते हुए भी जीवन में अनायास  आनन्द की कमी रह जाती है , इसमें लवलेश भी सन्देह नहीं ।

दूसरे विचारधारियों के जीवन में सुख शान्ति है अवश्य ।  मनुष्यों में सन्तुष्ट मन है ।  परन्तु मनुष्य मन में आलस्य , समाज में आर्थिक दारिद्री , प्रगति में मन्द गति , आदि इस विचार की उत्पत्ति हैं ।

ये तो श्री परमात्मा स्वयं निमित्त बन जाने का सुझाव दे रहे हैं ।  वही भगवान ने यह भी आह्वान किया की उत्तिष्ट - युद्धाय कृत निश्चय ।  हे अर्जुन !  उठो ।  युद्ध करने का निश्चय करो" ।  इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ की करना तो हमें ही है ।  साथ ही साथ निमित्त बनना है ।  निमित्त मात्र बनो इसका अर्थ यह नहीं की कुछ ना करो ।  करो ।  कुशलता पूर्वक करो ।  मन लगाकर करो ।  योजना उसकी है इस आस्था रखकर करो ।  फल उसकी इच्छा के अनुरूप होगा इस दृढ़ विशवास के साथ करो ।  "मैं तो केवल निमित्त हूँ" इस दृढ़ संकल्प के साथ करो ।

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