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गीता की कुछ शब्दावली - २०७


गीता की कुछ शब्दावली - २०७


पचामि अन्नं चतुर्विधम् ..  (अध्याय १५ - श्लोक १४)
பசாமி அன்னம் சதுர் விதம் ..  (அத்யாயம் 15 - ஶ்லோகம் 14)
Pachaami Annam ChaturVidham ..  (Chapter 15 - Shlokam 14)

अर्थ :  चार प्रकार के अन्न को मैं ही पचाता हूँ ।

भोजन चार प्रकार के हैं ।  दृढ़ पदार्थ जो चबाकर खाया जाता है , जैसे रोटी , भात , सब्जी , लाडू जैसी मिठाइयाँ आदि ।  द्रव्य पदार्थ जो पिया जाता है , जैसे जल , रस , छाज , दूध , चाय आदि ।  ऐसे पदार्थ जिसे चूसकर निगलते हैं , जैसे दही , खीर , दलिया , जैसे फलों के रस आदि ।  ऐसे पदार्थ जिन्हें चाटकर सेवन किया जाता है , जैसे अचार , शहद , श्री खंड जैसी मिठाई , घी , क्रीम आदि ।  हमारा भोजन पूर्ण होता है जब ये चारों प्रकार उसमे होते हैं ।

भोजन में ये चारों प्रकार हो , छयों रुचियाँ हो , रंग भरा हो , ताजा बना हुआ हो , गरम हो ।  प्यार से परोसा जाय और स्वाद चखाकर , हर्ष से और मौन खाया जाय ।  हिन्दू शास्त्रों में भोजन केवल भौतिक वस्तु नहीं ।  केवल शारीरिक आवश्यकता के लिये नहीं ।  भोजन में कला है ।  भोजन पकाना चतुःषष्टि कलाओं में एक है ।  भोजन में स्नेह प्रेम के सम्बन्ध हैं ।  दादीमा के हाथ से खाना , माँ का पकाया खाना , पत्नी के हाथ से परोसा हुआ भोजन खाना और किसी ऐरगैर से पका हुआ , किसी अपरिचित के हाथ से परोसा हुआ खाना  .. क्या ये दोनों सामान हो सकते हैं ??  भोजन में धर्म है ।  बांटकर खाना ही अपेक्षित है ।  केवल मनुष्य के साथ नहीं , अन्य जीवों को भी खिलाकर भोजन करने की अपेक्षा है ।  भोजन आर्थिक भी है ।  भोजन साधारणतः आस पड़ोस में उगने वाले पदार्थों से बने ताकि हमारा धन आस पास के किसान और व्यापारी के हाथ में जाये ।  भूख मिटाने का शारीरिक धर्म भी है ।

भोजन करने से मानसिक संतुष्टि और आनन्द खिलना चाहिये ।  भोजन श्रद्धा और एकाग्रता से पकाया जाय ।  प्रेम से पकाया जाय और परोसा जाय ।  हर्ष प्रेम के साथ खाया जाय ।  स्वाद का हर्ष , बनाने वाले से प्रेम ।

भोजन का पाचन एक अद्भुत क्रिया है ।  इस क्रिया में भाग लेने वाले प्रधान शारीरिक यंत्र  ..  दांत , जिह्वा , पेट , पेन्क्रियास , बैल , गाल ब्लेडर ,आतडी आदि और अनेक नस और लाखों करोड़ों सेल ।  ये सभी उपकरण उदर क्षेत्र में हैं ।  भोजन करते समय ये सक्रीय होते हैं ।  तो उस समय इस प्रदेश में अधिक रक्त संचार हो ।  इसी लिए सुखासन में बैठें (पैरों को पालथी मारकर) या पद चरणों के आधार पर घुटने मोड़कर बैठें और भोजन करें यही बुद्धि पूर्वक है ।  जीर्ण यंत्र के लिये सहायक हैं । खड़े खड़े भोजन करना और पैरों को लटकाकर बैठे स्थिति में भोजन करना अपने शरीर अत्याचार और हानीकारक हैं ।

भोजन के विषय में सोचें तो नालियां और नसें सक्रिय होते हैं ।  उदाहरण से इमली का विचार मन में लाये तो मुख में पानी छूटता है ।  भोजन के पाचन में सहायक अंगों की क्षमता बढ़ाने के लिये मौन भोजन और स्वाद चखाकर भोजन अत्यावश्यक है ।  टी वि देखते हुए भोजन करना या कादम्बरी पढ़ते हुए भोजन करना भी शरीर पर अत्याचार है ।

भोजन केवल भौतिक नहीं ।  भोजन सजीव है ।  यही भोजन हमारे शरीर में रक्त , मांस , हड्डी , त्वचा , मज्जा , आदि में परिवर्तित होता है ।  भोजन के ये भौतिक परिणाम हैं ।  यही भोजन आँखों की रोशनी , कानों श्रवण शक्ति और अन्य इन्द्रियों की क्षमता बढ़ाता है ।  कुशाग्र , तेज बुद्धि भी इसका परिणाम है ।  मन की भावनाओं को प्रखर बनाता है भोजन ।  गुणों को बाधित करता है भोजन ।  ये सब भोजन के सूक्ष्म परिणाम हैं ।

इससे आगे बढकर "अन्नं ब्रह्मम्" कहता है वेद ।  भोजन श्री परमात्मा का ही स्वरुप है ।

भोजन का पाचन कार्य केवल यांत्रिक कार्य नहीं , श्री परमात्मा का ही कार्य है ।  उन यंत्रों को उनकी क्षमता और सामर्थ्य श्री परमात्मा से ही प्राप्त है ।  शरीर में स्थित ये यन्त्र नित्य नहीं ।  इनका सामर्थ्य अमोघ नहीं ।  शरीर में आत्मा  तक ये यन्त्र के सामर्थ्य है ।  इन यंत्रों को कार्य कराने वाला श्री परमात्मा है ।  अतः अन्न का पाचन श्री परमात्मा ही कर रहे हैं , इसमें क्या सन्देह !!

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