ॐ
गीता की कुछ शब्दावली (२)
சேனயோருபயோர் மத்யே ... (அத்யாயம் 1 - ஸ்லோகம் 21, 24. அத்யாயம் 2 - ஸ்லோகம் 1௦).
Senayorubhayor madhye ... (Ch 1 - Shloka 21 & 24; Ch 2 - Shloka 10).
यह शब्दावली गीता मे ३ बार आती है | अर्जुन एक बार (अध्याय १ - श्लोक २१) इन शब्दों का उच्चार करता है | शेष दोनों संदर्भ में सञ्जय द्वारा ये शब्द बोले गये हैं (अध्याय १ - श्लोक २४ और अध्याय २ - श्लोक १०) | [सञ्जय धृतराष्ट्र का सारथी था | महर्षी वेद व्यास द्वारा उसे दिव्य चक्षु प्राप्त थे | उनकी सहायता से वह अन्धा धृतराष्ट्र को युद्ध भूमि का विवरण सुनाता है |
अध्याय १ - श्लोक २१ मे अर्जुन इन शब्दों को कहता है | अपने गाण्डीव को ऊंचा उठाता है और उत्साह के साथ् श्री कृष्ण को आज्ञा देता है की "हे अच्युत ! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के मध्य स्थापित करो"| इस क्षण तक अर्जुन मे युद्ध के विषय मे उत्साह रहा | इस युद्ध की तो वह १३ वर्षों से प्रतीक्षा कर रहा था |
यहां श्री कृष्ण अर्जुन के नौकर बनते हैं | श्री कृष्ण को ऐसी आज्ञा देता है अर्जुन जैसे अपने किसी नौकर को डे रहा हो | हां | भगवान् अपने स्नेही भक्त के लिये तो नौकर भी बन्ने की तैयारी रखते हैं |
श्लोक २४ मे ये शब्द सञ्जय द्वारा कहे गये हैं | इस संदर्भ में श्री कृष्ण अपना यजमान अर्जुन की आज्ञा का पालन करते हैं और रथ को दोनों सेनाओं के मध्य मे स्थापित करते हैं | परन्तु वहीं थम नहीं जाते | अपना प्रिय भक्त अर्जुन के प्रती स्नेह दर्शाते हैं | इस उद्ध का संपूर्ण भार अर्जुन पर ही था | पाण्डव सेना युद्ध मे विजय के लिये अर्जुन पर ही निर्भर थी | युद्ध तो भावनाओं का खेल है | क्या अर्जुन भावनाओं के इस आन्धी के सामने दृढता से खडा रह पायेगा? क्या उसका मनस दृढी है ? श्री कृष्ण अपने मित्र और भक्त अर्जुन को परखना चाहते थे | अर्जुन तो सामने खडी सेना और दुष्ट दुर्योधन के साथियों को ही देखना चाहता था | परन्तु भगवान् श्री कृष्ण उस दोनों सेनाओं मे खडे कुरु वंशियों को देखने कहते हैं | अर्जुन दोनो ओर देखता है, अपने ही परिजनों को देखता है और दुर्बलता और शोक ग्रस्त हो जाता है | यद्ध न करने की घोषणा कर देता है | यहां भगवान् अर्जुन के मित्र बनते हैं |
ये शब्द तीसरे बार अध्याय २ - श्लोक १० आते हैं | उस संदर्भ में अर्जुन शोकयुक्त है, अश्रु पूर्ण है युद्ध के प्रती संभ्रमित है | अब श्री कृष्ण उसके आचार्य बनकर राह दिखाते हैं | उसके गुरु बनकर उसके मन का अन्धकार मिटाकर ज्ञान चक्षु खोलते हैं |
मनुष्य के मनस की एक कमजोरी भी उक्त शब्दावली दर्शाती है | मनुष्य दृढ निश्चयी दिखता है; बलवान् दिखता है परन्तु क्षण भर मे उसके अन्दर मे छिपी दुर्बलता, उसका कमजोर मनस, प्रकट हो जाता है |
ये शब्द भगवान् की असीम कृपा को, भक्तों के रक्षण में प्रकट होने वाला उसका स्नेह-प्रेम को, दर्शाते हैं | अपने भक्त के लिये चाहे जो करने की तैयारी रखते हैं, उसका नौकर भी बनते हैं | यह शब्दावली हमें आश्वस्त करता है की भगवान अपने भक्त को गिरने से बचाते हैं, उसका उद्धार कर उसे अपने से मिला लेते हैं |
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