ॐ
गीता की कुछ शब्दावली (६)
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन (अध्याय २ - श्लोक ४७)
கர்மண்யேவாதிகாரஸ்தே மா பலேஷு கதாசன (அத்யாயம் 2 - ஸ்லோகம் 47)
Karmanyevaadhikaaraste maa phaleshu kadaachana (Chapter 2 - Shlokam 47)
अर्थ : कर्म पर, केवल कर्म पर ही तुझे अधिकार है | फल पर कदाचित नहीं |
गीता के भक्त और आलोचक दोनों के बीच सर्वाधिक चर्चित शब्दावली है यह | हम मे अधिकतर जन तो गीता की इस शब्दावली के अलावा और कुछ जानते भी नहीं |
सर्व प्रथम हमने यह समझना चाहिये की श्री कृष्ण द्वारा उद्घोष किया गया एक सत्य वचन है यह | इसका अर्थ हम समझ सकें तो, उस अर्थ की गहरायी तक हम पहुंच सकें तो स्वयम् के लिये भला है | एक सत्य वचन हमारी स्वीकृति या समर्थन पर निर्भर नहीं | श्री न्यूटन ने जब भू आकर्षण के विषय मे अपना उद्घोष किया तो अन्यों की स्वीकृती अथवा समर्थन का परवाह नहीं किया | उस सत्य का दर्शन स्वयम् ने किया और उसका उद्घोष किया | बस | उसे स्वीकार् करना या विरोध करना हमारी अपनी समस्या है | अज्ञान की प्रदर्शनी है | हमारा सहमत या विरोध उस सत्य वचन को प्रभावित नहीं करते |
उक्त वचन मे दो प्रमुख शब्द हैं एव और कदाचन | एव याने केवल | कदाचन याने कभी भी, किसी भी परिस्थिति मे | हमें कर्म पर, केवल कर्म पर ही अधिकार है | फल पर कभी भी (कदाचित) नहीं |
गीता के आलोचक (तमिळ नाडु मे आलोचकों की कमी नहीं) इस का अर्थ ऐसा निकालते हैं | परिहास करते हैं | "कर्म कर | परन्तु फल को लेना नहीं | कार्यालय मे उद्योग करो परन्तु पगार लेना नहीं | परीक्षा लिखना परन्तु पदवी प्राप्त करना नहीं | खेत मे परिश्रम करना परन्तु फसल घर ले जाना नहीं | चुनाव लढो पर कुर्सी पर बैठना नहीं | देखो मित्रों | बस यही है गीता |" वे अज्ञानी हैं | गीता के विषय मे अपरिपक्व हैं | वे नहीं समाझते हैं की किसी विचार का विरोध या आलोचना करने की योग्यता भी उस विचार का गहन अध्ययन से मात्र प्राप्त होती है |
श्री कृष्ण क्या कह रहें हैं ? अधिकार का अर्थ हक्क ऐसा मानना उचित नहीं | अधिकार का अर्थ उससे विस्तृत है | नियन्त्रण यह भी एक अर्थ है | कर्म पर हमारा नियन्त्रण है | कर्म हमारे हाथ मे है | परन्तु फल पर हमारा कोई नियन्त्रण नहीं | फल हमारे हाथ मे नहीं |
प्रत्येक कर्म का एक या अनेक फल हैं | हम भोजन पाते हैं | यह कर्म है | भूक की तृप्ति, भोजन का पचन हो कर शरीर के लिये आवश्यक तत्वों की प्राप्ति और मल विसर्जन जिससे पुनः भूख और पुनः भोजन के राह का खुलना आदि इस कर्म के सम्भावित फल हैं | भोजन करना हमारे हाथ मे है | उस कर्म पर हमारा अधिकार है | परन्तु भोजन का पाचनादि फल हमारे हाथ मे नहीं | भोजन मे बनाये गये पदार्थ, बनाने मे उपयोग किये गये वस्तु, शरीर का स्वास्थ्य, आदि आदि अन्य विषयों पर निर्भर है ये फल |
कार्यालय मे उद्योग करना हमारे हाथ मे है | हम कार्य करें | किन्तु पगार ? बाजार, मालिक द्वारा लिया गया निर्णय, मालिक के अन्य उद्योग, आदि कई अन्य विषयों पर निर्भर है पगार | नागपूर स्थित डनलप् कम्पनी और चेन्नै स्थित मद्रास पेट्रो केमिकल कम्पनी बन्द हो जाने से अनपेक्षित दारिद्र्य से घिरी कई परिवार मुझे परिचित हैं | कार्य करने मैं तैयार हूं | उसके लिये योग्य ज्ञान एवम् क्षमता मुझमे है | कार्य करने मुझे एक अवसर भी प्राप्त हआ | बस | अब कोई चिन्ता नहीं ऐसा सोच मैं कार्य करने लगा | परन्तु मेरे नियन्त्रण मे नहीं ऐसे कुछ विषयों के कारण कम्पनी बन्द हुई और अब कोई समस्या नहीं अब कोई चिन्ता नहीं यह स्थिति क्षण भर मे उलटकर अब समस्या ही समस्या है यह स्थिति बन गयी |
किसी उद्योग मे धन का निवेश करते हो | तुमहारे हाथ मे है वह कर्म | फल ? कई प्रकार के गणित किये | बाजार का अध्ययन और अवलोकन किया | विशेषज्ञो का सलाह लिया | तदनन्तर ही धन को उद्योग मे लगाया | सब कुछ मेरे नियन्त्रण मे ऐसा सोचा | परन्तु (यह परन्तु हर संभव स्थिति मे साथ आता हुआ दिखता है |) दुनिया के किसी कोने मे उठी तरङ्ग स्वदेशी बाजार मे उथल पुथल मचा देता है | या किसी राजनेता या अधिकारी द्वारा भ्रष्टाचार या नैसर्गिक आपत्ति या युद्ध या सरकार द्वार लिया गया अनुचित निर्णय या परिवार मे घटित किसी अनपेक्षित घटना ऐसे किसी कारण वश धन डूब जाता है | अपेक्षित फल की प्राप्ति होती नहीं | यह कैसे हुआ, इच्छित फल क्यों नाही प्राप्त हुआ इस का विश्लेषण करने मात्र अधिकार है तुम्हें | कर्म का फल नहीं मिला यह मात्र सत्य है |
भूखण्ड खरीदते हो यह सोचकर की उस पर अन्यों की गल्तियां दोहराये बिना बेहतर कृषी करूंगा | कृषी कार्य मे उतरते हो | उत्तम फसल खेत पर खडी दिखती है | बस अब क्या | कल फसल काट उपज को घर लायें ऐसा सोच निश्चिन्त सो जाते हो | उस रात बरसने वाली बरसात के कारण या हरताल या दङ्गा के कारण मजदूरों का न आना, या परिवार मे किसी घटना के कारण फसल कटा नहीं जाता और नष्ट हो जाता है | कर्मी को कर्म का फल प्राप्त हुआ नहीं |
किसी परीक्षा की अच्छी तयारी करते हो | परन्तु परीक्षा के पूर्व शारीरिक स्वास्थ्य बिगढने के कारण या हथेली मे उत्पन्न फोडा पकने के कारण लिखने मे असमर्थ हो जाते | या फिर परीक्षा तो लिखी परन्तु प्रश्न पत्र के लीक हो जाने या किसी उच्च अधिकारी द्वारा घूस लिये जाने के कारण परीक्षा रद्द हो जाती या दुनिया के अन्य किसी भाग मे घटित कोई घटना के कारण यह परीक्षा का महत्व ही घट जाता है | ऐसी परिस्थिति मे परीक्षा रूप कर्म से इच्छित फल हाथ से छूट जाता है |
फल को बाधित करने मे सक्षम कई विषय हैं | ये हमारे नियन्त्रण मे नहीं | कई बार हमको ये दिखते भी नहीं | अपने कर्म के फल को बाधित करने की इनकी शक्ति हमें ग्राह्य ना हो | किन्तु यह मनना पडेगा की ऐसे विषय हैं जो फल पर प्रभाव डालते हैं | अतः कर्म पर मात्र हमारा नियन्त्रण है फल पर नहीं |
किसी कार्य की कार्यक्षमता वह कार्य करते समय अपने मनका संतुलन एवम् एकाग्रता के सीधे अनुपात मे है | मन जितना अधिक एकाग्र हो कार्य कुशलता उतना ही अधिक हो जाता है | बिखरा मन निश्चित ही कार्य क्षमता को गिराता है | फल की ओर आकर्षण, अनुकूल फल प्राप्ती की अनिश्चितता, आदि मन का संतुलन बिगाडकर कार्यक्षमता को बाधित करते हैं | अतः फल के बारे मे निश्चिन्त हो केवल कर्म पर पूर्ण लगाव के साथ कार्य करना ही सुबुद्धि है |
मुझमे मनो विकार है ऐसा कुछ लोगों का कहना हो सकता है | अन्य कोई श्री कृष्ण को भी नकारात्मक मानसिकता का शिकार कह सकते हैं | "अरे | आपत्तियां विपत्तियां नकारात्मक सम्भावनाओं के विषय मे सोचे ही क्यों ?" ऐसी आलोचना कर सकते हैं | रेल स्थानक के बाहर द्विचक्र वाहनों को जहां खडा करते हैं वहां एक फलक होता है जिस पर यह सूचना लिखी होती है | "आपके वाहन पर कोई हानी हो अथवा आपका वाहन चुराया गया तो हम जवाबदार् नहीं |" इस सूचना का यह अर्थ नहीं की आपका वाहन निश्चित ही चोरी जायेगी या उसपर कोई हानी होगी ही | "सिगरेट धुआं खींचने वाला केंसर ग्रस्त हो सकता है" सिगरेट डब्बे पर लिखी यह सूचना का अर्थ यह नहीं की हर व्यक्ति जो धुआं खींचता है केंसर से पीडित होगा ही | "यहां खतरा है | बचना चाहते हो तो यहां उतरना नहीं" | यह सूचना फलक हम देखते हैं नदी या समुद्र किनारे पर | सरकार बस इतना ही कर सकता है | अपने स्वबुद्धि का उपयोग कर कर्म करना हमारे हाथ मे | श्री कृष्ण ने एक सत्य वचन की उद्घोषणा की है | और मैंने उसे समाझाने का प्रयास किया है | उस प्रयास मे कुछ संभावनाओं की चर्चा किया है अपना कार्य कौशल्य बढ जाये इस उद्देश्य से | अनुकूल फल की अप्राप्ति पर मन शोकग्रस्त ना हो इस आशा से | ऐसे 'नकारात्मक' सम्भावनाओं की चर्चा गलत नहीं | हां | समाझाने का प्रयास ही गलत हो सकता है |
योजना करना भी एक कर्म है | किन्तु योजना करना और स्वप्ना देखना दोनों मे अन्तर मात्र है |
गहरायी से सोचें तो यह अनुभव आयेगा की कर्म भी अपना नहीं | अकेले, किसी और की सहायता के बिना केवल तुमने किया हो ऐसा कोई कर्म नहीं | अन्य व्यक्ति, अन्य सूक्ष्म शक्तियों के आधार से, उनके साथ मे, उनका भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष योगदान लेकर ही हमारे सभी कर्म हैं | अल्प से अत्यल्प कर्म मे भी यह सत्य है | कृषी को ही लें | कृषी कार्य हम अकेले करते हुए दिखते भले हो | परन्तु बीज का उत्पादक, अन्य कृषी उपकरणों का उत्पादक, मिट्टी के लिये पोषक रसायन के उत्पादक, कृषी विषय ज्ञान के दाता (हमारे पूर्वज), मजदूर, यातायात के आयोजक, सूर्य, वायु, भूमि के निवासी कीडे, अन्य कई विषय एवम् व्यक्तियों के महत्वपूर्ण सहायता से ही कृषी के सभी कार्य किये जाते हैं | इतने सारे जनों के योगदान से किया हुआ कर्म के फल पर सारा अधिकार केवल मेरा ही हो यह अपेक्षा भी अनुचित है | मेरा कर्म यह कहना भी सही नहीं |
साधारणतः हम स्थूल कर्मों को ही कर्म मानते हैं | इसी लिये "मैं कार्य कर रहा हूं" ऐसा कहते हैं | "मैं व्यापार करता हूं"; "मैं वैद्य हूं"; "मैं भोजन बना रहा हूं"; आदि हमारे वचन इसी आधार पर हैं | "मैं श्वास ले रहा हूं"; "मैं अन्न का जीर्ण कर रहा हूं"; जैसे शब्द हम कहते नहीं | प्रकृती मे घटने वाले वर्षा, भूकंप आदि सभी कर्म से हम अपने आप को अलग कर लेते हैं | "मैं ही इन कर्मों को कर रहा हूं" ऐसी अनुभूति हमें होती नहीं | सत्य तो यह है की कोई भी कर्म 'मेरा कर्म' नहीं | अकेले हम से किये जाने वाले कोई कर्म नहीं |
तो मैं क्या करूं ? बस अपना कर्म कर और अलग हो जा | अपने कर्म को पूर्ण एकाग्रता सहित कर | कर्म फल के प्रति किसी प्रकार का आकर्षण के बिना कर | कर्म | केवल कर्म | स्व प्रज्ञा के साथ कर्म | अधिकतर क्षमता के साथ कर्म | अपना सब कुछ अर्पित कर कर्म |
मैं फल का स्वीकार् करूं या ना करूं ? निश्चित ही स्वीकार् करें | श्री कृष्ण का मत विपरीत नहीं | फल मे अपना योग्य हिस्सा अवश्य स्वीकार् करें अधिकार के रूप मे नहीं अपितु भगवान की कृपा प्रसाद के रूप मे | प्रति मास प्रथम दिन घर लाये पगार को ईश्वर के चरणों पर रखते हुए अपने माता पिता को हमने अपनी बालावस्था मे देखा है | किसान फसल के प्रथम हिस्सा को ईश्वरार्पित करता है | बुनकर अपने हाथ बुनी हुई पहली साडी को देवी के चरण पर अर्पित करता है | अपने घरों मे दैनन्दिन पकाये जाने वाले भोजन का प्रथम भाग भगवान के लिये नैवेद्य किया जाता है | ये सब चेष्टायें 'अपने परिश्रम का फल भगवान की कृपा प्रसाद है' इस विचार को अपने मन मे प्रस्थापित करने के प्रयास हैं | कर्म करें और फल को भगवान का प्रसाद मानकर लें |
इस विचार का चिन्तन क्यों किया जाना चाहिये ?
उक्त विचार से हमारी कार्य क्षमता मे उन्नती होती है |
इस विचार की अनुभूति हमें विनम्र बना देती है | हम तो इस विशाल संसार मे एक तृण मात्र हैं ऐसी अनुभूति होती है |
हमारे भीतर धीमे धीमे अङ्कुरित होने वाले अहङ्कार का, मद का नाश हो जाता है |
हमारे भीतर धीमे धीमे अङ्कुरित होने वाले अहङ्कार का, मद का नाश हो जाता है |
इस विचार के प्रती निष्ठा जिस मन मे हो वह मन शान्त, और आनन्द का अनुभव करता है |
अपना समाज सौहार्दपूर्ण, स्नेहमय जीवन के लिये योग्य बन जाता है |
"इस चिन्तन के कारण समाज मे आलस्य, कर्म के प्रती अरुची एवम् कर्महीनता उत्पन्न हो जाये तो विपरीत होगा |" यह संदेह हममे से कुछ को हो सकता है | इसी तर्क का प्रयोग दूसरी दिशा मे करें तो "कर्म मे असफलता, अपेक्षित फल की प्राप्ती ना होने से भी आलस्य, कर्म के प्रती अरुचि एवम् कर्महीनता उत्पन्न हो सकते हैं |" ऐसा भी कह सकते हैं | इस विचार का चिन्तन गीता की एक और शब्दावली मे है | इसी श्लोक का उत्तरार्ध मे आये इस शब्दावली हमारे अगली एपिसोड मे चर्चा की जायेगी |
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