ॐ
गीता की कुछ शब्दावली (७)
मा ते सोङ्गोSस्तु अकर्मणि (अध्याय २ - श्लोक ४७)
மா தே ஸங்கோஸ்து அகர்மணி (அத்யாயம் 2 - ஸ்லோகம் 47)
Maa te sangostu akarmani (Chapter 2 - Shloka 47)
अनुकूल फल प्राप्ति का राग कर्म को निश्चित ही छेडता है | परन्तु क्षमता का क्षय भी कराता है और उस कर्म से प्राप्त फल को भी बाधित करता है | इस कारण मन मे अशान्ति और अस्थिरता उत्पन्न होकर कर्म मे अरुची और अकर्म पैदा होते हैं | उक्त अकर्म से ही आलस्य का जन्म होता है | आलस्य को हिलाकर पुनः कर्म की ओर मन को प्रेरित करना हो तो अनुकूल फल की इच्छा का मनमे पुनर्जन्म होना अवश्य है | इस प्रकार कर्मफल की इच्छा ही कर्म की प्रेरणा देती है | अकर्म की भी प्रेरणा देती है |
फल प्राप्ति का राग न होना, फल के विषय मे अरुची होना मानसिक स्तर पर अकर्म ही हैं | सूक्ष्म स्तर पर इस प्रकार अकर्म को प्राप्त व्यक्ति प्रकट स्तर पर, स्थूल स्तर पर कर्म मे लगा हुआ, अनेक कर्मों मे लगा हुआ रह सकता है | ऐसे ही कर्म स्व का प्रकटीकरण हैं | फल के प्रती राग या रुची इन कर्मों को न प्रेरित करते हैं न ही बाधित | (मन मे तो ये उपस्थित ही नहीं तो कर्म को कैसे प्रेरित या बाधित करें?)
अर्थ : अकर्म पर राग ना करना | कर्म न करने की इच्छा ना करना |
मनुष्य की सहज प्रवृत्ति दिखने वाले एक विषय के बारे हमें सचेत कर रहे हैं श्री कृष्ण | "कर्म के फल हाथ आने की संभावना न हों तो प्रयत्न ही क्यों करें?" "चुनाव मे जीतने के लक्षण दिख नहीं रहें तो धन, समय एवम् ऊर्जा का खर्च कर प्रचार कार्य करना ही क्यों?" "तुम्हें यह नौकरी तो मिलने वाली नहीं | फिर परीक्षा लिखना ही क्यों ?" "किसी बडी हस्ती की छत्र छाया के बिना तो फ़िल्मी दुनिया मे यशस्वी बनाना तो असंभव | आज तक ऐसे ही होते आया है | इसमे स्थान बनाने के तुमारे प्रयत्न तो व्यर्थ हैं | और कुछ करना ही तुम्हारे लिये अच्छा होगा |" ऐसे शब्दों से हम परिचित हैं | (श्री कृष्ण का कहना यह नहीं की कर्म के फल मिलते नहीं | वे तो इतना ही सुझा रहे हैं की फल पर आसक्ति न करना | वह अलग विषय है |) अपना भी चिन्तन कुछ ऐसा ही है | अपने चारों ओर स्थित अन्यों का चिन्तन भी ऐसा ही है | "अपने कर्म के अनुकूल फल मिलने की संभावना कम हो तो कर्म का प्रयत्न ही व्यर्थ है |" हम मे कइयों का अभिप्राय यही है | "फल के प्रति राग ही कर्म के लिये प्रेरणा है | यदी फल की इच्छा न हो तो कर्म भी हो नहीं सकते |" यह भी एक सामान्य धारणा है | इसी कारण 'फल पर राग न हो, अकर्म की प्रेरणा भी न हो' श्री कृष्ण का यह सुझाव हम मे अनेकों के समझ के बाहर है | परन्तु यदी हमने राजनैतिक क्षेत्र, विज्ञान, कला, खेल और फ़िल्मी दुनिया मे झांक कर देखा तो इसके विपरीत दृश्य दिखेगा | इन क्षेत्रों मे या अन्य किसी क्षेत्र मे यशस्वी सभी व्यक्तियों ने कर्म किये, केवल कर्म, विपरीत परिस्थितियों की अनदेखा कर अथक कर्म, दूर दूर तक यश या अनुकूल फल का झलक न दिखते हुए भी सोत्साह कर्म, निरुत्साह करने मे समर्थ परिस्थितियों से बाधित न होकर कर्म, लम्बे समय तक अविरत कर्म, करते रहे यह दृश्य दिखता है | उन के मन मे यश, अनुकूल फल, आदि विषयों के लिये कोई स्थान नहीं | यश ही उन्हें ढूण्ढता हुआ उनके साथ उन्नत रीति मे एकरूप हो गया ऐसा कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी |
कर्म स्व का प्रकट रूप है | कर्म स्वभाव का मूर्त रूप है | 'मैं ही कर्म हूं'. कर्म का फल यश, अपयश या अन्य कुछ भी हो | यश की एक ऐसी व्याख्या नही है जो सभी देश, काल, व्यक्ति एवम् परिस्थिती मे युक्त हो | यश यह हमारे लिये अन्यों का समर्थन, या अन्यों की मान्यता मात्र है | परन्तु कर्म अपना स्व का परिचय है | अन्यों की मान्यता या समर्थन पर निर्भर नहीं | अन्यों की मान्यता हो या ना हो "मैं तो मैं ही" हूं |
कर्म की पूर्ति से उत्पन्न आनन्द यह पूर्ण और असीम है | परन्तु अनुकूल फल की प्राप्ति से मिलने वाला सुख सीमित और अपूर्ण है | 'कर्म की पूर्ति पर' - क्यों की कर्म करते समय उक्त कर्म या उससे उत्पन्न आनन्द का अनुभव असम्भव है | अनुभव करने के लिये हमें उससे अलग होना पडता है | कर्म मे डूब जाना या उस कर्म के साथ एकरूप हो जाना यही कर्म की कुशलता है | कर्म स्व का ही प्रकट रूप हो जाना चाहिये | कर्म और कर्ता का ऐक्य हो जाना चाहिये | ऐसे ही कर्म आनन्द दायी हैं और उस आनन्द का अनुभव कर्म की पूर्ति पर ही होता है | निद्रा का, गहरी निद्रा मे प्राप्त सुख का अनुभव सोते समय हो नहीं सकता | अनुभव लेने की इच्छा होते ही निद्रा खण्डित हो जाती है | निद्रा की पूर्ति पर ही उस सुख का अनुभव हो सकता है | ठीक उसी प्रकार सकुशल कर्म करने से प्राप्त आनन्द की अनुभूति कर्म की पूर्ति पर ही हो सकती है | ऐसे सकुशल कर्म ही कर्म हैं | कर्म के सम्भावित फल की इच्छा कर्म को बाधित कर देती है |
उसी समय अकर्म स्व को नकारना है | अकर्म यह अप्राकृतिक है | अकर्म मिथ्या है | हम स्थूल कर्मों को ही कर्म समझते हैं | तो हमारे लिये स्थूल कर्मों का न होना ही अकर्म है | परन्तु जो मन कर्म युक्त हो, जो मन कर्म की लालसा से भरा हो, वह मन शरीर को भी कर्म के लिये उत्तेजित कर देता है |
मनुष्य की सहज प्रवृत्ति दिखने वाले एक विषय के बारे हमें सचेत कर रहे हैं श्री कृष्ण | "कर्म के फल हाथ आने की संभावना न हों तो प्रयत्न ही क्यों करें?" "चुनाव मे जीतने के लक्षण दिख नहीं रहें तो धन, समय एवम् ऊर्जा का खर्च कर प्रचार कार्य करना ही क्यों?" "तुम्हें यह नौकरी तो मिलने वाली नहीं | फिर परीक्षा लिखना ही क्यों ?" "किसी बडी हस्ती की छत्र छाया के बिना तो फ़िल्मी दुनिया मे यशस्वी बनाना तो असंभव | आज तक ऐसे ही होते आया है | इसमे स्थान बनाने के तुमारे प्रयत्न तो व्यर्थ हैं | और कुछ करना ही तुम्हारे लिये अच्छा होगा |" ऐसे शब्दों से हम परिचित हैं | (श्री कृष्ण का कहना यह नहीं की कर्म के फल मिलते नहीं | वे तो इतना ही सुझा रहे हैं की फल पर आसक्ति न करना | वह अलग विषय है |) अपना भी चिन्तन कुछ ऐसा ही है | अपने चारों ओर स्थित अन्यों का चिन्तन भी ऐसा ही है | "अपने कर्म के अनुकूल फल मिलने की संभावना कम हो तो कर्म का प्रयत्न ही व्यर्थ है |" हम मे कइयों का अभिप्राय यही है | "फल के प्रति राग ही कर्म के लिये प्रेरणा है | यदी फल की इच्छा न हो तो कर्म भी हो नहीं सकते |" यह भी एक सामान्य धारणा है | इसी कारण 'फल पर राग न हो, अकर्म की प्रेरणा भी न हो' श्री कृष्ण का यह सुझाव हम मे अनेकों के समझ के बाहर है | परन्तु यदी हमने राजनैतिक क्षेत्र, विज्ञान, कला, खेल और फ़िल्मी दुनिया मे झांक कर देखा तो इसके विपरीत दृश्य दिखेगा | इन क्षेत्रों मे या अन्य किसी क्षेत्र मे यशस्वी सभी व्यक्तियों ने कर्म किये, केवल कर्म, विपरीत परिस्थितियों की अनदेखा कर अथक कर्म, दूर दूर तक यश या अनुकूल फल का झलक न दिखते हुए भी सोत्साह कर्म, निरुत्साह करने मे समर्थ परिस्थितियों से बाधित न होकर कर्म, लम्बे समय तक अविरत कर्म, करते रहे यह दृश्य दिखता है | उन के मन मे यश, अनुकूल फल, आदि विषयों के लिये कोई स्थान नहीं | यश ही उन्हें ढूण्ढता हुआ उनके साथ उन्नत रीति मे एकरूप हो गया ऐसा कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी |
कर्म स्व का प्रकट रूप है | कर्म स्वभाव का मूर्त रूप है | 'मैं ही कर्म हूं'. कर्म का फल यश, अपयश या अन्य कुछ भी हो | यश की एक ऐसी व्याख्या नही है जो सभी देश, काल, व्यक्ति एवम् परिस्थिती मे युक्त हो | यश यह हमारे लिये अन्यों का समर्थन, या अन्यों की मान्यता मात्र है | परन्तु कर्म अपना स्व का परिचय है | अन्यों की मान्यता या समर्थन पर निर्भर नहीं | अन्यों की मान्यता हो या ना हो "मैं तो मैं ही" हूं |
कर्म की पूर्ति से उत्पन्न आनन्द यह पूर्ण और असीम है | परन्तु अनुकूल फल की प्राप्ति से मिलने वाला सुख सीमित और अपूर्ण है | 'कर्म की पूर्ति पर' - क्यों की कर्म करते समय उक्त कर्म या उससे उत्पन्न आनन्द का अनुभव असम्भव है | अनुभव करने के लिये हमें उससे अलग होना पडता है | कर्म मे डूब जाना या उस कर्म के साथ एकरूप हो जाना यही कर्म की कुशलता है | कर्म स्व का ही प्रकट रूप हो जाना चाहिये | कर्म और कर्ता का ऐक्य हो जाना चाहिये | ऐसे ही कर्म आनन्द दायी हैं और उस आनन्द का अनुभव कर्म की पूर्ति पर ही होता है | निद्रा का, गहरी निद्रा मे प्राप्त सुख का अनुभव सोते समय हो नहीं सकता | अनुभव लेने की इच्छा होते ही निद्रा खण्डित हो जाती है | निद्रा की पूर्ति पर ही उस सुख का अनुभव हो सकता है | ठीक उसी प्रकार सकुशल कर्म करने से प्राप्त आनन्द की अनुभूति कर्म की पूर्ति पर ही हो सकती है | ऐसे सकुशल कर्म ही कर्म हैं | कर्म के सम्भावित फल की इच्छा कर्म को बाधित कर देती है |
उसी समय अकर्म स्व को नकारना है | अकर्म यह अप्राकृतिक है | अकर्म मिथ्या है | हम स्थूल कर्मों को ही कर्म समझते हैं | तो हमारे लिये स्थूल कर्मों का न होना ही अकर्म है | परन्तु जो मन कर्म युक्त हो, जो मन कर्म की लालसा से भरा हो, वह मन शरीर को भी कर्म के लिये उत्तेजित कर देता है |
अनुकूल फल प्राप्ति का राग कर्म को निश्चित ही छेडता है | परन्तु क्षमता का क्षय भी कराता है और उस कर्म से प्राप्त फल को भी बाधित करता है | इस कारण मन मे अशान्ति और अस्थिरता उत्पन्न होकर कर्म मे अरुची और अकर्म पैदा होते हैं | उक्त अकर्म से ही आलस्य का जन्म होता है | आलस्य को हिलाकर पुनः कर्म की ओर मन को प्रेरित करना हो तो अनुकूल फल की इच्छा का मनमे पुनर्जन्म होना अवश्य है | इस प्रकार कर्मफल की इच्छा ही कर्म की प्रेरणा देती है | अकर्म की भी प्रेरणा देती है |
फल प्राप्ति का राग न होना, फल के विषय मे अरुची होना मानसिक स्तर पर अकर्म ही हैं | सूक्ष्म स्तर पर इस प्रकार अकर्म को प्राप्त व्यक्ति प्रकट स्तर पर, स्थूल स्तर पर कर्म मे लगा हुआ, अनेक कर्मों मे लगा हुआ रह सकता है | ऐसे ही कर्म स्व का प्रकटीकरण हैं | फल के प्रती राग या रुची इन कर्मों को न प्रेरित करते हैं न ही बाधित | (मन मे तो ये उपस्थित ही नहीं तो कर्म को कैसे प्रेरित या बाधित करें?)
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