ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - ११
यदा संहरते चायं कूर्मोSङ्गानीव सर्वशः (अध्याय २ - श्लोक ५८)
யதா ஸம்ஹரதே சாயம் கூர்மோSங்கானீவ ஸர்வஷஹ (அத்யாயம் 2 - ஸ்லோகம் 58)
Yadaa Samharate chaayam koormongaaneeva Sarvashah (Chapter 2 - Shloka 58)
अर्थ : कछुवा जैसे अपने पांचों बाह्य अङ्गों को अपने ढाल के भीतर खींच लेता है ...
यह एक सुन्दर उपमा है | हिन्दु धर्म के चिन्तन को समझाने हेतु अनेकदा प्रयोग की गयी उपमा है | कछुवा धीरे, बहुत धीरे चलता है | यह संसार तो वेग, अति वेग और कठोरता युक्त शिकारियों का आरण्य है | धीरे चलने वाली प्राणी यहां शिकार ग्रस्त हो जाने की संभावना अधिक है | परन्तु भगवान जो इस संसार का सृष्टिकर्ता है, वह अप्रतीम बुद्धि और क्षमता युक्त तो है, करुणा सागर भी है | (उसके क्षमता और गुणों का मूल्याङ्कन करने की योग्यता मुझे प्राप्त नहीं | जैसे एक बच्चा अपने पिता के सामर्थ्य को देख आश्चर्य चकित होता है बस वैसी ही स्थिती मे हूं मैं |) अपने द्वारा सृष्टित प्रत्येक जीव को एक विशेष एवम् मार्मिक शक्ति भी भगवान ने दिया है जिस के सहारे वह जीव अपनी रक्षा कर जीता है | उसका ढाल ही कछुवा के लिये वह विशेषता है | अपने लिये आपत्ति आते हुए उसे दिखा की तुरन्त वह अपने पांचों अङ्गों को अपने ढाल के अन्दर समेट लेता है और भूमि के साथ चिपक जाता है | शिकारी जीव के लिये ढाल तो भोजन नहीं | अतः आत्म रक्षा की शक्यता कछुवे के लिये बढ जाती है | निसर्ग मे प्रचलित एक नीयत है यह |
अपने श्रेष्ट पूर्वज मनुष्य जीवन का अर्थ समाझने हेतु सूक्ष्म दृष्टी से निसर्ग को देखते थे | अपने द्वारा दर्शन किये गये गहरे तत्त्वों को समझाने ऐसे सुन्दर उपमाओं का प्रयोग करते थे |
मनुष्य के ५ ज्ञानेन्द्रिय हैं | संसार का ज्ञान देने वाले इन्द्रिय | इन पांच ज्ञानेन्द्रियों के ये पांच स्थूल उपकरण हैं - १. आंख; २. कान; ३. नासिका; ४. जिह्वा; ५. त्वचा. इन उपकरणों के कार्य हैं (उसी क्रम मे) - १. देखना (दृष्टि); २. श्रवण; ३. सूंघना (जिघ्नन); ४. स्वाद पहचानना/ भोजन (अश्नन); और ५. स्पर्श से जानना | इन पांच ज्ञानेन्द्रियों के विषय (आहार) हैं - १. दर्शन; २. शब्द; ३. गन्ध; ४. रुची; एवम् ५. स्पर्श भाव | हम इस संसार को ज्ञानेन्द्रियों के इन्हीं पांच उपकरण द्वारा जानते हैं | उदाहरणार्थ : हम आंख द्वारा रङ्ग, रूप और आकार को जानते हैं | एक जन्मजात नेत्रहीन कपडा को जान सकता है, अपने अन्य करणों की सहायता से | परन्तु लाख प्रयत्न करने पर भी वह 'हरा वस्त्र या लाल वस्त्र' को जान नहीं सकता | आंखों के अभाव मे संसार के बारे मे हमारा ज्ञान अपूर्ण है | कान द्वारा हम विभिन्न शब्दों को जानते हैं | वैसे ही अन्य कारण भी. ... इन उपकरणों की जानने की क्षमता सूक्ष्म अति सूक्ष्म भेद को परख कर विषयों को पहचानने की क्षमता अपार है | संसार के सहस्रों विषयों को पहचानने की क्षमता ये रखते हैं | (स्थूल भेदों को तो मूर्ख भी पहचान सकेगा | सूक्ष्म भेदों को पहचानने के लिये बुद्धि की अतीव कुशाग्रता की आवश्यकता है |) अपनी नासिका ८००० प्रकार के गन्धों को पहचानने का सामर्थ्य राखती है ऐसा विज्ञान कहता है |
अतः संसार को जानने के लिये ये उपकरण अवश्यक हैं इसमे कोई संदेह नहीं | किन्तु संसार को हम क्यों जानें ? इस संसार मे हमें जीना है इसी लिये | हमारे जीवन भर हमें इस संसार के संग व्यवहार करना है इस लिये ? ठीक है | परन्तु ये कारण अति अल्प हैं | महत्वपूर्ण कारण यह है की हमें 'अपने आप' को जानना है | इस संसार की विविधता के अन्तर्गत छिपी एक सार तत्त्व को जानना है | हमें सृष्टिकर्ता ईश्वर को जानना है | उसके साथ एक हो जाना है | अतः उसकी सृष्टी इस संसार को जानना है | संसार के विषय मे ज्ञान प्राप्त करने मे सहायक ये करण ज्ञानेन्द्रिय इस नाम से जाने जाते हैं |
ये करणों की कार्यशैली कैसी है ? अपने कार्य करने इनको बाह्य संसार मे जाना पडता है | विवरण प्राप्त कर, उस विवरण को बुद्धी के पास भेज देना पडता है | बुद्धी ज्ञानेन्द्रियों द्वारा भेजे गये विवरणों का संश्लेषण विश्लेषण कर सार ज्ञान निकाल उसे अपने संग्रहालय मे संग्रह करती है और भविष्य मे निर्णय लेते समय इस ज्ञान का उपयोग करती है | अतः यह स्पष्ट है की इन्द्रियों को तो बाहरी दुनिया मे विचरना ही पडेगा | आंखें बाह्य संसार के चित्र का दर्शन कर, जो देखा उसे बिना censor किये बुद्धी के पास भेजना होगा | कान के लिये बाहर की ओर खुलकर बाह्य संसार के शब्दों को सुन कर सुने हुए सभी शब्दों को बुद्धी के पास भेजना ही कर्तव्य है | इन उपकरणों का कार्यक्षेत्र है बाह्य संसार | स्व और संसार के बीच ये करण ऐसे द्वार हैं जो बाहर की ओर ही खुलते हैं |
फिर इन्हें अन्दर की ओर क्यों खींच लें ? उनके कर्मक्षेत्र मे उन्हें विचरने से क्यों रोकें ? इस व्यवस्था मे हमें फंसाने वाला एक जाल है | यदी अपने ज्ञानेन्द्रिय किसी प्रकार के पूर्वाग्रह के बिना काम करें तो कोई समस्या नहीं | परन्तु अन्दर मन नामक एक दादा बैठा है जो इन करणों को उचकाता है, चाबुक लगाकर दौढाता है | उसके इच्छा अनिच्छाओं की एक सूची मे सूचित विषयों के खोज मे ये उपकरण दौढते हैं | यही है हमें फंसाने वाला जाल |
मन इस संसार को ज्यों की त्यों स्वीकारता नहीं | उसपर अपना पसन्द, नापसंद, इच्छा, द्वेष, अनुकूल, प्रतिकूल, आदि वर्णों को चढाता है | उस के आधार पर अपने पसंदीदा, अनुकूल, इच्छित विषयों के पीछे इन करणों को दौढने की आज्ञा देता है मन | यह असंभव है | इस आज्ञा का पालन करने मे ये इन्द्रिय असमर्थ हैं | क्यों की संसार कटु से मधुर तक, अति घोर से अत्याधिक सुन्दर तक, नाजूक से कठोर तक, स्नेह से वैर तक, मृदु से कठिन तक, सभी विषयों का गोदाम है | और इन उपकरणों को चुनने का अधिकार भी नहीं सामर्थ्य भी नहीं | परिणामतः मन उत्तेजित हो जाता है | अनुकूल अनुभव की प्राप्ती से उछलता है और उनकी पुनर्प्राप्ती की इच्छा करता है | प्रतिकूल अनुभव से उद्विग्न हो जाता है और वे पुनः प्राप्त ना हो ऐसी इच्छा करता है | अतः अपने करणों के ऊपर और अधिक आवेश से चाबुक का प्रयोग करता है | अधिक वेग से उन्हें दौढाता है | (अपने ऊपर रखा गया जिलेबी के स्वाद के सिग्नल्स बुद्धी की ओर भेजना मात्र जीभ का काम है | कितने जिलेबी खायें यह निश्चय करना जीभ का काम नहीं | वह करता भी नहीं | परन्तु मन को जलेबी पसन्द है | और अपने पसन्द की पूर्ति हेतु वह जीभ को दौढाता है |) मन की इस अराजकता मे 'स्व' फंस जाता है |
मृत्यु हमारे लिये आपत्ति नहीं | हमारे लिये पुनर्-जन्म है और हम वापस आकार जहां छोडा वहीं से आगे बढ सकते हैं | परन्तु अधः-पतन हमारे लिये घातक है | विषयों की इस जाल मे फंसकर हमारी अधो गति होती है | इन्द्रिय - संसारिक विषय इनका संबन्ध से उत्पन्न अनुभव से हम सीखें और अपने जीवन प्रयाण मे आगे बढें यही विवेकी से अपेक्षा है | इसी संदर्भ मे "कछुवा जैसे अपने पांच अङ्गों को भीतर खींच ले" यह सुझाव का महत्व है | जागृत रहें | विवेक का उपयोग करें | स्वेच्छा से इन ज्ञानेन्द्रियों को संसार मे भटकने ना दें | वे अपने कर्तव्य मात्र करें | उन्हे अपनी सीमा लाङ्घने ना दें | उन्हें कछुवा जैसे बाह्य संसार से अन्दर खींचें | (याने उनको उनका आहार ना दें |) अपनी बिछायी जाल मे 'स्व' को फंसाने की अनुमति उन्हें ना दें !!!
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