ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - १२
या निशा सर्व भूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ... (अध्याय २ - श्लोक ६९)
யா நிஷா ஸர்வ பூதானாம் தஸ்யாம் ஜாகர்தி ஸம்யமீ ... (அத்யாயம் 2 - ஸ்லோகம் 69)
Yaa Nishaa Sarva Bhootaanaam Tasyaam Jaagarti Samyamee ... (Chapter 2 - Shlokam 69)
अर्थ : अन्य सभी के लिये जो रात्री है इसके लिये वह दिन है |
देश पर चलने वाला अधार्मिक एवम् इस्लामी शासन की परवाह किये बिना पूरा समाज जहां एक ओर गहरी निद्रा मे डूबा था उसी समय एक बालक गहन चिन्तन मे, घोर तपस्या मे मग्न था | पूछा जाने पर "चिन्ता करितो विश्वाची " (विश्व के बारे मे सोच रहा हूं ऐसा उत्तर देता था |) आगे चलकर समर्थ श्री रामदास नाम से जाने गये, छत्रपति श्री शिवाजि के गुरु बने और तरुणों का संगठन और धार्मिक हिन्दवि स्वराज की स्थापना के सूत्रधार बने | आज भी मध्य और पश्चिम भारत मे स्थापित हजारों हनुमान मन्दिर और अखारा समर्थ श्री रामदास का कठोर परिश्रम, असीम उत्साह और दिव्य प्रेरणा युक्त जीवन का दर्शन कराते हैं |
उसके समवयस्क बालक जब अर्थहीन गतिविधियों मे लगे हुए थे और मौज मस्ति लुटा रहे थे, मारडोना नामक वह बालक अपने फुट बाल के साथ अभ्यास मे मग्न था | निर्जीव फुट बाल जब मारडोना के पास आता तो मानो उसके पैरों के हलचल के साथ , ना ना उसके आखों के इशार्रों पर, ना उसके मन की इच्छाओं के अनुसार नाचने वाली सजीव नर्तकी ही बन जाता |
कुछ दिन पहले मैं ने दूरदर्शन मे एक भेंट वार्ता कार्यक्रम देखा | पत्रकार एक युवा संगीत कलाकार की भेंट ले रही थी | उसने पूंछा "दिन प्रति दिन संगीत के क्लास और एकान्त मे तुम्हारी साधना इस मे लगी हो | करेस्पाण्डेन्स द्वारा पदवी प्राप्त करने जा रही हो | क्या तुम्हे ऐसा नहीं लगता की तुम संगीत के कारण महाविद्यालयीन जीवन के रङ्ग और मस्ति से वञ्चित रह गयी ?" उस का उत्तर शान्त स्वर मे था | सुन्दर भी | "वह मस्ति चाहिये तो इस आनन्द को खोना पडेगा | माना की कालेज जीवन मे रङ्ग है मौज मस्ति है | परन्तु जब मैं अपने वोयलिन के तार छेडती हूं तो जो आनन्द का अनुभव करती हूं दुनिया की कोई मौज मस्ति उस के समा तो दूर आस पास भी नहीं |" साधकों की यह एक विशेषता है | वे शान्त हैं | अपने आप मे संतुष्ट | स्पर्धा नहीं | हडभडाहट नहीं | अपनी साधनी के विषय मे दृढ निश्चयी |
अन्यों के लिये जो रात है इसके लिये दिन | संगीत, कला, खेल, विज्ञान, साहित्य, राजनीति आदि संसार के प्रत्येक क्षेत्र मे जो निपुण हुए उन सब की यही कथा है | साधक की दृष्टी मे संसार है नहीं और संसार के दृष्टी मे साधक | रहा भी तो संसार अनदेखा करता है | मेरे Twitter पृष्ट पर एक कथा आयी | बिहार के श्री दशरथ माञ्झी की पत्नी बिमार थी | छोटे पर्वत के उस पार नगर था जिसमे अस्पताल | समय पर अस्पताल पहुंच न पाये इस कारण पत्नी मर गयी | श्री माञ्झी अपना हथोडा लेकर पर्वत तोडने लगे | उस पर्वत पर सीधा नगर तक पाहुंचने वाला मार्ग बनाया | घूम कर जाने वाला मार्ग ७५ कीलो मीटर लम्बा था तो इनका बनाया मार्ग केवल एक कीलो मीटर | २२ वर्ष लगे | https://pbs.twimg.com/media/CBw4hv7UIAEIXjB.jpg अपना कार्य संभव है या नहीं , अपने जीवन काल मे पूर्ण होगा की नहीं | कार्य मे लगे श्री माञ्झी के मन मे ये विचार आये भी नहीं होंगे | वे कहते हैं "मैं जब अपने हथोडे से पत्थर तोडने लगा तो सभी ने मुझे पागल कहा | सुन सुनकर मेरा सङ्कल्प दृढ होता गया |" साधक के एक ओर विशेषता है यह | पागल उपाधी |
महाभारत मे इस विषय को सूचित करने वाली एक कथा है | एक रात आचार्य द्रोण को नीन्द लगी नहीं | महल से बाहर निकले और आङ्गन मे टहलने लगे | वहां अन्धेरे मे शब्द को ग्रहण कर उस दिशा मे तीर चलाने का अभ्यास मे लगा हुआ था अर्जुन | द्रोण आश्चर्यचकित हुए | "अरे ! अन्य सभी निद्रा मे मग्न हैं और तुम?? मैं ने तो यह बात तुम्हें सुझाया नहीं | तो कैसे??" द्रोणाचार्य ने पूछा | "इसकी प्रेरणा मुझे बडे भाई भीम ने दी | हम दोनो भोजन कर रहे थे | दिया बुझ गयी | मैं रुक गया पर भीम खाता रहा | पूछे जाने पर उसने कहा की हाथ को पर्याप्त अभ्यास है | अन्धेरा हो की प्रकाश वह अन्न ग्रास को मुख मे ही डालता, कान या नाक मे नहीं | मैं ने सोचा "तो हाथ मे अभ्यास चढाने से अन्धेरे मे भी तीर चलाना संभव है" | तुरन्त अभ्यास मे लग गया |" विनम्र अर्जुन ने उत्तर दिया | पुलकाङ्कित द्रोणाचार्य ने उस गले लगाया | यह एक विशेष क्षमता है | शब्द को सुन उसके श्रोत पर तीर चलाना | अपने इतिहास मे तीन व्यक्ति इस दुर्लभ क्षमता को प्राप्त थी , राजा दशरात, अर्जुन और पृथ्वीराज चौहान |
गीता की यह शब्दावली एक सूक्ष्म भाव को व्यक्त करती है | यह साधक को सूचित करती है | साधक किसी भी क्षेत्र मे क्यों न हो लौकिक या आध्यात्मिक | अन्य जन जिन विषयों से आकर्षित होते हैं साधक उन विषयों के लिये मानो अन्धा रहता है | साधक जिस विषय मे सब् कुछ खोकर डूबता है वह संसार के लिये रुची का विषय होता नहीं | अतः संसार उसकी और उसके साधना की अनदेखा करता है |
साधक को अपनी साधना मे डूबने की प्रेरणा यश या नाम प्राप्ति की संभावना से नहीं मिलती | यश मिले न मिले साधक का उसपर कोई विचार नहीं | वह तो लगा हुआ है | साधना मे लगना, गहरायी और गहरायी मे डूबना इसमे प्राप्त अलौकिक आनन्द ही उसके लिये प्रेरणा है | पुराना गीत है एक | "साथ बहना तो सरल है प्रतिकूल बहना ही कठिन है" | सरल कठिन ये सब हम जैसे साधारण जनों के विषय हैं | साधक के नहीं | In fact, वह तो मनमे अनुभव का ग्रहण भी करता नहीं | ग्रहण होने से ही तो उस पर "सरल - कठिन" की मुद्रा लग सकती है | वह तो बस अपनी साधना मे मग्न है |
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