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गीता के कुछ शब्दावली - १३

गीता के कुछ शब्दावली  - १३

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा समरन ....(अध्याय ३ - श्लोक ६)
கர்மேந்த்ரியாணி ஸம்யம்ய ய ஆஸ்தே மனஸா ஸ்மரந் ... (அத்யாயம் 3 - ஸ்லோகம் 6)
KARMENDRIYAANI SAMYAMYA YA AASTE MANASAA SMARAN ... (CHAPTER 3 - SHLOKA 6)

अर्थ :  बाहर से  इन्द्रियों का नियन्त्रण  परन्तु  भीतर विषयों पर चरता हुआ मन। .. ..

मन इन्द्रियों से अधिक शक्तिशाली है ।  मन से ही आज्ञा पाकर इन्द्रियां बाहरी संसार में विचरते हैं, विषयों से सम्पर्क स्थापित करते हैं  और उस अनुभव को वापस ले आते हैं ।  मन  उक्त अनुभवों का स्वाद लेता है, उन्हें सुखमय, कष्टमय, अनुकूल प्रतिकूल आदि शीर्षकों के नीचे बॉटता है ।  यदि  मन अनुपस्थित हो या अन्य विषय में बंधा हो तो अनुभव का सार भीतर प्रवेश भी कर नहीं पाता ।  उदाहरणार्थ क्रिकेट स्टेडियम में बैठा हुआ व्यक्ति के आंखों के पीछे बैठा उसका मन वहां के दृश्यों  का आनन्द लूटने में डूबा हुआ होता है ।  तपता सूर्य की गर्मी के सम्पर्क में पक रही उसकी चमड़ी द्वारा आये अनुभव का तो मन ग्रहण भी नहीं करता ।  अन्यथा यह अनुभव मन के लिए दुःखद है और अस्वीकार्य है ।  परन्तु अब तो मन के पास चमड़ी द्धारा भेजे गए अनुभव के लिए समय भी नहीं ।  अतः उस अनुभव का उसे परवाह नहीं ।  मैच यदि मंद हो जाए,  मैच यदि अरुचिकर हो जाए तो मन के लिए चमड़ी का अनुभव असहनीय हो जाता है ।  कक्षा में शिक्षक के कंठ से निकले शब्द और उन शब्दों द्वारा प्रसारित शिक्षण का विषय तो विद्यार्थी के कानों में प्रवेश भी नहीं पाते यदि उसका मन खेल के मैदान से बंधा हो, अतीत में खेला गया मैच के स्मरण में या भविष्य में होने वाला मैच के स्वप्नों में डूबकर ।  उसके कान बहरे तो नहीं परन्तु मन की अनुपस्थिति में शिक्षक के शब्दों के लिए बहरे हो जाते हैं ।

हम जब यह समझते हैं की एक इन्द्रिय अपने किसी विषय के साथ लगाव के कारण हमारे लिए बाधक बन रहा है, तो साधारणतः हम उस इन्द्रिय पर नियंत्रण लगाते हैं ।  आंख हमारे लिए बाधक हैं तो आखें बंद करना या कान बाधक लगें तो कपास लगाकर कान बंद कर लेना आदि ।  इस प्रयत्न को तो असफल ही होना है ।   क्यों की जब तक मन को किसी कार्य में रूची नहीं होती तब तक वह उस कार्य में लगता नहीं ।  रूची जितनी गहरी लगाव भी उतना ही अधिक ।  इस प्रकार के लगाव के अभाव में बाहर से कितना ही शक्तिशाली नियंत्रण लगें तो भी व्यर्थ ।  अपने संतान के शिक्षण के प्रति चिंतित माँ-बाप रिमोट को छिपाकर अथवा केबल कांटकर टीवी देखने पर नियंत्रण लगाते हैं ।  अपने पति के स्वास्थय के लिए चिंतित, उसके शुगर लेवल पर चिंतित पत्नी रस गुल्ला / गुलाब जामुन के डब्बे को छिपाकर उसके जीभ पर नियंत्रण लगाने का प्रयत्न करती है ।  बाहरी नियंत्रण लगाने के हर प्रकार के प्रयत्न निश्चित ही व्यर्थ हैं ।

इस प्रकार के बाहरी नियंत्रण से एक फल अवश्य निकलता है ।  मनुष्य "मिथ्याचारी"  बनता है ।  मिथ्याचार के कई रूप होते हैं ।  कुछ यहां उल्लिखित हैं ।  बाहरी रूप सादगी का पर मन तो और चाहता है (मन माँगे मोर !!) ;  बाहर से तो विनम्र पर अहंकारी मन ;  बाहर से तो मधुर भाषी पर मन में द्धेष और ईर्श्या ;  बाहर से तो सहायता के हाथ पर भीतर षड़यंत्र रचाता हुआ मन ;  बाहर से तो हँसमुख चेहरा पर मन में क्रोध और वहम ;  बाहर से तो दानी वृत्ति पर मन में शाप के वचन ;  बाहर से धार्मिक परन्तु मन स्वार्थ से भरा ;  बाहर से शांत स्वरुप पर मन में  उथल-पुथल ;  बाहर से ब्रह्मचर्य का अवतार पर भीतर काम से भरा मन ; आदि आदि ।

एक कथा है ।  एक युवक ध्यान के लिए योग्य स्थान ढूंढता है ।  नागरी आकर्षणों से दूर, शांत वातावरण में एक स्थान का चयन करता है ।  ध्यान के लिए बैठता है ।  वहाँ से एक युवती गुजरती है ।  युवक ने उसे देखा और उसका ध्यान भंग हुआ ।  अगली बार  युवक ने अपने आंखों पर एक पट्टी बाँधा और ध्यान के लिए बैठा ।  वह युवती आयी ।  युवक के आंखों ने उसे देखा तो नहीं ।  पर युवक के कानों ने युवती के नूपुर की ध्वनि सुनी ।  उसका ध्यान भंग हो गया ।  अपने कानों में कपास के गोले लगा लिए और पुनः एक बार ध्यान करने बैठा ।  युवती आयी ।  अब युवक ने ना उसे देखा ना उसके नूपुर की ध्वनि ही सुनी ।  पर उसके नाक ने युवती के बालों पर लगे फूलों के सुगंध सूँघ लिया और फिर एक बार उसका ध्यान भंग हुआ ।  नासि द्धार पर भी कपास के गोले लगा लिए और युवक फिर एक बार ध्यान पर बैठा ।  युवती आयी ।  बंद कान, आँख और नाक युवती के आने का समाचार दे न सके और उसके ध्यान भंग करने में तो असफल हुए ।  पर मन तो जागृत है ?  बाहर निकला और युवती के सौंदर्य रूप की कल्पना करने लगा तो युवक का ध्यान पुनः एक बार भंग हुआ ।  बाहरी नियंत्रण असफल सिद्ध होते हैं ।

एक और कथा है ।  एक गुरु और उसका शिष्य नदी के किनारे टहल रहे थे ।  ७० वर्षीय गुरु आजीवन कड़क ब्रह्मचर्य व्रती रहे ।  शिष्य युवावस्था में था ।  गुरु अपने जीवन के अनुभव सूना रहे थे और शिष्य सुन रहा था ।  उस समय "बचाओ बचाओ" का चिल्लाहट सुनायी दिया ।  एक युवती नदी में डूब रही थी ।  गुरु तत्क्षण नदी में कूदकर तैरते हुए उस युवती के पास पहुंचे ।  उसे अपने हाथों में लिया और तैरकर वापस किनारा पहुंचे ।  युवती बेहोश थी तो उसे प्राथमिक उपचार दिए और उसके होश आने पर अपने राह निकल पड़े ।  शिष्य ये सब देखता रहा ।  उसके मन में कई प्रश्न उठे पर वह शांत रहा ।  कुछ दूर चलने के बाद उसने पूँछा ।  "आप तो जीवन भर ब्रह्मचारी रहे ।  तो उस युवती को आपने छुआ, छाती से लगाया, उसकी वक्षस्थल पर हाथ रखा ।  यहां तक की उसके अधर को चूमा भी ।  क्या यह आपके लिए सही वर्तन था ?"  "मैं तो केवल एक जीवन को नदी में डूबने से बचाया और उसके होश जगाने के लिए युक्त उपचार किये ।  पर मैं तो उसे वहीं छोड़ आया ।  क्या तुम उसे अब तक ढोये हुए हो ?"  उत्तर में प्रश्न किया गुरु ने ।  बाहरी दृश्य में गुरु कार्य में लगे हुए थे पर उनका मन उस कार्य से अलिप्त था ।  युवक तो बाहरी दृश्य में कुछ नहीं करता हुआ दिखा पर मनमें उसके उथल पुथल मची हुई थी ।

इस शब्दावली एक और दिशा से देखी और समझी जा सकती है ।  बाहरी नियंत्रण दो प्रकार के हो सकते हैं  ।  इन्द्रियों को किसी कार्य से रोकना और इन्द्रियों को किसी कार्य करने पर (ज़बरदस्ती से ) लगाना ।  यह नियंत्रण यदि स्वयं स्वीकृत हो तो एक सीमा तक सिद्ध हो भी सकते हैं ।  परन्तु बाहर से स्थापित हो तो निश्चित ही ये नियंत्रण असफल होंगे ।  श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा घोषित आपातकाल और उक्त काल में प्रचलित तानाशाही (२५ जून १९७५ से २१ मार्च १९७७ तक ) और रशिया और पूर्व यूरोप के देशों में ६० वर्ष तक चला कम्यूनिसम प्रेरित तानाशाही इस सत्य के प्रखर उदाहरण हैं ।  प्रेस कुचला गया ।  भाषण सभाओं पर कड़क नियंत्रण थे ।  अकारण कैद किया जाना सामान्य था ।  काराग्रहों में हजारों बंद रहे ।  हजारों लापता भी हुए ।  विदेश यात्रा पर भी नियंत्रण थे ।  सभी विपक्षी नेता काराग्रहों में बंद थे बिना किसी कानूनी गतिविधि के ।  ऐसी स्थिति में राजनैतिक कार्यवाही तो मानो एक नाटक ही था ।  न्यायालय भी नियंत्रित थे ।  सभी दिशाओं से नियंत्रण ।  परन्तु सभी नियंत्रण बाहरी एवं दृश्य स्तर पर ।  मन पर तो इन नियंत्रणों का कोई प्रभाव नहीं ।  मन इन नियंत्रणों से झुकाया नहीं जा सका ।  वह तो स्वातंत्र्य का पिपासु था ।  मन अपने एक अलग स्तर पर कार्यरत रहा और अंत में बहु शक्तिशाली दिखने वाला इस तानाशाही राज को उखाड़ फेंक दिया ।

इस लिए कहते हैं  "मन मत हारना" ।  बाहर से सहायता के सभी उपकरण और माध्यम बंद ही क्यों न हो जाये, मन अकेला ही, युक्त गुणों से सज्जित मन, युक्त संस्कारों से पोषित मन अकेला ही असंभव प्रतीत होने वाले को सम्भव बना देगा ।

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