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गीता की कुछ शब्दावली - १६

गीता की कुछ शब्दावली - १६

परस्परं भावयन्तः ... (अध्याय ३ - श्लोक ११)
பரஸ்பரம் பாவயந்தஹ ... (அத்யாயம் 3 - ஸ்லோகம் 11)
Parasparam Bhaavayantaha ... (Chapter 3 - Shlokam 11)

अर्थ :  परस्पर स्नेह प्रेम, परस्पर सहकार, परस्पर उन्नति के प्रयत्न,...

मैं सब् से पहले दक्षिण आफ्रिका की श्रीमति सरीषा रमेशलाल् कोमल को धन्यवाद देना चाहता हूं  जिन्हों ने FaceBook पर एक वीडियो शेर करके मुझे गीता की इस शब्दावली का स्मरण दिलाया |  उक्त वीडियो मे अमेरिका स्थित बर्कली विश्व विद्यालय के दीक्षान्त समारोह मे प्रथम अङ्क पाकर स्वर्ण पदक विजेत्री कुमारी राधिका कण्णन का अर्थपूर्ण और गीता की इस सुन्दर शब्दावली की भावना को प्रकट करने वाला भाषण है | उक्त वीडियो का लिङ्क यह है | ((https://www.facebook.com/UCBerkeley/videos/10153311993674661/).  यह शब्दावली मेरे ध्यान से हत गयी और मैं अगली शब्दावली के ओर चला गया |  मेरे ध्यान मे इस अति सुन्दर शब्दावली को लाने के लिये (या उस का निमित्त बनने के लिये) मैं श्रीमति सरीषा रमेश्लाल कोमल एवम् कुमारी राधिका कण्णन को हार्दिक धन्यवाद |

परस्पर यही प्रमुख शब्द है यहां |  परस्पर स्नेह, परस्पर प्रेम, परस्पर सहकार, परस्पर सहायता, परस्पर उन्नति के प्रयत्न, ... प्रकृती का यह आधार तत्त्व है |  प्रकृती मे सभी पर हित मे, परस्पर हित मे कार्यरत है | हम सभी परस्पर एक दूसरे से बन्धे हुए हैं |

घोसला बनाने के लिये, उसमे रहकर अपना वंश वृद्धी कर हर्शोल्लास के साथ जीने के लिये पक्षियों को आश्रय देता है वृक्ष |  (एक वृक्ष कितने हजार पक्षियों का आश्रय बन सकता है यह देखने के लिए आप अवश्य तमिल नाडु के तिरुप्पूर स्थित विवेकानन्द विद्यालय मे उषःकाल या संध्या काल मे आयिये |)  पक्षियां उस वृक्ष के फल खाकर बीजों को सब् ओर छोड जाती हैं तो वृक्ष भी सदा जीता है और पर्यावरण का पोषण होता है |  भारत मे नीम, अश्वत्थ और वटवृक्ष बहुत अधिक संख्या मे हैं |  ये मनुष्य हस्ते लगाये नहीं गये |  पक्षियां ही इस विषय मे सत्कार युक्त हैं |

भूमि वृक्ष को धरती है |  वृक्ष के लिये आवश्यक पौष्टिक धातु प्रदान करती है |  वृक्ष अपने जडों द्वारा मिट्टी बहा जाने से रोकता है |  अपने पत्तियों को गिराकर भूमी को उसके सत्त्व लौटाता है |  बादलों को आकर्षित कर वर्षा का कारण बनता है और भूमि को पुनर्जीवित करता है |  वृक्ष लता के लिये सहारा है |

भूमी मे दिनभर ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर दौढने वाला केंचुआ मिट्टी मे हजारों लाखों द्वार बनाकर आक्सिजन स्तर को बढाने मे सहायक बनता है |  पुष्पों से अपने लिये मधु प्राप्त करने वाली मधुमक्खी सेचन और पौधे की वंशवृद्धी के लिये भी कारण बन जाता है |  अदृश्य बन्धन से सारे ग्रह एक दूसरे से परस्पर बन्धे हुए हैं |  अनादि काल से रहते आये इस बन्धन का मनुष्य ने खोज लगाया और 'ग्रत्वाकर्षण' इस नाम से उसका नामकरण भी कर दिया |

वृक्ष सुखदायक अपनी छाया या रुचिकर अपने फल का उपभोग करते हुए हमने देखा है ?  मेघ ने अमृत जैसे नीर को अपने लिये रख लिया ऐसा हमने कभी सुना है ?  सुन्दर अपने पन्खों को बिखराकर नाचणे वाला मोर क्या कभी उस सौन्दर्य का 'selfie' खींचकर पुनः पुनः उसे देखकर मोहित होता है ?  क्या कोयल 'स्वप्रशंसा' मे कू कू स्वर लगाती है ?  सभी जनों द्वारा प्रशंसित अपने सौन्दर्य को क्या चन्द्रमा कभी ऐना या सागर जल मे झंककर देख हर्षित होती है ?  सूर्य हमारे लिये प्रकाशित है |  नदियां हमारे लिये सतत बह रही हैं |  वायु का वहन हमारे लिये है |  वृक्ष और पौधे पुष्पित और फलित होते हैं हमारे लिये |  (हमारे लिये याने पृथिवी के सभी जीव जन्तुओं के लिये |  केवल मनुष्य के लिये, उसमे भी केवल धनी, शिक्षित या अधिकारी मनुष्य के लिये नहीं |)  प्रकृती के हरेक कार्य के पीछे परहित है |  किन्तु इन कार्य के साथ कोई चिन्तन जुडा हुआ नहीं |  सात्विक अहङ्कार नहीं है |  स्व-गर्व या मद नहीं है |  'मैं इस प्रकार का परहित के लिये कारणकर्ता हूं' ऐसा सूक्ष्म विचार भी नहीं |  सभी अन्यों के पालन मे, पोषण मे, अन्यों की उन्नति मे, अन्यों के आनन्द के लिये कार्यरत रहें बस इसीलिये बनाये गये हैं |  यह सत्य है |

हम मनुष्य भी तो प्रकृती के ही अङ्ग हैं |  परन्तु एक अन्तर है |  मनुष्य को सुझाना पडता है |  मनुष्य को प्रशिक्षण की आवश्यकता है |  अन्यों के हित मे कर्म करना यह मनुष्य के लिये संस्कार और प्रेरणा से ही प्राप्त है |  अन्य जीवों के लिये यह जन्मजात स्वभाव है |  मनुष्य अपने सत्य स्वरूप की अनुभूति करने पर ही उसका यह स्वभाव प्रकट होता है |  एक प्रसंग, एक व्यक्ति, एक दृश्य, एक संवाद, क्षण भर के लिये गहरा चिन्तन आदि कुछ भी इस अनुभूति मे सहायक हो सकते हैं |

हम परस्पर एक दूसरे से, संपूर्ण अण्ड चराचर से बन्धे हुए हैं |  'मैं किसके भरोसे हूं ?';  'मुझे किसीकी जरूरत नहीं |;  'मैं अपने आप को देख लूंगा |'  'मुझे अकेले छोडो' जैसे शब्द खोखले हैं |  अज्ञान के शब्द स्वरूप हैं |  प्रकृती के सत्य स्वरूप को यदि जान लें तो ये शब्द अर्थहीन हैं |  अज्ञान वश एवम् अपने सत्य स्वरूप की अनुभूति ना होने के कारण ही स्वार्थ पोषित होता है |  हम तो पहले से ही परस्पर बन्धे हुए हैं |  'परस्परं भावयन्तः' ....  सत्य वचन |  सुन्दर वचन |

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