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गीता की कुछ शब्दावली - १७

गीता की कुछ शब्दावली - १७

यद्यदाचरति श्रेष्टः तत्तदेवेतरो जनः  ... (अध्याय ३ - श्लोक २१)
யத்யதாசரதி ஸ்ரேஷ்டஹ தத்ததேவேதரோ ஜனஹ  ... (அத்யாயம் 3 - ஸ்லோக 21)
Yadyadaacharathi Sreshtaha Tattad Eva Itaraha Janaha ... (Chapter 3 - Shlokam 21).

अर्थ :  श्रेष्ट जन जैसे वर्तन करते हैं, उतना ही अन्य जन अनुवर्तन करते हैं |

श्रेष्ट जनों का आचरण, श्रेष्ट जन जिस प्रकार के उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, श्रेष्ट जन जिस स्तर का आदर्श प्रस्थापित करते हैं .....  किसी भी समाज मे ये विषय महत्वपूर्ण हैं |  समाज तो बस पीछे चलता है |  समाज तो केवल अनुवर्तन करता है |  श्रेष्ट जनों द्वारा स्थापित आदर्श समाज के लिये आदर्श बन जाते हैं |  अनुकरणीय बन जाते हैं |

सहज ही हमारे मनस मे एक प्रश्न उठता है |  श्रेष्ट कौन है ?  श्रेष्ट, इस शब्द का कोई स्पष्ट विश्लेषण है नहीं |  श्रेय इस शब्द का अर्थ है - अच्छा, भला, सही, उद्धारक, आदि आदि |  जो कुछ मेरी उन्नति मे सहायक है वह मेरे लिये श्रेय है |  तो जिसका आचरण श्रेयस्कर हो, भला हो, सही हो, धर्म के पलडे मे सही बैठता हो, वह श्रेष्ट हुआ | शास्त्र के अनुसार वेद ही प्रमाण है |  परन्तु यदि वेद हमारे समझ के परे हो, तो श्रेष्ट जनों का आचरण ही प्रमाण होना चाहिये |

श्रेष्ट व्यक्ति को ढूण्ढना और अनुकरण करना, मनुष्य के लिये स्वाभाविक है |  बच्चा मा बाप का अनुकरण करता है |  उसके लिये पिता ही परम आदर्श होता है |  विद्यालय मे प्रवेश प्राप्त होने पर बच्चों के लिये शिक्षक आदर्श व्यक्ति और अनुकरणीय बन जाते हैं |  जैसे बच्चा आयु मे बढता है, क्रीडा जगत के यशस्वी साधक अथवा साहसी, पराक्रमी व्यक्ति उसके लिये आदर्श और प्रेरक बनते हैं |

श्रेष्ट कौन?  एक काल मे समाज के आंखों मे ब्राह्मण श्रेष्ट था |  शासक और साहसी क्षत्रिय श्रेष्ट माने गये |  साधू संत श्रेष्ट और प्रेरणा स्रोत माने गये |  स्वतन्त्र पूर्व काल मे राष्ट्रीय नेता श्रेष्ट माने गये |  स्वतन्त्रता के बाद फ़िल्म जगत के नट नर्तकियां इस स्थान के लिये योग्य बन गये हैं |  आकर्षण के केन्द्र बन गये हैं |  हम मे से अधिकांश जन इसी अति क्षुद्र मनोवस्था मे संपूर्ण जीवन खो देते हैं |  कुछ ही ऐसे हैं जिनमे अपने आप को और अपने जीवन को समझने की तृष्णा उत्पन्न होती है और सही प्रेरक को ढूण्ढते हैं |

मनुष्य के लिये अन्य किसी की ओर देखने की आवश्यकता क्यों है ?  हम अपने आप को अपरिपूर्ण पाते हैं जो हमारे लिये अनिष्ट है |  पूर्णत्व प्राप्त करने की इच्छा मनुष्य की एक सहज प्रवृत्ति है |  मनुष्य अपने आपको अज्ञानी या अपरिपूर्ण ज्ञान से युक्त अनुभव करता है |  यह भी उसके लिये अनिष्ट है |  अतः ज्ञान प्राप्ती की इच्छा भी उसके लिये सहज प्रवृत्ति है |  यह इच्छा सभी मे प्रकट ही होगी यह अवश्यक नहीं |  अधिकतर जनों मे यह इच्छा सुप्त ही रहती है |  सुप्त हो या प्रकट, यह इच्छा तो रहती है सब मे |  यही इच्छा उसे अन्यों की ओर देखने, उन्हें परखने एवम् अनुकरणीय आदर्श को चुनने प्रयुक्त करती है |  वह जिसे पूर्णता-युक्त समझता है, वह जिसे ज्ञान-युक्त समझता है, वही उसके लिये आदर्श एवम् अनुकरणीय व्यक्ति है |  अतः आदर्श व्यक्तियों की कोई संख्यात्मक सीमा नहीं |  असंख्य व्यक्ति आदर्श बन सकते हैं |  हम मे से प्रत्येक व्यक्ति कहीं न कहीं किसी न किसी के लिये प्रेरक आदर्श बन सकते हैं |

अध्यात्म की दृष्टी मे यह विषय ऐसा समझा जा सकता है |  परमात्मा सत्-चित-आनन्द है |  वह परिपूर्ण है |  वह सत् है |  केवल वही सत् है याने केवल उसीका अस्तित्व, सर्वथा एवम् सर्वत्र अस्तित्व, है |  वह ज्ञान स्वरूप है |  वह सर्वज्ञ है |  वह आनन्द स्वरूप है, परिपूर्ण एवम् असीम आनन्द स्वरूप |  हम सब मे स्थित आत्मा उसी परमात्मा का, उसी परिपूर्ण का, ज्ञान-मय उसीका एक अंश मात्र है |  और उसके साथ एक हो जाने की इच्छा आत्मा की स्वाभाविक् प्रवृत्ति है |  किसी आदर्श व्यक्ति को चुनकर उसका अनुकरण करने के उसके प्रयत्न के हेतु आत्मा की यही सूक्ष्म इच्छा है |  मेरे प्रयत्न अन्यों के लिये दिशा भ्रष्ट दिखा सकते हैं |  मैं ने जिसे अपना आदर्श माना है, वह अन्यों के लिये क्षुद्र प्रतीत हो सकता हैं |  परन्तु मेरे दृष्टी मे पूर्णत्व की प्राप्ति ही मेरा माना गया आदर्श का हेतु है |  मेरा अपना उद्धार ही हेतु है |  मेरी ज्ञान-तृष्णा की तृप्ती ही हेतु है |  मेरी दृष्टी जैसे जैसे स्पष्ट होती जाये {लक्ष्य की स्पष्टता}, मुझमे जैसे जैसे परिपक्वता बढती जाये {अपने अनुभवों से सीखने की पक्क्वता} वैसे वैसे मेरे प्रयत्न सही दिशा मे परिवर्तित होते जायेंगे |  वैसे वैसे मेरा आदर्श क्षुद्र से महत बनता जायेगा |  यह अन्यों के लिये चिन्ता का विषय नहीं |

अतः हम कोई न कोई व्यक्ति द्वारा आदर्श के रूप मे देखे जा रहे हैं |  मार्ग-दर्शन की खोज मे मग्न कोई व्यक्ति द्वारा परखे जा रहे हैं |  किसी न किसी व्यक्ति के लिये प्रेरक बने हुए हैं और उसके द्वारा अनुकरण किये जा रहे हैं |  और यहीं हमारा आचरण, प्रकट या सूक्ष्म, का महत्व है |  इसी कारण हमारे चिन्तन, शब्द एवम् कर्म महत्वपूर्ण बनते हैं |

अन्त मे सावधानी का एक वचन |  हमारा वर्तन अच्छा हो, हमारा आचरण श्रेष्टतम बने, इसलिये नहीं की कोई हमें देख-परख रहा है |  क्या कोई देख न रहा हो तो हम मनमानी कर सकते ?  यह तो हमारा स्वभाव बन जाना चाहिये |  मेरा वर्तन तो मेरा अपना पहचान है |  मेरा आचरण तो मेरी मुद्रा है |  मेरा पहचान किसी और के देखने, परखने, सहमत होने या प्रशंसा करने पर निर्भर हो नहीं सकता |  मेरा वर्तन अन्य किसी को प्रेरित करने, राह दिखाने या अनुकरण करवाने के लिये मात्र नहीं हो सकता |  मेरे शब्द, मेरे कर्म तो - "मैं" - का, मेरे निजी स्वरूप का रूपान्तरण हैं |  मैं जन समुदाय मे रहूं या एकान्त मे, मैं अन्धेरे मे रहूं या 'Watch-Cameraa' के क्षेत्र मे रहूं, मैं जन संपर्क प्रधान जीवन जियूं या घर के चार दीवार् के भीतर इन सब बातों का कोई महत्व नहीं |

ये सब बातें कहने और पढने के पश्चात एक कडवा सत्य का हमें रहे स्मरण |  "तुम्हे संसार का सर्वश्रेष्ट आदर्श पुरुष प्राप्त हुआ रहा तो भी, सर्वोत्तम व्यक्ति गुरु के रूप मे तुम्हें प्राप्त हुआ तो भी, तुम्हारी उन्नती, तुम्हारा उद्धार केवल और केवल मात्र तुम्हारा अपना अथक प्रयत्न, सातत्य पूर्ण चेष्टा पर ही निर्भर है |  छलाङ्ग तो तुम्हें मारना है |  तैरना तो तुम्हें ही है |  अपना स्व-मार्ग तो तुम्हें ही चुनना है |  अन्यों का योगदान, वे कितने ही उन्नत और श्रेष्ट क्यों न हो, अत्यल्प है |"

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