ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - १८
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन .... (अध्याय ३ - श्लोक २२)
ந மே பார்தாஸ்தி த்ரிஷு லோகேஷு கிஞ்சன .... (அத்யாயம் 3 - ஸ்லோகம் 22)
Na Me Paarthaasti Kartvyam Trishu Lokeshu Kinchana .... (Chapter 3 - Shloka 22)
अर्थ : तीनों लोकों मे मेरे लिये कोई कर्तव्य है नहीं ..... परन्तु....
हम धन की प्राप्ति हेतु कार्य करते हैं | यश और कीर्ति की लालसा मे कार्य - मग्न होते हैं | अनुकूल फल प्राप्त हो जाये इस लक्ष्य से कार्यों को अपने हाथ लेते हैं | 'मेरा है' यह भावना जिस व्यक्ति या संस्था या स्थान के लिये हो, उस के लिये कार्य करने मे हिचकिचाते नहीं | "यह मेरा कर्तव्य है" ऐसा जिस कार्य के विषय मे हमें लगता हो, उस कार्य मे डूब जाते हैं | परन्तु, इस शब्दावली मे श्री कृष्ण एक विशेष प्रकार के कार्य के बारे मे बोल रहे हैं | कार्य तो करें परन्तु कोई कर्तव्य ना हो ; कार्य करें, वह कार्य करने की अपेक्षा हम से कोई ना करें तो भी ; कार्यों को अपने हाथ लें, कोई हेतु ना हो तो भी, कुछ प्राप्त करने की आवश्यकता या लालसा ना हो तो भी | श्री कृष्ण का यही कहना है | "मुझे कोई कर्तव्य नहीं ; मैं कार्य करूं ऐसी किसी की अपेक्षा नहीं ; मेरे वश है नहीं और मुझे प्राप्त करना ही है ऐसी कोई वस्तु नहीं | किन्तु मैं अविरत कार्य मे लगा हूं" ऐसा कह रहें हैं श्री कृष्ण | हम साधारण मानवों के लिये क्या यह संभव है?
हमारे बीच अच्छी नौकरी से विराम पाकर, पेन्शन के रूप मे पर्याप्त राशी प्राप्त करने वाले कई वृद्ध जन श्री कृष्ण द्वारा उल्लिखित इसी अवस्था मे हैं | बच्चे शिक्षण समाप्त कर अपनी अपनी नौकरी मे लग जाने से, विवाह संपन्न होकर अपने अपने जीवन मे सुखरूप बस जाने से इनके लिये कोई कर्तव्य रहा नहीं | प्राप्तव्यं ऐसा कुछ नहीं, कर्तव्यं ऐसा भी कुछ नहीं हैं | क्या हम अपने परिवार मे या अपने परिसर मे, अपने चारों ओर बसा हुआ मनुष्य समुदाय मे या मनुष्यों के बीच कार्य करने की इच्छा ना हो तो हमें पोषित पालित करने वाला निसर्ग मे कोई न कोई कार्य ले सकते हैं ?
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