ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - १९
अहङ्कार विमूढात्मा कर्ताहं इति मन्यते .... (अध्याय ३ - श्लोक २७)
அஹங்கார விமூடாத்மா கர்தாஹம் இதி மன்யதே ... (அத்யாயம் 3 - ஸ்லோகம் 27)
Ahankaara Vimoodhaatmaa Kartaaham Iti Manyate ... (Chapter 3 - Shloka 27)
अर्थ : अहङ्कार युक्त मूढ समझता है की 'मैं ही कर्ता हूं |'
मैं अपने बीते जीवन को जब् देखता हूं तो मुझे यही लगता है की 'सब् कुछ हुआ है, बस' | परिस्थितियां उत्पन्न हुई | तदनुरूप व्यक्ति आये और कार्य घटते गये | मैं तो बस काल के तरङ्गों मे बहता गया | और यह श्रद्धा की "मैं कर्ता नहीं" गहरी और स्थिर होती गयी | 'हाथ दोनों ऊपर उठाकर अपने आप को तरङ्गों के हावाले कर देना हमारे लिये एकमेव पर्याय है |
अपने विचार और अपने कर्म कई अन्य विषयों द्वार प्रभावित हैं | ये प्रकृती के कार्य हैं | तीन गुणों द्वारा संचालित हैं | अपना अन्तःकरण या अपनी भावना या अपना स्वभाव सत्त्व रजस और तमस इन तीन गुणों से निर्मित हैं और गत जन्मों के कई अनुभवों के फल स्वरूप है | व्यक्ति तो वैसे ही चिन्तन करेगा जैसे वह करता आया है | वैसे ही कर्म करेगा जैसे वह करता आया है |
इस प्राकृतिक सत्य के विरोध हामारा संघर्ष या इस सत्य से असहमति हमारे भीतर उठे राग या इच्छाओं के कारण ही है | कर्म दो प्रकार हैं | इच्छा द्वारा प्रेरित कर्म और स्वभाव द्वारा प्रेरित कर्म | इच्छा-प्रेरित कर्म हम मे इस विचार को दृढ बनते हैं की 'मैं ही कर्ता हूं' | अनुकूल फल या इच्छित फल की प्राप्ति इस विचार को और सुदृढ बना देते हैं | प्रतिकूल फल या इच्छा के विपरीत फल इस विचार के आधार को हिला देते हैं |
गलत कर्म? क्या वे भी प्रकृती या गुणों द्वारा ही घटते हैं ? हां | निश्चित | वे भी गुणों के द्वारा प्रकृती मे होने वाले कर्म हैं | तो क्या हम गलत कर्म कर अपने आप को उसके दायित्व से छुडा ले सकते हैं, यह कहकर की 'मैं नहीं गुण ही इस कर्म के कर्ता हैं ? सावधान | प्रत्येक कर्म अपना कर्म फल को साथ लाता है | यदि इस विचार पर हमारी निष्ठा सही है, तो फल से अलिप्त रहना ही हमारे लिये सरल पर्याय है | {Again, यह भी हमारे स्वभाव पर निर्भर है |} अनुकूल फल प्राप्ति पर उछलना या प्रतिकूल फल प्राप्ति पर दुःखित होना, इस निष्ठा का अभाव ही दर्शाते हैं |
यह लेख लिखा जाना और ऐसे ही अन्य कई अनुभव मेरी इस श्रद्धा को दिन प्रति दिन दृढ बनाये हैं | गत एक मास मे मैं कई बार इस शब्दावली पर लिखने बैठा, कंप्यूटर खोलकर, blogspot' का श्वेत पर्दा को देखते हुए बैठा रहा, परन्तु लेख जन्मा नहीं | आज दूसरे ही किसी कार्य मे मग्न था, पर 'blogspot' खिडकी के ओर खींचा गया, और बस यह लेख समाप्त भी हो गया |
यह स्वयम् की श्रद्धा का विषय है | बौद्धिक चर्चा का नहीं | वाद विवाद से इस तथ्य को समझाया नहीं जा सकता है |
प्रारम्भ मे ही मैं एक विषय स्पष्ट कह देता हूं | यह लेख अपने आप के लिये, अपने आपके अनुभवों के आधार पर, अपनी श्रद्धा की प्रस्तुति के रूप मे लिखा जा रहा है | जिसे लगता हो की 'मैं स्वयम् ही कर्ता हूं', जिसे लगता हो की 'मेरा जीवन मेरे ही हाथ मे' वह अपने उस विचार पर स्थिर रहें | यह लेख उसके गले नहीं उतरेगा |
मैं अपने बीते जीवन को जब् देखता हूं तो मुझे यही लगता है की 'सब् कुछ हुआ है, बस' | परिस्थितियां उत्पन्न हुई | तदनुरूप व्यक्ति आये और कार्य घटते गये | मैं तो बस काल के तरङ्गों मे बहता गया | और यह श्रद्धा की "मैं कर्ता नहीं" गहरी और स्थिर होती गयी | 'हाथ दोनों ऊपर उठाकर अपने आप को तरङ्गों के हावाले कर देना हमारे लिये एकमेव पर्याय है |
अपने विचार और अपने कर्म कई अन्य विषयों द्वार प्रभावित हैं | ये प्रकृती के कार्य हैं | तीन गुणों द्वारा संचालित हैं | अपना अन्तःकरण या अपनी भावना या अपना स्वभाव सत्त्व रजस और तमस इन तीन गुणों से निर्मित हैं और गत जन्मों के कई अनुभवों के फल स्वरूप है | व्यक्ति तो वैसे ही चिन्तन करेगा जैसे वह करता आया है | वैसे ही कर्म करेगा जैसे वह करता आया है |
इस प्राकृतिक सत्य के विरोध हामारा संघर्ष या इस सत्य से असहमति हमारे भीतर उठे राग या इच्छाओं के कारण ही है | कर्म दो प्रकार हैं | इच्छा द्वारा प्रेरित कर्म और स्वभाव द्वारा प्रेरित कर्म | इच्छा-प्रेरित कर्म हम मे इस विचार को दृढ बनते हैं की 'मैं ही कर्ता हूं' | अनुकूल फल या इच्छित फल की प्राप्ति इस विचार को और सुदृढ बना देते हैं | प्रतिकूल फल या इच्छा के विपरीत फल इस विचार के आधार को हिला देते हैं |
गलत कर्म? क्या वे भी प्रकृती या गुणों द्वारा ही घटते हैं ? हां | निश्चित | वे भी गुणों के द्वारा प्रकृती मे होने वाले कर्म हैं | तो क्या हम गलत कर्म कर अपने आप को उसके दायित्व से छुडा ले सकते हैं, यह कहकर की 'मैं नहीं गुण ही इस कर्म के कर्ता हैं ? सावधान | प्रत्येक कर्म अपना कर्म फल को साथ लाता है | यदि इस विचार पर हमारी निष्ठा सही है, तो फल से अलिप्त रहना ही हमारे लिये सरल पर्याय है | {Again, यह भी हमारे स्वभाव पर निर्भर है |} अनुकूल फल प्राप्ति पर उछलना या प्रतिकूल फल प्राप्ति पर दुःखित होना, इस निष्ठा का अभाव ही दर्शाते हैं |
यह लेख लिखा जाना और ऐसे ही अन्य कई अनुभव मेरी इस श्रद्धा को दिन प्रति दिन दृढ बनाये हैं | गत एक मास मे मैं कई बार इस शब्दावली पर लिखने बैठा, कंप्यूटर खोलकर, blogspot' का श्वेत पर्दा को देखते हुए बैठा रहा, परन्तु लेख जन्मा नहीं | आज दूसरे ही किसी कार्य मे मग्न था, पर 'blogspot' खिडकी के ओर खींचा गया, और बस यह लेख समाप्त भी हो गया |
यह स्वयम् की श्रद्धा का विषय है | बौद्धिक चर्चा का नहीं | वाद विवाद से इस तथ्य को समझाया नहीं जा सकता है |
श्रद्धावान्लान्लभते ज्ञानं....!
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