ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - २५
तस्माद् त्वम् इन्द्रियाण्यादौ नियम्य ... (अध्याय ३ - श्लोक ४१).
தஸ்மாத் த்வம் இந்ரியாண்யாதௌ நியம்ய.... (அத்யாயம் 3 - ஶ்லோகம் 41).
Tasmaat Tvam Indriyaanyaadau Niyamya .... (Chapter 3 - Shloka 41).
अर्थ : अतः सर्व प्रथम इन्द्रियों को नियमित करो |
जैसे हम जानते हैं , इन्द्रियां दस हैं पांच ज्ञानेन्द्रिय और पांच कर्मेन्द्रिय | पांच ज्ञानेन्द्रिय सुख - भोग के भी इन्द्रिय हैं | इन्हीं पांच इन्द्रियों के द्वारा मनस हर्षित होता है , सुखी होता है | इन्हीं इन्द्रिया मनस को दुःखी भी करते हैं | इन इन्द्रियों द्वारा प्राप्त अनुभव के आधार पर मनस अपनी इष्ट - अनिष्ट इच्छा - अनिच्छा एवं राग - द्वेष की सूचियां बनाता है | और उनकी प्राप्ती पर सुखी या दुःखी होता है |
श्री कृष्ण कहते हैं - समत्वं योग उच्यते | समत्व ही योग है | उपरोक्त अनुभवों की प्राप्ती पर संतुलन न खोने वाला मनस ही योग प्राप्ती के लिये पात्र है |
इन्द्रियां अपने काम कैसी करती हैं ? इन्द्रियां अपने शरीर के ऐसे द्वार् हैं जो केवल एक दिशा मे, बाहर की ओर याने इस संसार की ओर खुलती हैं | संसार मे भरे पडे विषयों से संग करते हैं और विषय - संग के उन अनुभवों को भीतर भेजते हैं | बाहर की ओर खुलकर संसार के विषयों से संसर्ग - इस कार्य मे रोक लगाना या विषय के संग संयोग के उन अनुभवों के समाचार भीतर भेजने के कार्य मे Censorship करना इन दोनों मे इन्द्रियां असमर्थ हैं | या तो इन्द्रियां अपनी क्षमता खोकर निर्जीव हो जायें या बलबद्ध इन द्वारों को बन्द किया जाये ऐसे दो ही मार्ग से इनके कार्य रुक सकते हैं | मनस का संतुलन बिगाडने मे तो इन्द्रियों का बडा योगदान है परन्तु संतुलन बनाये रखने मे इन्द्रियों का योगदान अत्यल्प है | इसी संदर्भ मे श्री कृष्ण के ये सुझाव है की इन्द्रियों को नियमित करो | नियमित करने का अर्थ Block करना या Censorship करना नहीं बल्कि Regulate करना है | इन्द्रियां अपनी मनमानी से संसार मे भटके नहीं | सुचारु रूप से वे संसार मे भेजे जाये | बुद्धि-पूर्वक विषय संयोग करें | नियमित करने का तात्पर्य यही है | जैसे आगे जाकर श्री कृष्ण स्वयम् कहते हैं की अभ्यास एवं वैराग्य से यह संभव है |
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