ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - २८
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ... (अध्याय ४ - श्लोक ५).
பஹூநி மே வ்யதீதாநி ஜன்மாநி தவ சார்ஜுன .. (அத்யாயம் 4 - ஶ்லோகம் 5).
Bahooni Me Vyateetaani Janmaani Tava Chaarjuna .. (Chapter 4 - Shloka 5).
अर्थ : मैंने कई जन्म बिताये हैं । तुम ने भी । मैं उन सभी जन्मों से अभिज्ञ हूं | परन्तु तुम अनभिज्ञ हो |
पुनर्जन्म के सम्बन्ध मे श्री कृष्ण का यह अद्भुत उद्घोष है | मनुष्य जीवन की ओर् देखने के दो प्रकार की दृष्टी हैं | प्रथम : यह एकमेव जीवन है | जन्म से प्रारम्भ होता है | मृत्यु पर समाप्त हो जाता है | (माता की कोख मे बिताये काल की गिनती कैसी हो??) इस दृष्टी मे सब कुछ रेषा जैसे, आदि और अन्त सहित रेषा, जैसे देखे जाते हैं | (Linear View). दूसरी दृष्टी चक्रीय है | सृष्टी मे सभी चक्रीय है | अनादि एवं अनन्त | हम जिन विभिन्न आदि और अन्त का अनुभव करते हैं वे सब तात्कालिक हैं | अविरत चलने वाला किसी विशाल चक्र के बिन्दु मात्र हैं |
हिन्दु के लिये सृष्टी मे सब कुछ चक्रीय है | पुनः आवर्तनीय हैं | आते हैं और जाते हैं | जो आया है वह जायेगा और जो गया है वह पुनः आयेगा | घटना - अपघटना आते हैं और जाते हैं | ऋतु और काल आते हैं | जाते हैं | सुख और दु:ख आते जाते हैं | रात्री और दिन आते जाते हैं | उसी प्रकार जीवन भी आते जाते हैं | जन्म यह जीवन का प्रारम्भ नहीं | मृत्यु अन्त भी नहीं | (वैसे हम किस क्षण को जन्म माने? माता की कोख से शिशु बाहर निकलता उस क्षण को? गर्भ मे शिशु का हृदय धडकना प्रारम्भ होता उस क्षण को? माता पिता के स्त्री कण एवम् पुरुष कण का मिलन होता है उस क्षण को ? या स्त्री पुरुष के मन मे शिशु प्राप्ती की कामना उत्पन्न होती है उस क्षण को?) इस संसार मे जीने के लिये ऊर्जा की आवश्यकता, बडी मात्रा मे ऊर्जा की आवश्यकता है | कार्य करने के लिये ऊर्जा, आवश्यक साधन जुटाने के लिये ऊर्जा, उन साधनों मे से अपने लिये आवश्यक तत्त्व ग्रहण के लिये ऊर्जा, अनावश्यक तत्त्वों का विसर्जन करने के लिये ऊर्जा, हृदय धडकने मे ऊर्जा, श्वास नि:श्वास के लिये ऊर्जा, स्नायू अपने कार्य करने ऊर्जा, अनुभवों की अनुभूति के लिये ऊर्जा, चिन्तन करने और निर्णय लेने मे भी ऊर्जा की आवश्यकता है | हिन्दु तत्व विचार मे यह ऊर्जा प्राण कहलाता है | अपने शरीर मे विभिन्न कार्यों मे पांच प्रकार की ऊर्जा (पञ्च-प्राण ) कार्यरत हैं | हम भोजन के पहले अन्न कणों को प्राणाय स्वाहा जैसे मन्त्रों से इन्हीं पञ्च - प्राणों के लिये आहुति देते हैं |
हम जानते हैं की शून्य से ऊर्जा की उत्पत्ति हो नहीं सकती | उसी प्रकार ऊर्जा शून्य मे विसर्जित होकर समाप्त हो नहीं जाती | ऊर्जा तो नित्य और निरन्तर रहती है | ऊर्जा का रूपान्तर हो सकता है , विसर्जन नहीं | ऊर्जा का स्रोत भी पूर्ण ही हो सकता है | गीता इस संदर्भ मे समुद्र की उपमा देते हुए कहती है की "जैसे कई नदियां समुद्र मे आ मिलने पर भी समुद्र अचल रहता है, जैसे समुद्र से जल का वाफ़ या मेघ मे रूपान्तर होने पर भी समुद्र सुख नहीं जाता वैसे ही परमात्मा पूर्ण है | पूरी सृष्टी उसी से सृजित है और उसी मे विलीन होती है | परन्तु वह अचल है | नित्य पूर्ण है |" (अध्याय 2 - श्लोक 70)
संसार मे कुछ बच्चे अङ्ग हीन या रोग युक्त जनमते हैं | इस होनी को 'कारण और फलस्वरूप कार्य' इस तत्त्व से समझा नहीं जा सकता | "माता - पिता के शरीर से उन बच्चों को यह प्राप्त है " इस वाद से इसे जड तत्त्व प्रक्रिया कहने का प्रयास करते हैं कुछ जन | उनकी कथनी अंश मे सत्य भी हो सकती है | परन्तु ऐसे बच्चे भी हैं जो विचित्र अङ्ग हीनता और कठोर रोग लेकर संसार मे आते हैं जिनका उनके माता-पिता से लव लेश भी सम्बन्ध नहीं | विज्ञान और वैज्ञानिक इसे समझाने मे असमर्थ हैं | पुनर्जन्म सिद्धान्त के अलावा अन्य किसी विचार से यह समझा नहीं जा सकता |
मेरे विद्यालयीन पर्व मे नागपूर मे एक विचित्र घटना घटी | उत्तर नागपूर की एक झोपड पट्टी मे एक अशिक्षित महिला जिसने कभी विदर्भ की भी सीमा पार किया नहीं ऐसी एक नव विवाहित महिला , घर मे चल रहे किसी पूजा के समय परवश अवस्था को प्राप्त हुई और बङ्गाली भाषा बोलने लगी | पक्ष मे एक बार (15 दिनों मे एक बार) वह महिला इस अवस्था से गुजरती थी | उसने जिस ग्रामीण वातावरण का वर्णन किया वैसा नागपूर या विदर्भ मे कहीं न था | इस घटना के पीछे छिपे मर्म को जानने परिवार के कुछ सज्जन बङ्गाल भी गये | परन्तु धन के अभाव मे उनका वह प्रयत्न थम गया |
पुनर्जन्म के सम्बन्ध मे श्री कृष्ण का यह अद्भुत उद्घोष है | मनुष्य जीवन की ओर् देखने के दो प्रकार की दृष्टी हैं | प्रथम : यह एकमेव जीवन है | जन्म से प्रारम्भ होता है | मृत्यु पर समाप्त हो जाता है | (माता की कोख मे बिताये काल की गिनती कैसी हो??) इस दृष्टी मे सब कुछ रेषा जैसे, आदि और अन्त सहित रेषा, जैसे देखे जाते हैं | (Linear View). दूसरी दृष्टी चक्रीय है | सृष्टी मे सभी चक्रीय है | अनादि एवं अनन्त | हम जिन विभिन्न आदि और अन्त का अनुभव करते हैं वे सब तात्कालिक हैं | अविरत चलने वाला किसी विशाल चक्र के बिन्दु मात्र हैं |
हिन्दु के लिये सृष्टी मे सब कुछ चक्रीय है | पुनः आवर्तनीय हैं | आते हैं और जाते हैं | जो आया है वह जायेगा और जो गया है वह पुनः आयेगा | घटना - अपघटना आते हैं और जाते हैं | ऋतु और काल आते हैं | जाते हैं | सुख और दु:ख आते जाते हैं | रात्री और दिन आते जाते हैं | उसी प्रकार जीवन भी आते जाते हैं | जन्म यह जीवन का प्रारम्भ नहीं | मृत्यु अन्त भी नहीं | (वैसे हम किस क्षण को जन्म माने? माता की कोख से शिशु बाहर निकलता उस क्षण को? गर्भ मे शिशु का हृदय धडकना प्रारम्भ होता उस क्षण को? माता पिता के स्त्री कण एवम् पुरुष कण का मिलन होता है उस क्षण को ? या स्त्री पुरुष के मन मे शिशु प्राप्ती की कामना उत्पन्न होती है उस क्षण को?) इस संसार मे जीने के लिये ऊर्जा की आवश्यकता, बडी मात्रा मे ऊर्जा की आवश्यकता है | कार्य करने के लिये ऊर्जा, आवश्यक साधन जुटाने के लिये ऊर्जा, उन साधनों मे से अपने लिये आवश्यक तत्त्व ग्रहण के लिये ऊर्जा, अनावश्यक तत्त्वों का विसर्जन करने के लिये ऊर्जा, हृदय धडकने मे ऊर्जा, श्वास नि:श्वास के लिये ऊर्जा, स्नायू अपने कार्य करने ऊर्जा, अनुभवों की अनुभूति के लिये ऊर्जा, चिन्तन करने और निर्णय लेने मे भी ऊर्जा की आवश्यकता है | हिन्दु तत्व विचार मे यह ऊर्जा प्राण कहलाता है | अपने शरीर मे विभिन्न कार्यों मे पांच प्रकार की ऊर्जा (पञ्च-प्राण ) कार्यरत हैं | हम भोजन के पहले अन्न कणों को प्राणाय स्वाहा जैसे मन्त्रों से इन्हीं पञ्च - प्राणों के लिये आहुति देते हैं |
हम जानते हैं की शून्य से ऊर्जा की उत्पत्ति हो नहीं सकती | उसी प्रकार ऊर्जा शून्य मे विसर्जित होकर समाप्त हो नहीं जाती | ऊर्जा तो नित्य और निरन्तर रहती है | ऊर्जा का रूपान्तर हो सकता है , विसर्जन नहीं | ऊर्जा का स्रोत भी पूर्ण ही हो सकता है | गीता इस संदर्भ मे समुद्र की उपमा देते हुए कहती है की "जैसे कई नदियां समुद्र मे आ मिलने पर भी समुद्र अचल रहता है, जैसे समुद्र से जल का वाफ़ या मेघ मे रूपान्तर होने पर भी समुद्र सुख नहीं जाता वैसे ही परमात्मा पूर्ण है | पूरी सृष्टी उसी से सृजित है और उसी मे विलीन होती है | परन्तु वह अचल है | नित्य पूर्ण है |" (अध्याय 2 - श्लोक 70)
संसार मे कुछ बच्चे अङ्ग हीन या रोग युक्त जनमते हैं | इस होनी को 'कारण और फलस्वरूप कार्य' इस तत्त्व से समझा नहीं जा सकता | "माता - पिता के शरीर से उन बच्चों को यह प्राप्त है " इस वाद से इसे जड तत्त्व प्रक्रिया कहने का प्रयास करते हैं कुछ जन | उनकी कथनी अंश मे सत्य भी हो सकती है | परन्तु ऐसे बच्चे भी हैं जो विचित्र अङ्ग हीनता और कठोर रोग लेकर संसार मे आते हैं जिनका उनके माता-पिता से लव लेश भी सम्बन्ध नहीं | विज्ञान और वैज्ञानिक इसे समझाने मे असमर्थ हैं | पुनर्जन्म सिद्धान्त के अलावा अन्य किसी विचार से यह समझा नहीं जा सकता |
मेरे विद्यालयीन पर्व मे नागपूर मे एक विचित्र घटना घटी | उत्तर नागपूर की एक झोपड पट्टी मे एक अशिक्षित महिला जिसने कभी विदर्भ की भी सीमा पार किया नहीं ऐसी एक नव विवाहित महिला , घर मे चल रहे किसी पूजा के समय परवश अवस्था को प्राप्त हुई और बङ्गाली भाषा बोलने लगी | पक्ष मे एक बार (15 दिनों मे एक बार) वह महिला इस अवस्था से गुजरती थी | उसने जिस ग्रामीण वातावरण का वर्णन किया वैसा नागपूर या विदर्भ मे कहीं न था | इस घटना के पीछे छिपे मर्म को जानने परिवार के कुछ सज्जन बङ्गाल भी गये | परन्तु धन के अभाव मे उनका वह प्रयत्न थम गया |
श्री रवि किरण दक्षिणी शैली के सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ और गोट्टु वाद्य (सरोद जैसा वाद्य) वादक हैं | श्री वरुण अमेरिका के निवासी है और प्रति वर्ष चेन्नै के संगीत महोत्सव मे भाग लेने आता हैं | उभरता हुआ युवा संगीतज्ञ है | (श्री वरुण मेरा ममेरा भाई श्री शेखर गणेशन का सुपुत्र है - https://www.facebook.com/sekar.ganesan.60?ref=br_rs) ये दोनों मे एक साम्य है | दोनों ने तीन वर्ष के अल्प आयु मे अपने संगीत ज्ञान का प्रदर्शन किया | मञ्च पर तीन वर्ष का शिशु और चुने हुए कुछ प्रसिद्ध संगीत कलाकार थे श्रोतागण | श्रोतृ गण से एक एक कलाकार एक एक राग की प्रस्तुती करता और मञ्च पर बैठा शिशु उस राग को पहचानता | रागों को ये शिशु कुछ ही क्षणों मे पहचानते और उक्त राग का नाम लेते | इनका तो औपचारिक संगीत शिक्षण भी अब प्रारम्भ नहीं हुआ था | इन शिशुओं की यह चमत्कारी क्षमता पुनर्जन्म के आधार पर मात्र समझी जा सकती है | अपने पूर्व जन्मों से इन्होंने संगीत के इस ज्ञान को |लाया है इस मे कोई संदेह नहीं |
श्री श्रीधर भास्कर वर्णेकर् ने अपने आयु सत्तर मे संगीत प्रशिक्षण प्रारम्भ किया | "सम्भावित मृत्यु के कारण आपका संगीत अभ्यास थम गया तो?" ऐसा पूछा जाने पर वे कहते थे की "अपना अगला जन्म मे उसे आगे बढाऊंगा |" इस प्रकार पुनर्जन्म पर श्रद्धा जीवन मे महत्वपूर्ण उत्साहवर्धक है |
मनुष्य की दृष्टी सीमित है | इन्द्रियों द्वारा अनुभव करने व समझने की उसकी क्षमता भी सीमित है | इसलिये वह मृत्यु को ना समझ पा रहा है | ना ही मृत्यु को वह स्वीकार कर पा रहा है | प्रियजन की मृत्यु उसे उलझन मे, भ्रम मे डुबा देती है | "वह स्फूर्ति पूर्ण, क्रियाशील व्यक्ति कहां गया (या गयी)? वह कहां चला गया (या चली गयी)?" ऐसे प्रश्नों मे वह घिर जाता है | मैं दो प्रसङ्गों को प्रस्तुत करता हूं | एक दक्षिण आफ़्रिका के श्री सतीश कोमल द्वारा बताया गया प्रसङ्ग | एक गोरा अङ्ग्रेज उसके चार बच्चों का एक परिवार था | उसका सबसे छोटी बेटी के अनपेक्षित मृत्यु ने उसे हिला दिया | और यह मृत्यु उसीके हाथों से हुई है | उसीकी गाडी के नीचे कुचलकर मारी थी उसकी बेटी | वह बेचारा बाप जैसे शोक सागर मे डूब गया | वह एक सिद्ध वृद्धा के पास पहुंचा सान्त्वना पाने | वृद्धा ने उसको पूछा "क्या अपनी बेटी से बात करना चाहते हो?" वह आश्चर्यपूर्ण संदेह वश स्तब्ध रहा | कुछ क्षणों मे उस ने बेटी की आवाज सुनी | "मुझे पहचाना ? मैं तुम्हारा पिता हूं |" भाव विभोर पिता ने पूछा | "हां | इस बार मैं संसार मे तुम्हारे द्वारे आयी | परन्तु मेरे कई जन्मों मे कई बाप रहे हैं | मैं अपने मार्ग पर हूं | मुझे बुलाकर बाधा न बनें |" बेटी के स्वर ने उत्तर दिया | उसे कुछ समझा तो नहीं परन्तु वह शान्त हो गया | शोक से बाहर निकल सहज जीवन जीने लगा | हां | पुनर्जन्म के विषय मे जानने की उसकी जिज्ञासा मात्र जग गयी |
दूसरा प्रसङ्ग अपने देश मे हृषीकेश का है | वहां एक सन्यासिनी से भेंट हुई | पचास वर्ष पहले वह अपने दो बच्चों के साथ हृषीकेश आयी थी जहां गङ्गाजी उसके दोनो पुत्रों को बहा ले गयी | दु:ख मे डूबी माता ने अन्न त्यागा | रोते रोते मूर्छित हो जाती थी | गीता धाम के श्री जयदयाल गोयनका के समक्ष पहुंचाये जाने पर वही प्रश्न | " अपने पुत्रों से बात करना चाहती हो?" उस सन्न्यासिनी द्वारा वर्णित प्रसङ्ग दक्षिण आफ़्रिका मे उस गोरे द्वारा वर्णित प्रसङ्ग जैसा ही था | वह माता शान्त हुई | सन्न्यास दीक्षा लेकर वहीं रहने लगी | श्रीमद् भागवत मे इसी प्रकार एक प्रसङ्ग वर्णित है | अपने किसी परिजन के मृत्यु पर शोकान्वित मनस के लिये पुनर्जन्म की यह श्रद्धा शान्ति प्रदायी है | "हां | यह सच है की वह चल बसी है (या चल बसा है )| परन्तु वह अपने ही परिवार मे पुनः आयेगी (या आयेगा )|" यह विचार गहन शोक को भी दूर करने की क्षमता रखता है | भले यह हो ना हो, उस क्षण के लिये यह विश्वास निस्संदेह हितकारी है | मृत्यु के शोक से तो बाहर आना तो है | सहज जीवन मे वापस आना तो है क्यों की संसार को चलना है |
"हम इस संसार मे अनेक वार जन्म लिये हैं | मैं उन सभी जन्मों को जानता हूं | तुम जानते नहीं |" यह कहना है श्री कृष्ण का | दक्षिण भारत मे विष्णु मन्दिरों मे एक रीति है | मन्दिर मे आने वाले सभी भक्तों के शिरस पर ताम्र से बने मुकुट जैसा एक पात्र रखा जाता है| उसे षटारी कहते हैं | षटारी याने षट को मारने वाला | षट क्या है ? अपने शिरस को घेरने वाला आवरण है षट | हमारे पूर्व जन्मों की स्मृती को रोकता है षट नामक यह आवरण | 1,500 वर्ष पूर्व आये श्री रामानुज नामक वैष्णव साधु अज्ञान का कारण अपने इस षट पर कोप करते हैं | इस कारण वे षटकोप इस नाम से भी जाने जाती हैं | उनके कोप से यह आवरण हटा और उन्हें तत्क्षण पूर्व जन्मों का स्मरण हुआ और आत्मज्ञान प्राप्त हुआ | परन्तु आज मन्दिरों मे यह मात्र एक कर्मकाण्ड रह गया है | ना पूजारी के मन मे यह संकल्प है की आप का उद्धार और कल्याण हो ना ही भक्त के वेष मे मन्दिर जाने वाले हम भक्तों मे यह इच्छा है की हमें ज्ञान प्राप्त हो | सभी को आत्मज्ञान प्राप्त हो जाये तो इस संसार का क्या होगा ? इसे तो चलना है | रङ्ग बिरङ्गी यह संसार, आकर्षण से भरा यः संसार, चमत्कारी कर्मों से भरा यह संसार चलते रहे इस हेतु षट नामक इस आवरण रचित हुआ हो, कौन जाने ??
श्री श्रीधर भास्कर वर्णेकर् ने अपने आयु सत्तर मे संगीत प्रशिक्षण प्रारम्भ किया | "सम्भावित मृत्यु के कारण आपका संगीत अभ्यास थम गया तो?" ऐसा पूछा जाने पर वे कहते थे की "अपना अगला जन्म मे उसे आगे बढाऊंगा |" इस प्रकार पुनर्जन्म पर श्रद्धा जीवन मे महत्वपूर्ण उत्साहवर्धक है |
मनुष्य की दृष्टी सीमित है | इन्द्रियों द्वारा अनुभव करने व समझने की उसकी क्षमता भी सीमित है | इसलिये वह मृत्यु को ना समझ पा रहा है | ना ही मृत्यु को वह स्वीकार कर पा रहा है | प्रियजन की मृत्यु उसे उलझन मे, भ्रम मे डुबा देती है | "वह स्फूर्ति पूर्ण, क्रियाशील व्यक्ति कहां गया (या गयी)? वह कहां चला गया (या चली गयी)?" ऐसे प्रश्नों मे वह घिर जाता है | मैं दो प्रसङ्गों को प्रस्तुत करता हूं | एक दक्षिण आफ़्रिका के श्री सतीश कोमल द्वारा बताया गया प्रसङ्ग | एक गोरा अङ्ग्रेज उसके चार बच्चों का एक परिवार था | उसका सबसे छोटी बेटी के अनपेक्षित मृत्यु ने उसे हिला दिया | और यह मृत्यु उसीके हाथों से हुई है | उसीकी गाडी के नीचे कुचलकर मारी थी उसकी बेटी | वह बेचारा बाप जैसे शोक सागर मे डूब गया | वह एक सिद्ध वृद्धा के पास पहुंचा सान्त्वना पाने | वृद्धा ने उसको पूछा "क्या अपनी बेटी से बात करना चाहते हो?" वह आश्चर्यपूर्ण संदेह वश स्तब्ध रहा | कुछ क्षणों मे उस ने बेटी की आवाज सुनी | "मुझे पहचाना ? मैं तुम्हारा पिता हूं |" भाव विभोर पिता ने पूछा | "हां | इस बार मैं संसार मे तुम्हारे द्वारे आयी | परन्तु मेरे कई जन्मों मे कई बाप रहे हैं | मैं अपने मार्ग पर हूं | मुझे बुलाकर बाधा न बनें |" बेटी के स्वर ने उत्तर दिया | उसे कुछ समझा तो नहीं परन्तु वह शान्त हो गया | शोक से बाहर निकल सहज जीवन जीने लगा | हां | पुनर्जन्म के विषय मे जानने की उसकी जिज्ञासा मात्र जग गयी |
दूसरा प्रसङ्ग अपने देश मे हृषीकेश का है | वहां एक सन्यासिनी से भेंट हुई | पचास वर्ष पहले वह अपने दो बच्चों के साथ हृषीकेश आयी थी जहां गङ्गाजी उसके दोनो पुत्रों को बहा ले गयी | दु:ख मे डूबी माता ने अन्न त्यागा | रोते रोते मूर्छित हो जाती थी | गीता धाम के श्री जयदयाल गोयनका के समक्ष पहुंचाये जाने पर वही प्रश्न | " अपने पुत्रों से बात करना चाहती हो?" उस सन्न्यासिनी द्वारा वर्णित प्रसङ्ग दक्षिण आफ़्रिका मे उस गोरे द्वारा वर्णित प्रसङ्ग जैसा ही था | वह माता शान्त हुई | सन्न्यास दीक्षा लेकर वहीं रहने लगी | श्रीमद् भागवत मे इसी प्रकार एक प्रसङ्ग वर्णित है | अपने किसी परिजन के मृत्यु पर शोकान्वित मनस के लिये पुनर्जन्म की यह श्रद्धा शान्ति प्रदायी है | "हां | यह सच है की वह चल बसी है (या चल बसा है )| परन्तु वह अपने ही परिवार मे पुनः आयेगी (या आयेगा )|" यह विचार गहन शोक को भी दूर करने की क्षमता रखता है | भले यह हो ना हो, उस क्षण के लिये यह विश्वास निस्संदेह हितकारी है | मृत्यु के शोक से तो बाहर आना तो है | सहज जीवन मे वापस आना तो है क्यों की संसार को चलना है |
"हम इस संसार मे अनेक वार जन्म लिये हैं | मैं उन सभी जन्मों को जानता हूं | तुम जानते नहीं |" यह कहना है श्री कृष्ण का | दक्षिण भारत मे विष्णु मन्दिरों मे एक रीति है | मन्दिर मे आने वाले सभी भक्तों के शिरस पर ताम्र से बने मुकुट जैसा एक पात्र रखा जाता है| उसे षटारी कहते हैं | षटारी याने षट को मारने वाला | षट क्या है ? अपने शिरस को घेरने वाला आवरण है षट | हमारे पूर्व जन्मों की स्मृती को रोकता है षट नामक यह आवरण | 1,500 वर्ष पूर्व आये श्री रामानुज नामक वैष्णव साधु अज्ञान का कारण अपने इस षट पर कोप करते हैं | इस कारण वे षटकोप इस नाम से भी जाने जाती हैं | उनके कोप से यह आवरण हटा और उन्हें तत्क्षण पूर्व जन्मों का स्मरण हुआ और आत्मज्ञान प्राप्त हुआ | परन्तु आज मन्दिरों मे यह मात्र एक कर्मकाण्ड रह गया है | ना पूजारी के मन मे यह संकल्प है की आप का उद्धार और कल्याण हो ना ही भक्त के वेष मे मन्दिर जाने वाले हम भक्तों मे यह इच्छा है की हमें ज्ञान प्राप्त हो | सभी को आत्मज्ञान प्राप्त हो जाये तो इस संसार का क्या होगा ? इसे तो चलना है | रङ्ग बिरङ्गी यह संसार, आकर्षण से भरा यः संसार, चमत्कारी कर्मों से भरा यह संसार चलते रहे इस हेतु षट नामक इस आवरण रचित हुआ हो, कौन जाने ??
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