ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - ३०
जन्म कर्म च में दिव्यम्। .. (अध्याय ४ - श्लोक ९)
ஜன்ம கர்ம ச மே திவ்யம் ... (அத்யாயம் 4 - ஶ்லோகம் 9)
Janma Karma cha Me Divyam ... (Chapter 4 - Shloka 9)
अर्थ : मेरा जन्म एवं कर्म दिव्य हैं |
ये शब्द श्री कृष्ण ने अपने स्वयं के लिये ही कहा है परन्तु, हम सभी के लिये लागू हैं | मेरा जीवन दिव्य है | शरीर, मनस, बुद्धि, गुण, क्षमतायें जैसे उपकरण जो मुझ पर अनुग्रहित हैं, ये सब दिव्य हैं | इन कारणों द्वारा किये जा रहे कर्म सभी दिव्य हैं | जीवन का हेतु ही दिव्य है | भूमी जिस पर मैं जनित हूं, परिवार, समाज और मेरे आस पास के अन्य विषय दिव्य हैं | मेरे पूर्वज दिव्य हैं | उन दिव्य पुरखों से मुझे प्राप्त संस्कृति, भाषा, अनेकानेक साहित्य, संगीत और अन्य कलायें, समाज मे स्थापित अनेक व्यवस्थायें आदि सभी दिव्य हैं |
इस सत्य की अनुभूति, यही मेरे समक्ष कठिनतम आह्वान है | जीवन मे किसी भी आयु मे क्यूं न हो, अधूरा ही क्यूं न हो, इस सत्य की अनुभूति कर लेना ही प्रबल आह्वान है | यदी यह अनुभूति हो जाये, तो क्या मै जीवन नाम इस उत्तमोत्तम संदर्भ को गंवा दूंगा ?? अपने हाथ के हीरे को, उसे हीरा न जानकर, अज्ञान वश फालतु वस्तु खरीदने मे खो देने वाला मूर्ख जैसे तो मैं नहीं बन जाऊंगा | समय जो मूल्यवान है उसे व्यर्थ मनोरञ्जन एवं गप्प शप्प् में खो दूंगा ?? इस शरीर जो मुझे अद्भुत भेंट स्वरूप मे प्राप्त है क्या अनर्थ आदतें लगाकर उसे हानी पहुंचाऊंगा ?? पेट भरना ही प्रधान कार्य है इस भ्रम से क्या मैं किसी ऐर गैर के हाथ अपना श्रम को गिरवी रख दूंगा ?? इस सत्य की अनुभूति हो जाती तो क्या मैं मनस, बुद्धी, गुण एवं क्षमताओं को किसी स्वार्थी के अनुचित उद्देश्य की पूर्ति मे कर दूंगा ?? क्या अपने माता पिता, भाई बहन एवं अन्य परिजनों के साथ सत्ता, माल मत्ता आदी अल्प विषयों के लिये लढ कर रिश्ता मे कढवाहट घोल दॊंगा ?? जाने अनजाने परोक्ष या अपरोक्ष रूप से क्या मैं मेरी जननी इस धरती को कूडा कचरा से भरकर प्रदूषित कर दूंगा ?? क्या मैं भाषा, सामाजिक व्यवस्था एवं संस्कृति आदी को नष्ट करने के प्रयासों मे काम अधिक मात्रा मे सहयोग दूंगा ?? 'आया, खाया और गया' ऐसे विचित्र व्यक्ति जैसे क्या मैं अपना जीवन व्यतित करूंगा ??
क्या मेरी इस दिव्यता को मेरे आस पास के जन जानते हैं ?? संदेह है | जानते नहीं , यही इस प्रश्न का उत्तर होना चाहिये | श्री कृष्ण के जीवन काल मे जो उनके आस पास रहे उन्मे से एक दो को छोड अन्य कोई भी उनकी दिव्यता से अभिज्ञ नहीं था | घर छोड कर बारह वर्ष बीत जाने के पश्चात, ज्ञान प्राप्ती हो जाने के पश्चात, लगभग दो सहस्र शिष्य जुड जाने के पश्चात उनके पिता ने श्री गौतम बुद्ध से कहा की, "मैं तुझे क्षमा कर देने का वचन देता हूं | घर वापस आ जा |"
इस विषय मे चिन्ता करना मेरा नहीं | आस पास रहने वाले जनों से Certificate या प्रशंसा पत्र प्राप्त करने की चिन्ता मेरा कार्य नहीं | मेरी दिव्यता को वे जानना या अनभिज्ञ रहना या विरोध करना उनके स्वयम का व्यक्तिमत्त्व पर निरभर है | इस विषय मे कुतूहल रखना मेरा कार्य नहीं |
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