ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - ३१
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुण कर्म विभागशः ... (अध्याय ४ - श्लोक १३)
சாதுர்வர்ண்யம் மயா ஸ்ருஷ்டம் குண கர்ம விபாகஶஹ் ... (அத்யாயம் 4 - ஶ்லோகம் 13)
Chatur VarNyam Mayaa Srushtam GuNa Karma Vibhaagashah ... (Chapter 4 - Shlokamn13)
अर्थ : गुणों व कर्मों के विभाग पूर्वक मैं ने ही चारों वर्णों की रचना किया है |चातुर्वर्ण्यम् मया सृष्टम् ... गुण कर्म विभागश: ...
‘चतुर् वर्ण या चार प्रकार के भेद मै ने ही बनाया” श्री कृष्ण कह रहे हैं । प्रकृति का प्रत्येक सृजन जब उसीके हाथों हुआ हो तो श्री कृष्ण की इस कथनी मे आश्चर्य क्यूं ? परन्तु गीता का यह वाक्य तीखी प्रतिक्रिया एवम् कटु आलोचना का कारण बना है । विशेषत: निरीश्वर वादी सगठन् एवम् ईश्वर विरोधी कम्यूनिस्ट सगठनों का कठोर विरोध है । सम्भवत: ईश्वर द्वारा सृजित व्यवस्था का नाश असम्भव है ऐसी इन सगठनों की मान्यता होगी । ये तो इस व्यवस्था को समूल उखाड फेंकना चाहते है । इन सब का आक्षेप जाति व्यवस्था पर है, जिसे ये सभी समस्याओं का मूल और वर्ण व्यवस्था की उपज समझते हैं । इसीलिये जब वे इस वाक्य को पढते हैं की यह व्यवस्था तो परमात्मा द्वारा रचित है तो उनका आक्रोश की कोई सीमा नही रह जाती । आस्तिक और विश्वासु एक ओर नवयुग मे समाज सुधार के नाम से चलने वाला प्रचार से प्रभावित हैं तो दूसरी ओर धनार्जन को ही जीवन का एकमेव कार्य मानकर धार्मिक ज्ञान-शून्य व धार्मिक चिन्तन-शून्य वने हुए हैं । उन्हे भी श्री कृष्ण का यह कथन भ्रमित करे तो आश्चर्य नहीं । कई प्रवचनकर्ता भी इस श्लोक की व्याख्या करते समय डगमगाते है या इस श्लोक को चर्चा मे ही लाते नहीं ।
जाती और वर्ण मे अन्तर हे । जात याने जन्म और वर्ण याने रङ्ग जिसे इस सन्दर्भ मे स्वभाव या गुण इस अर्थ मे लेना चाहिये । जाति व्यवस्था जन्म के आधार पर है और वर्ण व्यवस्था गुण या स्वभाव पर आधारित हे । यही श्री कृष्ण का कहना हे । गुण कर्म विभागश: ।
क्या सभी मानव समान हैं ?? समान गुण एवम् समान स्वभाव से युक्त हैं ?? नहीं । गुण, स्वभाव और प्रवृत्ति मे भेद नैसर्गिक है । समाज मे वर्ण भेद भी नैसर्गिक है । शरीर के विभिन्न अङ्ग जैसे ही इनकी विविध क्षमता है, विविध कार्य है एवम् विविध अवश्यकता है । परन्तु ये भेद ऊपरी है । समस्या तभी उठती है जब इन भेदों को हम ऊंच नीच का आवरण चढाते हैं ।
प्रकृति तो भेदों से भरी है । केवल भेद । केवल विविधता । न कोई ऊंचा ना ही कोई नीचा । ऊंचा नीचा का लेबल लगाना यह तो मनुष्य स्वभाव है । निसर्ग मे फूल हैं, विविध रंगो के, विविध गन्धों के । कोई ऊंचा या नीचा नहीं । परन्तु मनुष्य के लीये गुलाब ऊंचा है, जास्वन्त साधा और अरोळ के फूल नीचा । आम ऊंचा, अमृद (जाम) साधा और बेर नीचा । त्वचा मे गोरी ऊंची और काली नीचि । धान्यों मे चावल ऊंचा और जवार नीचा । मनुष्य के इस करनी के लिये प्रकृती कैसे जिम्मेदार ???
हमें इष्ट हो या ना हो, हमारी सहमति हो या ना हो, प्रकृति मे तो भेद हैं । स्वभाव मे, गुण मे भिन्नता है । प्रवृत्ति मे प्रकार है । परन्तु ये बाहरी है । ऊपरी ऊपर के है । आत्मीय स्तर पर तो ऐक्य है । ये सब तो उसी के प्रकट स्वरूप है ।
“चातुर्वर्ण्यम् मया सृष्टम् । (मनुष्य समुदाय मे) चार प्रकार के वर्ण मेरी सृष्टि है । कह रहे है श्री कृष्ण ।
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