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गीता की कुछ शब्दावली - ३२

गीता की कुछ शब्दावली - ३२ 

किं कर्म किमकर्म ... (अध्याय ४  - श्लोक  १७)
கிம்  கர்ம  கிம் அகர்ம ...  (அத்யாயம் 4 - ஶ்லோகம் 17)
Kim Karma Kim Akarma  ... (Chapter 4 - Shlokam 17)

अर्थ :  कर्म क्या है ?  अकर्म क्या है ?

अद्भुत प्रश्न हैं ये |  उत्तर ?  "बुद्धिमान् ज्ञानी भी  इन प्रश्नों के उत्तर प्राप्ती मे संभ्रमित होते हैं"  श्री कृष्ण कह रहे हैं |  (कवयोsप्यत्र  मोहिताः |)

इन प्रश्नों के सर्व सामान्य उत्तर है नहीं |  इन पर चिन्तन करें और अपना उत्तर स्वम खोजने की चेष्टा करें | उत्तर मिल जाये जिसे वह भाग्यशाली |  उन उत्तरों को अपने जीवन मे उतारें जो उसे तो पूर्णत्व प्राप्त हो गया ऐसा ही माने |

कर्म क्या हैं ?  अकर्म क्या हैं ?  ये प्रश्न ही क्यूं ?  मनुष्य जीवन मे कर्म अनिवार्य हैं |  गर्भावस्था मे ही कर्म प्रारम्भ हो जाते हैं |  जीवन के अन्तिम श्वास तक चलते हैं |  उसके बाद भी शरीर के पञ्चभूतों का प्रकृति मे विसर्जन भी तो कर्म है |  पश्चात जीव क्या और कैसे कर्म करता  है यह  आज अपने समझ से  परे है |

हम अपने स्वयं के लिये, परिवार के लिये और समाज के लिये कर्म करते हैं |  खाद्य वस्तु खरीदना, पाकघर और पाक उपकरणों की व्यवस्था,  भोजन पकाना,  भोजन परोसना, भोजन ग्रहण करना,  वस्त्र खरीदना,  उन वस्त्रों को अपनी अवश्यकतानुसार सिलाकर तयार करना, पहनना, धुलाई, शरीर की बाह्यान्तर स्वच्छता के प्रयत्न, आवश्यकता के अनुसार वैद्यकीय उपचार आदि शरीर के लिये किये जाने वाले अनेक कर्मों मे कुछ हैं |  नौकरी या व्यापार या उद्योग द्वारा धनार्जन का प्रयत्न, तदनुरूप शिक्षण एवं प्रशिक्षण की प्राप्ती,  वाहन और अन्य सुविधा जुटाना,  निवास की व्यवस्था, किराया देकर या स्वयम का घर बनाकर.. गृह निर्माण के लिये धन की व्यवस्था, योग्य व्यक्तियों से सलाह प्राप्ती, श्रमिकों की व्यवस्था और निर्माण कार्य, धूप - वर्षा से, चोर और अन्य घातक व्यक्तियों से, जीव जन्तुओं से उस घर का रक्षण,  आदि आदि अपने परिजनों के लिये किये जाने वाले कर्म हैं |  सरकार एवं समाज द्वारा अपेक्षित कर्तव्यों का पालन, सामाजिक कार्यों मे उत्सवों मे धन, श्रम और अन्य मार्ग से योगदान, आदि सामज के लिये किये जाने वाले कर्म हैं |  दिन प्रतिदिन किये जाने वाले कर्म, समय समय पर उपस्थित कर्म, विशेष प्रसङ्गों मे किये जाने वाले कर्म, आपदा-विपदा के समय किये जाने वाले कर्म, ऐसे असंख्य कर्म हैं |  ये सभी ऐसे कर्म हैं जिनके साथ कर्ता भाव जुडा हुआ है |  याने इसे मैं कर रहा हूं यह भाव जुडा हुआ है |

और ऐसे अनेक कर्म हैं जो अपने आसपास, अपने स्वयं पर और अपने अन्दर हो रहे हैं |  परन्तु "मैं कर रहा हूं" इस भाव के बिना |  हम भोजन ग्रहण करते हैं |  उस भोजन का पचन,  उसमे से शरीर के लिये उपयुक्त सत्त्व का ग्रहण, मल विसर्जन, श्वास प्रक्रिया, हृदय का धडकन, रक्त की उत्पत्ति, शरीर मे रक्त का संचार, रक्त की शुद्धी, शरीर मे प्रति क्षण होने वाली सेल की उत्पत्ति एवं विसर्जन (लाखों की संख्या मे - Metabolism); शरीर मे ऊर्जा का सृजन; जैसे महद् कर्म अपने ही शरीर के भीतर चल रहे हैं |  मां के गर्भ मे शिशु की सृष्टी, उसके शारीरिक विकास तो अद्भुत कर्म है |  परन्तु इन कर्मों का कर्ता मैं हूं ऐसा हमें लगता नहीं |  ये तो अपने आप घट रहे हैं ऐसा हमारा विचार है |.

दैनन्दिन होने वाला सूर्योदय और सूर्यास्त;  नदी मे जल प्रवाह;  समुद्र जल का वाफ़् और मेघ मे परिवर्तन;  वर्षा;  बाढ;  आन्धी; सुनामी;  भूकंप; आदि विपदायें;  भूमी और अन्य ग्रहों का चलन;  आदि कर्मों को हम प्राकृतिक मानते हैं |  अपने नियन्त्रण से पर मानते हैं |  कर्मों मे इनकी गिनती भी नहीं होती |

ये सभी स्थूल कर्म हैं |  सूक्ष्म कर्म भी हैं  अपने वाक् एवं मनस से किये जाने वाले कर्म सूक्ष्म हैं |

अकर्म क्या है ?  कौनसे ऐसे कर्म हैं जो ना करें ?  कौनसे ऐसे शब्द हैं जो ना बोलें ?  ऐसे कौनसे विचार हैं जो जिन्हें चिन्तन मे ना लायें ?  क्या अकर्म संभव है ?  बाहरी कर्म, स्थूल, शारीरिक कर्मों को ना करें  यह  संभव भी है |  बाहरी संसार से अपने आप को अलग कर लें यह संभव है |  कर्मेन्द्रियों को बान्ध दें और कर्म करने से उन्हें रोक दें यह संभव है |  परन्तु, क्या अन्तर्मनस् मे चलने वाले कर्म थमे जा सकते हैं ?  यह हमारे लिये आह्वान है |  प्रबल आह्वान है |

साधारणतः हम  उन्हीं कर्मों को कर्म समझते हैं जो  "अहम् कर्ता " (याने मैं ही कर्ता)  इस भाव से किये जाते हो | ये ही कर्म हमें बान्धते हैं |  और ये ही कर्म हमें बाधित करते हैं |  कर्म जो प्राकृतिक हैं ऐसा मानते हैं , अपने आप होते हैं ऐसा जिन्हें हम मानते हैं  उन कर्मों को हम स्वीकार कर लेते हैं |  अपितु कर्ता भाव ही मूलभूत समस्या है |  मैं करता हूं यह भावना ही समस्या है |  क्या इस भावना का नाश संभव है ?  मैं ही कर्ता ... यह भावना मिटायी जा सकी  तो ...  स्थूल स्तर पर या बाहरी दृश्य मे अकर्म  परन्तु अहम् कर्ता इस भावना के कारण कर्मों की आन्धी सूक्ष्म स्तर पर  याने अन्तर्मनस मे |  अभ्यास से इसकी विपरीत अवस्था  याने बाहरी दृश्य मे अविरत एवं असंख्य कर्मों मे ल्लगे रहकर भी  कर्ताहम् भावना से मुक्त और शान्ती और आनन्द से पूर्ण अन्तर्मनस् प्राप्त हो यही हमारे लिये योग्य है |  इसे ही श्री कृष्ण 'अहङ्कार विमूढात्मा कर्ताहम् इति मन्यते ' ऐसा कह रहे हैं |  याने अहन्कारी और अज्ञानी ही स्वयम को कर्ता मानता है |

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