ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - ३४
यस्य सर्वे समारम्भाः काम सङ्कल्प वर्जिताः (अध्याय ४ - श्लोक १९)
யஸ்ய ஸர்வே ஸமாரம்பாஹ காம ஸங்கல்ப வர்ஜிதாஹ (அத்யாயம் 4 - ஶ்லோகம் 19)
Yasya Sarve Samaarambhaah KaamaSankalpa Varjitaah (Chapter 4 - Shloka 19)
अर्थ : जिसके सर्व कर्म कामना एवं संकल्प रहित हो ...
इस शब्दावली मे प्रयोग मे आये शब्दों को समझे |
संकल्प : संकल्प काम का पूर्व अवतार है | हम जब किसी विषय को देखते हैं अथवा कोई विषय सुनते हैं अथवा किसी विषय का विचार करते हैं तो उक्त विषय के अनुकूल कई विचार अपने मनस मे उठते हैं | "यह उपयोगी विषय या वस्तु है |" "निश्चित ही यह विषय सस्ता है |" "ऐसी मान्यता है की यह दीर्घ काल तक काम करेगा |" "यह अपने स्वास्थ्य के लिये हितकारी है |" "प्रतिष्ठित व्यक्ति इसका उपयोग करते हैं |" "यह दुर्लभ विषय है | यह बहुत कम व्यक्तियों के पास है |" "यह स्वदेशी है अपने ही प्रदेश मे अपने ही जन द्वारा यह बनाया गया है |" "इसके दुष्परिणाम नहीं हैं |" "गर्मी के दिनों मे यह उपयोगी है |" " सुविधायें सम्मिलित हैं |" आदि आदि ..| ऐसे अनुकूल विचार संकल्प माने जाते हैं | साथ ही साथ उसी विषय के प्रतिकूल विचार भी मनस मे उठते हैं | जैसे -- "यह है तो सस्ता शीघ्र ही टूट बिखर जाता है |" "यह है अच्छा परन्तु इसके spare parts सुलभता से उपलब्ध नहीं हैं |" "अरे ! यह तो प्रदूषण उत्पन्न करता है |" "यह सुविधा-जनक है अवश्य | परन्तु खचा खच भरे अपने मार्गों पर यह नालायक है |" आदि आदि .. | ऐसे विचार विकल्प कहे जाते हैं |
अपने मानस क्षेत्र मे किसी भी विषय के संकल्प एवं विकल्प मे परस्पर द्वन्द्व चलता है | विकल्प के पराजय और नाश हो जाने पर मनस मे केवल संकल्प रह जाते हैं | उस स्थिती मे काम का जन्म होता है | "मुझे यह चाहिये |" "मैं इसे पाऊंगा |" "यह मेरे लिये उपयोगी सिद्ध होगा |" "मैं इसे करना चाहता हूं |" "यह मेरी प्रतिष्ठा को बढायेगा |" "इसे मैं प्राप्त कर नहीं सका तो मेरा जीवन ही व्यर्थ है |" आदि आदि ..| ये सब काम के ही विभिन्न रूप है |
एक सर्व सामान्य धारणा है की संकल्प एवं कामना ही मनुष्य को कार्य करने प्रेरित करते हैं | इनकी अभाव मे कोई भी कार्य हो नहीं सकता | श्री कृष्ण के विचार इसके विपरीत है | संकल्प एवं काम रहित कर्म के पक्षधर हैं श्री कृष्ण | अपने कर्म " केवलं कर्तव्यं " इस आधार पर हो | अपने स्वभाव के अनुरूप हो अपने कर्म | अपने स्वधर्म के लिये अनुकूल एवं पोषक हो अपने कर्म | श्रद्धा पूर्ण हो अपने कर्म |
आज कल इस नवीन युग मे एक नया मानसिक रोग प्रबल होते जा रहा है | "विज्ञान की परीक्षा मे खरा उतारा तो ही उसे मैं स्वीकारूंगा |" ऐसे कहने वालों की संख्या बढ रही है | अङ्ग्रेजी शिक्षण पद्धति और सभी ओर् चल रहे निरीश्वरवाद का प्रबल प्रचार इस मनो वृत्ती के लिये कारण हो सकते हैं | हमारी कोई वैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं है | विज्ञान के सम्बन्ध अपना ज्ञान भी अधपका है | विज्ञान भी कोई अन्तिम सत्य नहीं है | वह तो सत्य की दिशा मे निरन्तर प्रगत है | और विज्ञान के नाम से आज के बाजार मे आर्थिक शोषण ही तो चल रहा है | क्या हम बाजार मे उपलब्ध दवाईयां, खाद्य वस्तु,, शृङ्गार सामग्री एवं अन्य भोग विलास के वस्तू खरीदते समय विज्ञान से परखते हैं ?" केवल परम्परा, धर्म अनुशासित जीवन के लिये सूचित कर्म के सम्बन्ध मे विज्ञान का नाम लेते हैं |
अपने सभी कर्म श्रद्धा से ओत प्रोत, कर्तव्य भाव से प्रेरित काम - संकल्प रहित हो |
संकल्प : संकल्प काम का पूर्व अवतार है | हम जब किसी विषय को देखते हैं अथवा कोई विषय सुनते हैं अथवा किसी विषय का विचार करते हैं तो उक्त विषय के अनुकूल कई विचार अपने मनस मे उठते हैं | "यह उपयोगी विषय या वस्तु है |" "निश्चित ही यह विषय सस्ता है |" "ऐसी मान्यता है की यह दीर्घ काल तक काम करेगा |" "यह अपने स्वास्थ्य के लिये हितकारी है |" "प्रतिष्ठित व्यक्ति इसका उपयोग करते हैं |" "यह दुर्लभ विषय है | यह बहुत कम व्यक्तियों के पास है |" "यह स्वदेशी है अपने ही प्रदेश मे अपने ही जन द्वारा यह बनाया गया है |" "इसके दुष्परिणाम नहीं हैं |" "गर्मी के दिनों मे यह उपयोगी है |" " सुविधायें सम्मिलित हैं |" आदि आदि ..| ऐसे अनुकूल विचार संकल्प माने जाते हैं | साथ ही साथ उसी विषय के प्रतिकूल विचार भी मनस मे उठते हैं | जैसे -- "यह है तो सस्ता शीघ्र ही टूट बिखर जाता है |" "यह है अच्छा परन्तु इसके spare parts सुलभता से उपलब्ध नहीं हैं |" "अरे ! यह तो प्रदूषण उत्पन्न करता है |" "यह सुविधा-जनक है अवश्य | परन्तु खचा खच भरे अपने मार्गों पर यह नालायक है |" आदि आदि .. | ऐसे विचार विकल्प कहे जाते हैं |
अपने मानस क्षेत्र मे किसी भी विषय के संकल्प एवं विकल्प मे परस्पर द्वन्द्व चलता है | विकल्प के पराजय और नाश हो जाने पर मनस मे केवल संकल्प रह जाते हैं | उस स्थिती मे काम का जन्म होता है | "मुझे यह चाहिये |" "मैं इसे पाऊंगा |" "यह मेरे लिये उपयोगी सिद्ध होगा |" "मैं इसे करना चाहता हूं |" "यह मेरी प्रतिष्ठा को बढायेगा |" "इसे मैं प्राप्त कर नहीं सका तो मेरा जीवन ही व्यर्थ है |" आदि आदि ..| ये सब काम के ही विभिन्न रूप है |
एक सर्व सामान्य धारणा है की संकल्प एवं कामना ही मनुष्य को कार्य करने प्रेरित करते हैं | इनकी अभाव मे कोई भी कार्य हो नहीं सकता | श्री कृष्ण के विचार इसके विपरीत है | संकल्प एवं काम रहित कर्म के पक्षधर हैं श्री कृष्ण | अपने कर्म " केवलं कर्तव्यं " इस आधार पर हो | अपने स्वभाव के अनुरूप हो अपने कर्म | अपने स्वधर्म के लिये अनुकूल एवं पोषक हो अपने कर्म | श्रद्धा पूर्ण हो अपने कर्म |
आज कल इस नवीन युग मे एक नया मानसिक रोग प्रबल होते जा रहा है | "विज्ञान की परीक्षा मे खरा उतारा तो ही उसे मैं स्वीकारूंगा |" ऐसे कहने वालों की संख्या बढ रही है | अङ्ग्रेजी शिक्षण पद्धति और सभी ओर् चल रहे निरीश्वरवाद का प्रबल प्रचार इस मनो वृत्ती के लिये कारण हो सकते हैं | हमारी कोई वैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं है | विज्ञान के सम्बन्ध अपना ज्ञान भी अधपका है | विज्ञान भी कोई अन्तिम सत्य नहीं है | वह तो सत्य की दिशा मे निरन्तर प्रगत है | और विज्ञान के नाम से आज के बाजार मे आर्थिक शोषण ही तो चल रहा है | क्या हम बाजार मे उपलब्ध दवाईयां, खाद्य वस्तु,, शृङ्गार सामग्री एवं अन्य भोग विलास के वस्तू खरीदते समय विज्ञान से परखते हैं ?" केवल परम्परा, धर्म अनुशासित जीवन के लिये सूचित कर्म के सम्बन्ध मे विज्ञान का नाम लेते हैं |
अपने सभी कर्म श्रद्धा से ओत प्रोत, कर्तव्य भाव से प्रेरित काम - संकल्प रहित हो |
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