ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - ३६
द्वंद्वातीत ... (अध्याय ४ - श्लोक २२)
த்வந்த்வாதீத ... (அத்யாயம் 4 - ஶ்லோகம் 22)
Dwandwaatheetha ... (Chapter 4 - Shloka 22)
अर्थ : द्व याने दो | द्वन्द्व याने दो का परस्पर संघर्ष | मल्ल युद्ध द्वन्द्व कहा जाता है | द्वन्द्वातीत याने द्वन्द्वों के पार | संघर्ष रहित |
हम अपने आस पास कई परस्पर विरोधी, संघर्ष युक्त जोडी देखते हैं | एक रहता तो दूसरा नहीं | एक आता तो दूसरा चला जाता | प्रकाशमय दिन है तो अन्धेरी रात्री भी | उष्ण बरसाता धूप काल है तो हड्डियों को हिला देने वाला ठण्ड भी | जिह्वा के लिये मधुर मधु और नारियल पानी है तो कडवा करेला भी | आंखों के लिये सुदर्शनीय कमल और गुलाब है तो कण्टकमयी टेढी मेढी कैक्टस भी | निसर्ग मे कर्ण के लिये मधुर कोयल की सुस्वर कू - कू है तो गधे का बेसुरा और कर्णकठोर रेङ्गना भी | स्पर्श के लिये मृदु रेशम है तो विपरीत ऊन भी | ये सब् अपने इन्द्रियों के अनुभवों मे प्राप्त द्वन्द्व हैं |
मनस के अनुभवों मे भी कई द्वन्द्व पाये जाते हैं | प्रशंसा है तो दूषण भी | स्वागत है तो बहिष्कार भी | मित्रता है तो वैर भी | प्रेमपूर्ण व्यवहार है तो द्वेष पूर्ण भी | अनुकूल अनुभव है और प्रतिकूल अनुभव भी |
अपने इन्द्रिय और मनस के इस संसार के साथ सम्बन्ध के फलस्वरूप प्राप्त हैं ये सभी अनुभव | अनुभव तो अनिवार्य हैं | अपने इन्द्रिय हैं और संसार भी | इनमे आपसी सम्बन्ध भी अनिवार्य है | हम एकान्त मे संसार से कोई सम्बन्ध विना जी नहीं सकते | संसार मे रहते अन्तिम श्वास तक दिन और रात्री, धूप और छांव, ग्रीष्म और शरद ऋतु, पुष्प और कांटे, मधुर और कटु, मृदु और कठोर, मान और अपमान, अनुकूल और प्रतिकूल जैसे सभी अनुभव निश्चित हैं | हम यदी गौर से देखें तो ध्यान मे यह आयेगा की हम इन अनुभवों से विशेषण जोडकर वर्णित करते हैं और ये विशेषण ही समस्या हैं | अच्छा, बुरा, मधुर, सुखद, दु:खी, कठोर, मृदु, अनुकूल, प्रतिकूल, कडवा आदी आदी विशेषण | इन विशेषणों को यदि हम हटा दें और अनुभवों को केवल मात्र अनुभव के रूप मे स्वीकार किया तो द्वन्द्वों के पार पहुंचने की संभावना बढ जाती है | द्वन्द्वरहित् स्थिती या द्वन्द्वातीत स्थिती का अनुभव करने योग्य हम बन सकते हैं |
परन्तु ये अनुभवों मे भिन्नता तो सत्य लगते हैं | मिथ्या नहीं | अन्यान्य विषयों के सम्बन्ध से प्राप्त अनुभवों मे भिन्नता उन विषयों के स्वभाव मे प्रस्तुत भिन्नता के कारण हैं | गुलाब का स्वभाव, पत्थर का स्वभाव, पशु पक्षियों के स्वभाव, प्रत्येक मनुष्य का स्वभाव, ये सब् प्रकृती के नियमों के आधार पर, भिन्न हैं | अन्यों के स्वभाव को क्या हम अपने अनुकूल बदल सकते हैं ? अपने निजी स्वभाव को बदलनेमे, जो सर्वथा सुलभ है, असमर्थ हम अन्यों के स्वभावों को कैसे प्रभावित कर सकते हैं ? संसार के साथ सम्बन्ध पर रोध भी असंभव है | हमारे वश एक ही मार्ग है | अपने आप को ऐसा प्रशिक्षण दें जिससे ये अनुभव हमारे भीतर कोई तरङ्ग, सुखद या दु:खद तरङ्ग छोड ना जाये | प्रत्येक अनुभव से हम सीखें और अपना संसारिक सम्बन्ध मे योग्य सुधार लायें | संसार को बदलने का प्रयास ना करें |
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