ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - ३८
यज्ञ शिष्टामृतभुजो ... (अध्याय ४ - श्लोक ३१)
யக்ஞ ஶிஷ்டாம்ருத புஜோ ... (அத்யாயம் 4 - ஶ்லோகம் 31)
Yagya Shishtaamruta Bhujo .... (Chapter 4 - Shloka 31)
யக்ஞ ஶிஷ்டாம்ருத புஜோ ... (அத்யாயம் 4 - ஶ்லோகம் 31)
Yagya Shishtaamruta Bhujo .... (Chapter 4 - Shloka 31)
अर्थ : यज्ञ का शेष जो अमृत है, उसे भुजता है जो...
संसारी व्ययहार मे 'लेन-देन' सुझाया जाता है | लेना स्वयं के लिये और देना अन्यों को | देना, देकर लेना ऐसा सुझाव है गीता की इस शब्दावली का | यज्ञ शिष्ट भुज, यज्ञ का शेष को स्वीकार करें यह सुझाव है | अग्नी मे आहुती चढाना इसे ही यज्ञ माना जाये तो यज्ञ का शेष तो केवल भस्म है | भस्म को भुजें यह गीता का आग्रह नहीं हो सकता | यज्ञ यह केवल अग्नी कर्म नहीं परन्तु त्याग भाव ही यज्ञ है | उदात्त हेतु से देना ही यज्ञ है |
हम सभी जीवों के लिये अपने अस्तित्व मात्र के लिये ही क्यॊं ना हो, लेना तो अनिवार्य है | यज्ञ शेष को लेना इस वचन के दो अर्थ हो सकते हैं | 1. देना , देकर लेना | देना अन्यों को अनन्तरं लेना स्व के लिये | 2. देना हो ना हो लेना स्वल्प मात्रा मे , न्यूनतम आवश्यकता हो जितनी बस उतनी ही लेना , भोग भाव से नहीं त्याग भाव से लेना | एक माता ही इस विषय मे ज्वलन्त उदाहरण है | इस तथ्य का मूर्ति स्वरूप है माता | माता देती है, बस देती है | और अपने लिये कम से कम लेती है | माता काम करती है, भोजन पकाती है, गीत गाती है, प्रार्थना करती है, योजना बनाती है, सोचती है ... जो भी करती है बस अपनों के लिये | अपने बच्चों के लिये और अन्य सभी जिन्हें वह अपना मानती है | उसकी ऊर्जा, उसकी क्षमता, उसका सामर्थ्य, उसकी बुद्धी, उसका समय, और जो कुछ उसके पास है, सब अपनों के लिये है | उसकी वेदना, उसके दु:ख, उसकी चिन्ता, ये औरों के लिये नहीं, केवल अपने अन्दर, गहरायी मे छुपाये रखती है |
क्या यह 'मम' भाव नहीं ? 'मैं और मेरा' इस भाव के आधार पर देना असम्भव है | अधिकार जताना और लेना ही सम्भव | प्रेम, नि:स्वार्थ प्रेम ही देने मे प्रेरणा-दायी है |
प्रकृती भी इसी आधार पर बनी है | देना अधिकतम और लेना न्यूनतम |
क्या यह 'मम' भाव नहीं ? 'मैं और मेरा' इस भाव के आधार पर देना असम्भव है | अधिकार जताना और लेना ही सम्भव | प्रेम, नि:स्वार्थ प्रेम ही देने मे प्रेरणा-दायी है |
प्रकृती भी इसी आधार पर बनी है | देना अधिकतम और लेना न्यूनतम |
इसे स्वार्थ भी कहा जा सकता है | परन्तु यहां स्व सङ्कुचित नहीं, केवल मैं नहीं अपितु विशाल है, विस्तरित है, स्व जिसमे अन्य भी समाये गये हैं | प्रेम दर्शाना एवं देना इनमे द्वैत भाव है | एक जो देता है और दूसरा जो लेता है | इससे उन्नत स्थिती है वह जिसमे देनेवाला और लेनेवाला अभिन्न हैं | स्व का ऐसा विस्तार मे अद्वैत भाव है | देना नहीं, प्रेम बरसाना नहीं | केवल स्व-अर्थ है आनन्दमय स्वार्थ, ब्रह्म-मय स्वार्थ |
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