ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - ३९
प्रणिपादेन .... (अध्याय ४ - श्लोक ३४)
ப்ரணி பாதேன .... (அத்யாயம் 4 - ஶ்லோகம் 34)
PraNi Paadena .... (Chapter 4 - Shloka 34)
अर्थ : दण्डवत् नमस्कार करना ...
नमस्कार, नमस्ते, वणक्कम्, नमस्कारमण्डी, नमस्कारा, नमस्करिक्कुन्नु, नोमोष्कार, पाय लागू, चरण छू, जय श्री कृष्ण, राम राम, ये सब अपने भारत मे विभिन्न प्रदेशों मे एक दूसरे को मिलते समय प्रयोग किये जाने वाले शब्द हैं | इन सभी शब्दों का एक ही अर्थ है | "मैं आपको वन्दन करता हुँ I" विभिन्न भाषाओं मे भिन्न भिन्न शब्द प्रयोग होते हुए भी सूचित भाव एक ही है | "मनुष्य दिव्य है | परमात्मा का प्रकट स्वरूप है | इस लिये वन्दनीय है | यह दृष्टिकोण विश्वभर के मनुष्य समुदाय के लिये भारत का विशेष देन है |
इन शब्दों के साथ आने वाले कर्म भी अनेक हैं | कोई जन शीश झुकाते हैं | कोई और दोनों हाथ जोडकर सर भी झुकाते हैं | अन्य कई झुककर पैर छूते हैं | अनेक जन भूमी पर दण्डवत, दण्ड जैसा पडकर, नमस्कार करते हैं | यूरोप, अमेरिका और आफ्रिका जैसे भू भागों मे सहचर मनुष्य को पूज्य मानने की या वन्दन करने की प्रथा नहीं | तो वहाँ की भाषाओं मे इस भाव को प्रकट करने वाले शब्द भी नहीं | बौद्ध सम्प्रदाय को मानने वाले आशिया के कई देशों मे यह प्रथा भी है, इस के अनुरूप शब्द भी उन भाषाओं हैं | परन्तु दण्डवत प्रणाम मात्र केवल भारत मे प्रचलित है | इस की जड भारत मे बहुत गहरे हैं | मैं जब भारत कहता हूं, तो अखण्ड भारत का, आज के खण्डित "इण्डिया" के साथ पाकिस्तान, बन्ग्ला देश, श्री लङ्का, नेपाल, तिब्बेत, ब्रह्मदेश आदि सभी प्रदेशों का सम्मिलित भू भाग का, भारत जो गत शताब्दी मे अस्तित्व मे था और जो निकट भविष्य मे पुनः अस्तित्व मे आयेगा, उस संपूर्ण भारत मे प्राणि-पाद या दण्डवत् नमस्कार की प्रथा प्रचलित है |
केवल झुकने के लिये विनम्रता की आवश्यकता हो तो प्राणि पाद या दण्डवत् प्रणाम के लिये तो अनिवार्य है | मनस मे विनम्रता के विना केवल पैर पडना निर्जीव कर्म मात्र रह जाता है |
संसार मे कई प्रथा हैं जो सर्व प्रदेशों मे प्रचलित हैं | किसी पर गुस्सा दिखाना हो, किसी को अपमानित करना हो, तो अपने पैर या जूते उसके सर पर रखना यह उन मे से एक है | या कम से कम "मेरी जूति तेरे सर पर" ऐसे कोसने की इच्छा करते हैं | अपने सर को स्वयं ही उसके चरणों पर रखना यह ठीक विपरीत कर्म है | इसमे भाव भी विपरीत ही प्रकट होता है | इसमे अपने स्वयं के 'अहं' को झुकाने का भाव है | काल प्रवाह मे धीरे धीरे 'अहं को नाश करने का प्रयास है |
दण्डवत् नमस्कार मे एक और पहेलु है | शरणागति ... मेरे ओर से कोई चेष्टा नहीं | बस | आपके इच्छानुसार, आप के इष्टानुसार | शक्ति, धन, अधिकार, कीर्ति आदि विषयों मे हम से बडा हो तो उसके चरण मे शरण होना आसान है | दुनियादारी मे यह बुद्धिमानी समझी जाती है | इस प्रकार के नमस्कार के पीछे भय या स्वार्थ छुपा होता है | परन्तु श्री कृष्ण का इस शब्दावली द्वारा आचार्य के चरणों मे दण्डवत प्रणाम करने का सुझाव है | आचार्य जो निर्धन है, जिसके हाथ कोई अधिकार नहीं, जो शक्तिशाली नहीं, परन्तु जो ज्ञान और गुणों का भण्डार है ऐसे आचार्य के चरण कमल मे शरण जाना, केवल ज्ञान प्राप्ती के लिये, केवल तेजस्वी चारित्र्य प्राप्ती के लिये, यही इस शब्दावली मे निहित अर्थ है |
प्राणि पादेन .. शनैः शनैः 'अहं' का र्हास हो अहं मिट जाना चाहिये | शरणागति, पूर्ण शरणागति सिद्ध हो जानी चाहिये |
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