ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - ३७
யக்ஞாயாசரதஹ கர்ம ... (அத்யாயம் 4 - ஶ்லோகம் 23)
Yagyaayaacharatah Karma ... (Chapter 4 - Shlokam 23)
अर्थ : यज्ञ भावना युक्त कर्म करने वाला |
मनुष्य प्रमुख रूप से एक Consumer है | यह चाहिये, वह चाहिये ऐसा भटकने वाला, लेने वाला, भोगने वाला | चाह की तृष्णा एवं लेने की वृत्ती अपने आप को जीवित रखने के लिये पर्याप्त, इतने ही रहे तो उत्तम | विषय सुलभता से प्राप्त यदि हो या विना मूल्य के दिया जा रहा हो तो यह वृत्ती बढ जाती है | यह यदि अत्याधिक हो तो लोभ कहा जाता है | लोभी मे चाह की तृष्णा अक्षय और लेने की वृत्ती असीम होती है | "मुझे प्राप्त नहीं हुआ |" "क्यॊं ? मुझे नहीं मिलेगा ?" "आप सभी ने तो माङ्गकर् ले लिया | मैं क्यूं न लूं ?" ऐसे कई वचन संसार मे कई मतभेद एवं झगडों के लिये कारणीभूत है | संपत्ती के सभी कोर्ट केस इसी वाद पर आधारित हैं | "मुझे चाहिये" यह विचार गलत नहीं | 'मुझे भी चाहिये' ऐसा विचार नीचा है | मैं पहले लूं और अवशेष रहा तो तुम लेना" यह विचार अधम है | "बस, केवल मेरे लिये " ऐसा विचार अधम से अधम है | "मुझे मिला नहीं तो परवाह नहीं, परन्तु तुम्हें ना मिले " ऐसा विचार राक्षसी |
- सुनामी पीडित जन की सेवा हेतु मैं ने एक ट्रस्ट् चलाया | ट्रस्ट् की ओर् से उन ग्रामों के विद्यार्थियों को पुस्तक, नोट, लेखनी, बैग आदि देने का निर्णय हुआ | सर्वेक्षण किया और उचित संख्या मे ये वस्तुएं खरीद लाया | मछुआरे ग्रामों मे पहुंचा तो सुनामी सी खलबली मच गयी | "तुम तो विद्यार्थी नहीं | तुम कैसे आ गये ?" "अरे ! मैं तो पाठ शाला जाता हूं |" पास मे बसी SC बस्ती के बच्चे आ गये तो, "तुम कैसे आ गये ? तुम्हें कोई सुनामी आयी ? तुम तो कोई खतरा नहीं ऐसे ऊंचायी पर रहते हो ! तुम नहीं ले सकते | चले जाओ |" धक्का धुक्की और वाद प्रतिवाद | इस गोन्धल् मे विनियोग हो नहीं सका खरीदे वस्तु काभी नाश हुआ |
- होटल् और अन्य भोजन स्थलों मे हम मे अनेकों को अन्यों के थाली पर दृष्टी घुमाने की आदत दिखायी देता है |
- बफ़े इस नाम से प्रचलित भोज मे, "ओहो ! आइस्क्रीम ? मैं ने तो देखा नहीं | कहां रखा है ?" ऐसे वचन सुनते हैं |
- तमिळ नाडु सरकार द्वारा मुफ़्त TV बांटे गये | जब जब सरकारी गाडी TV लेकर किसी ग्राम मे पहुंची तो ग्राम लोक-सभा बन जाता |
- आज काल के डिपार्टमेण्टल स्टोरस् मे जम रही भीड मे अधिकांश जन 'मुफ़्त' और 'डिस्कौन्ट' के मोह से पीडित जन है |
- 'देशभक्ती और अनुशासन' के लिये माना गया संघ के अखिल भारतीय बैठक मे विविध क्षेत्रों मे कार्य रत संघटन अपने अपने कार्य के विषय मे पर्ची और पुस्तिका, हिन्दी मे, बांटते हैं | तामिल नाडु से आये प्रतिनिधी हिन्दी का एक अक्षर भी ना जाने तो भी बांटे जानीवाली प्रत्येक लेने के लिये आतुर होते हैं |
अतः लेने की यह वृत्ती जात, समुदाय, आर्थिक स्थिती, शैक्षणिक स्तर आदि सभी रेशों से पार कर, सभी मे पायी जाती है |
इसी प्रकार देने की वृत्ती भी प्रकृती मे है | संसार मे सभी जीव राशी देते हैं | सूर्य देता है | उष्ण एवं प्रकाश देता है | और अन्न एवं प्राण वायु देने मे स्थावरों की सहायता करता है | स्थावर देते हैं | अन्न, फल, फूल, छाया, आश्रय, और प्राण वायु देते हैं | और जल देने मे मेघ की सहायता करते हैं | अपने मृत्यु के पश्चात ऊर्जा के लिये लकडी देते हैं स्थावर जीव | प्राणी देते हैं | अन्य प्राणियों को भोजन और धरती को पौष्टिक सत्त्व | मेघ देता है | जल, आशा, उत्साह, शीत वायु देता है | भूमि देती है | जीव जन्तुओं के लिये आवश्यक पोशाक देती है | ये सब बने ही ऐसे हैं | देना उनकी प्रकृती का एक अङ्ग है | उन्हें तो देना ही है | कोई पर्याय नहीं | मनुष्य ? देने की उसकी क्षमता तो असीम है | परन्तु देने की वृत्ती उसमे प्रकृति से प्राप्त नहीं है | संस्कारों द्वारा उसमे देने की वृत्ती जगानी पडती है | हां | किन्हीं व्यक्ती मे यह वृत्ती जन्मजात है | उनके रक्त मे मिली हुई जैसे पायी जाती है | पूर्व जन्म की वासना मानी जाती है | समाज ऐसे व्यक्तियों को महान कहकर् पूजता है |
एक गुरु और शिष्य एक घर के द्वार पर खडा होकर आवाज दिया,, "भवती भिक्षां देही" | आङ्गन् मे खेलता एक बच्चे ने कहा, "जाओ | जाओ | कुछ नहीं है |" "तुम हो ना ?" बच्चे ने विस्मयित होकर अपनी छोटी सी हथेली को देखा और कहा, "मैं ? मैं क्या दे सकता हूं ?" गुरु अपने कमण्डल को आगे बढाते हुए कहा, "अरे ! तुम भी दे सकते हो | एक मुट्ठी भर मिट्टी ही दे देना |" बच्चा आनन्दित हुआ और वैसे ही किया | शिष्य ने गुरु से पूछा, "क्या आज भूखा ही रहना पडेगा ? क्या हम मिट्टी खायेंगे ? माङ्ग कर लिया है जो आपने !" "मैंने लिया नहीं | उल्टा मैं ने दिया है उस बच्चे को |" "दिया है ? क्या दिया आपने ?" "मैंने उसे देने का संस्कार दिया |" गुरु ने कहा |
हां | देने की वृत्ती जगाकार पोषित करनी पडती है | मनस मे प्रस्फ़ुटित करनी पडती है | सभी वैदिक कार्यक्रम मे देना यह प्रधान अङ्ग है | मन्दिरों के कुम्भाभिषेक, दैनिक संध्या वन्दनं, जन्म, उपनयन, विवाह, मृत्यु आदि प्रसङ्गों मे किये जाने वाले कर्म, आदि सभी कर्मों मे देना यह अनिवार्य है | सूर्य को एक बून्द जल देना, अग्नी को एक बून्द घी देना, विग्रह को एक बून्द दूध देना, गाय को एक मुट्ठी भर घास देना, भिक्षा मान्गने वाले को एक मुट्ठी भर अन्न देना, पक्षियों को देना, जल जन्तुओं को देना, जानवरों को देना, मनुष्यों को देना, आदि आदि | भोजन प्राप्त करना भी एक होम (हवन) है, अन्न का जठराग्नी मे हवन | प्रेत संस्कार भी एक हवन है, शरीर का अग्नी मे हवन |
हवन या यज्ञ याने त्याग | यज्ञ याने देना | यज्ञकर्म याने त्याग भाव से कर्मों को करना | यज्ञ याने 'मैं नहीं तू ही' यह भावना | यज्ञ याने 'मेरा नहीं तुम्हारा' यह भावना | देना, देना | इदं न मम | यह मेरा नहीं | शारीरिक परिश्रम देना | मानसिक उत्साह देना | सद्-बुद्धिमत्ता देना | समय देना | धन देना | चिन्तन देना | अभय देना | प्रकाश देना |
ईशावास्य उपनिषद की प्रथम पङ्क्ती है .. ईशावास्यं इदं सर्वम् ... तेन त्यक्तेन भुञ्जीता .. यह सब उसका है | उसी का है | अपने आप के लिये लेना तो है | लेना परन्तु त्याग भाव से | जीने के लिये, जितनी आवश्यकता है उतनी मात्र लेना | देना | देना | यही वेदों की भी अपेक्षा है |
Comments
Post a Comment