ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - ४४
யோ ந த்வேஷ்டி ந காங்க்ஷதி .. (அத்யாயம் 5 - ஶ்லோகம் 3)
Yo Na Dweshti Na Kaankshati ... (Chapter 5 - Shloka 3)
अर्थ : जो न द्वेष करता ना इच्छा ।
सन्न्यासी का वर्णन करते हुए श्री कृष्ण यह बात कह रहें हैं । मनुष्य में तो आकांक्षा रहेगी यह हमारी धारणा है और यह सत्य भी है । इसीलिये हमारा यह विचार भी सहज है की जिसमे आकांक्षाएं ना रहे वही सन्यासी । संसार से मुँह मोड़ लेने वाला सन्यासी । अपने घरों में, मित्र वर्तुळ में ऐसा कोई व्यक्ती हो जो अपनी इच्छाएं प्रकट नहीं करता तो आसपासके अन्य व्यक्ती "वह तो सन्यासी है । उसे कुछ नहीं चाहिए " ऐसे कहने लगते हैं । ऐसे कई व्यक्ती पाए जाते हैं जिसमे कोई इच्छा नहीं हैं या कम से कम इच्छा हैं । परंतु श्री कृष्ण की अपेक्षा इससे अधिक है । वह कहता है "इच्छा ना हो द्वेष भी ना हो "। श्री कृष्ण का ऐसा कहना "रूप हो परंतु छाया न हो" ऐसा कहने के समान है । क्या यह संभव है ??
आकांक्षा और द्वेष ये दोनों साथ साथ पाए जाने वाले जुड़वे हैं । आकांक्षा रही तो निश्चित है की द्वेष भी है । "यह मिल जाए ऐसी अपेक्षा दूसरा कुछ ना मिले इस द्वेष का ही प्रकट स्वरूप है । प्रतिकूल अनुभव ना मिले यह आकांक्षा के साथ साथ अनुकूल अनुभव मिले यह भी रहेगी । एक है और दूसरा है, पर पीछे छुपा हुआ " । एक स्थूल और दूसरा सूक्ष्म । एक हमें दिखता हो और दूसरा ना दिखे । परंतु यह सुनिश्चित है की दोनों साथ साथ हैं । एक दूसरे का हाथ बांधे पाए जाते हैं । जैसे Force - Counter force . जैसे बिजली में पॉसिटिव और निगेटिव . ये दोनों अभिन्न है । दोनों ना रहे यही संभव है । कठिन है परंतु यही साध्य है |
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