ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - ४७
பத்ம பத்ரமிவாம்பஸா ... (அத்யாயம் 5 - ஶ்லோகம் 10)
Padma Patramivaambhasaa ... (Chapter 5 - Shlokam 10)
अर्थ : जल में पद्म पत्र के समान ।
यह हिन्दू ग्रन्थों में प्रयोग किये गए अनेक सुन्दर उपमाओं में एक है । पद्म पत्र . . कमल की पत्ती जल में रहती है । जल से घिरी रहती है । परंतु अलिप्त रहती है । अपने को गीला करने की अनुमति , अपने को भिगाकर डुबोने की अनुमति अपने चारों और स्थित जल को देती नहीं । हम इस संसार में रहते हैं । मनुष्य से घिरे , विषयों से घिरे , मान अपमान से घिरे , इच्छा द्वेष से घिरे , सुख दू:ख , यश अपयश से घिरे संस्था और उनमे अनेक पदों से घिरे हुए हैं । इनके बीच रहना अनिवार्य है । एकान्त असंभव है । हम जंगल में भाग चले जाना चाहते हैं । जन , नगर, अनेकानेक विषयों से दूर किसी अरण्य में या गुफा में या नदी तीर पर वास सभी के लिए संभव नहीं है । आजकल ऐसे स्थानों में आश्रम बनाकर तनाव ग्रस्त धनवानों को वहां आकर कुछ दिन बिताने का निमंत्रण देने वाले कई संस्थान उभर कर आयी हैं । परंतु वहाँ एक दिन का निवास भी अत्यधिक महँगा है । हजारों लाखों में कीमत है । वर्षा में एक सप्ताह यहाँ निवास कर शान्ति सुख पाने हेतु आवश्यक धन जुटाने वर्ष भर तनावग्रस्त होकर भागना पड़ता है । अतः यह सुनिश्चित है की संसार से भागना पर्याय नहीं है ।
इसी का एक विकल्प है पद्म पत्रमिवाम्भसा याने जल में पद्म पत्र जैसा , जल में कमल के पत्ती जैसा जीवन । जल से घिरी परंतु जल से निर्लिप्त । उदाहरणार्थ पद के विषय में सोंचे । पद राजनैतिक, प्रशासनिक, औद्योगिक, सामाजिक या साम्प्रदायिक हो , कोई पद निरंतर नहीं । ना पद पर बिठाई गयी व्यक्ती निरंतर । पद पर बैठें तो कैसे ?? भरत मुनी हमें राह दिखाते हैं । भरत ने अयोध्या पर चौदह वर्ष शासन किया । भरत ही अयोध्या का महाराज था भी और ना भी । कैसे ? "यह श्री राम सिह्मासन है '' इस दृढ संकल्प के साथ भरत ने राज्य शासन किया । और उत्तम शासन भी दे सका । क्यों की अपनी छोटी सी गलती भी श्री राम के कीर्ति भंग का कारण बनेगी । है तो यह श्री राम का शासन । इसी प्रकार श्री छत्रपति शिवाजी महाराज की जीवनी में भी एक प्रसंग है । श्री शिवाजी महाराज के गुरु समर्थ श्री रामदास ने शिवाजी महाराज के ह्रदय में सूक्ष्म अहंकार झलकते हुए देखा । "मैं शासक हूं । मैं जीवों का भरता हूं । सभी के जीवन का भरण पोषण मेरे ही द्वारा हो रहा है ।" यह चिंतन इस अहंकार का आधार था । श्री शिवाजी महाराज अपने गुरु को दक्षिणा प्रदान करने की इच्छा व्यक्त की । गुरु से स्वेच्छानुसार माँगने की विनंती की । श्री समर्थ रामदास ने राज्य ही माँगा । शिवाजी ने तत्क्षण अर्घ्य प्रदान कर राज्य को श्री गुरु के हस्त सौंप दिया । और उठकर चलने लगे । "कहां चले ?" श्री गुरु ने पूंछा । "शेष जीवन वन में बिता लूँगा " । श्री शिवाजी ने उत्तर देते हुए कहा । समर्थ श्री रामदास ने उन्हें रोककर कहा , "नहीं । शासन तो तुम्हें ही करना है । राज्य मेरा है । मेरे नाम से, मेरी ओर से तुम्हें गद्दी पर बैठना है ।"
उस में रहो परंतु उसे तुम्हारे भीतर प्रवेश करने मत दो । उससे घिरे रहो परंतु तुम्हे घेरकर अपने में डुबोने की अनुमति उसे ना देना । यह कठिन है । ना । यह एक आह्वान है । अभ्यास , कठोर अभ्यास एवं प्रज्ञा नित्य प्रज्ञा , क्षण क्षण प्रज्ञा बस इन दोनों से पद्म पत्र सामान जीवन संभव है ।
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