ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - ४८
நவ த்வாரே புரே தேஹீ ... (அத்யாயம் 5 - ஶ்லோகம் 13)
Nawadwaare Pure Dehee ... (Chapter 5 - Shlokam 13)
अर्थ : नव द्वारों वाले नगर में देही ..
हिन्दु ग्रन्थों मे यह भी एक सुन्दर उपमा है | यहां उल्लिखित नव द्वार वाला नगर है अपना शरीर | इस शरीर मे नौ द्वार हैं | ये सभी द्वार बाहर की ओर , संसार की ओर खुलने वाले द्वार हैं | इन्हीं द्वार के माध्यम से "स्व" बाहर निकलता है , संसार मे विचरता है और अपने आप को उसी द्वार से बान्धकर संसार के विषयों के संग भोग का अनुभव लेता है | नव द्वार वाला यह नगर देह भी कहा जाता है |
यहां देही शब्द "स्व" को दर्षाता है | देही इस नगर का , इस देह का निवासी कहा जा रहा है | देह एवं देही ये शब्द सहज इस तत्त्व को सुदृढ करते हैं की ये दोनों एक दूसरे से भिन्न हैं | वह निवास है और यह निवासी | वह जड ढांचा है और यह जीव | निवासी देह रूपी इस निवास मे , नव द्वार वाला नगर मे रहता है | और उससे भिन्न है | "स्व की प्राकृतिक वृत्ती है की वह अज्ञान वश अपने आप को जड निवास के साथ ऐक्य कर लेता है | जड ढांचा मे उत्पन्न प्रत्येक विकार से , क्षय से , खिन्न हो जाता है | सिमेन्ट और रेत से बनी ढांचा के विषय मे भी यह सत्य है | जड ढांचा मे तो विकार , नाश , प्राकृतिक है | जो अपने आप को उस से भिन्न , उस मे रहने वाला केवल एक निवासी ऐसा अनुभव करता है , जानता है , वह शान्त है , सुखी है | ढांचा मे उठने वाले विकारों से डगमगा नहीं जाता | वह भले ही ढांचा मे उत्पन्न विकारों को दुरुस्त करने के प्रयत्न करें | वह भले ही स्व को प्राप्त ढांचा को अच्छी स्थिती मे रखने के प्रयास करें | उसके ये प्रयत्न अज्ञान जन्य बन्धन से मुक्त हैं | 'यह मैं हूं ऐसी भावना से रहित हैं |
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