ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - ४९
विद्या विनय सम्पन्ने ब्राह्मणे। . (अध्याय ५ - श्लोक १८)
வித்யா விநய ஸம்பன்னே ப்ராஹ்மணே ... (அத்யாயம் 5 - ஶ்லோகம் 18)
Vidyaa Vinaya Sampanne Braahmane .. (Chapter 5 - Shlokam 18)
अर्थ : विद्या एवं विनय सम्पन्न ब्राह्मण ....
इस शब्दावली में दो शब्दों का प्रयोग है | विद्या एवं विनय | जानने योग्य , सीखने योग्य सभी विद्या है | अपना यह संसार , इस में स्थित जीव जन्तु और स्थावर , उन्हें प्राप्त शरीर , मन , गुण , अनेकानेक कर्म , कर्मों को करने के विविध तरीकें , प्राप्त अनेक क्षमतायें , अपने इस असीम सृष्टी में स्थित अन्य ग्रह, नक्षत्र आदि आदि अनेकानेक विद्या क्षेत्र हैं | विद्या इस शब्द का मूल है वेद | जानने योग्य सभी विषय वेद में हैं | एक काल में केवल वेद (पुस्तक) ही विद्या का विषय रहा है |
विद्या प्राप्ति से ज्ञान प्राप्त होगा ही यह सुनिश्चित नहीं है | ज्ञान प्राप्ति के मार्ग में बाधक है अकड़ खड़ा मैं | अहङ्कार अंतिम बाधा है | ज्ञान प्राप्ति या परमात्मा से ऐक्य के लिए इस बढ़ा को पार कर अनाहङ्कारि होना आवश्यक है | अनाहङ्कार यह अन्तः स्थिति है | उक्त स्थिति का बाह्य प्रकटन विनय या विनम्रता है | अनाहङ्कार सूक्ष्म अवस्था है | विनय अपने शरीर और वाक् में प्रकट होता है , बिना अकड़ का शरीर एवं मृदु बोली | मैं जानता हूँ ; मैं विशेष हूँ ; ऐसी जागृत धारणायें अहङ्कार के पोषक हैं | मैं जानकार हूँ इस धारणा को , क्यों , मैं का ही अभाव विनय | श्री कृष्ण इस शब्दावली में इन दोनों शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं , विद्या एवं अनाहङ्कारी विनय | इन दोनों से युक्त ब्राह्मण का यहाँ उल्लेख है |
इस शब्दावली में दो शब्दों का प्रयोग है | विद्या एवं विनय | जानने योग्य , सीखने योग्य सभी विद्या है | अपना यह संसार , इस में स्थित जीव जन्तु और स्थावर , उन्हें प्राप्त शरीर , मन , गुण , अनेकानेक कर्म , कर्मों को करने के विविध तरीकें , प्राप्त अनेक क्षमतायें , अपने इस असीम सृष्टी में स्थित अन्य ग्रह, नक्षत्र आदि आदि अनेकानेक विद्या क्षेत्र हैं | विद्या इस शब्द का मूल है वेद | जानने योग्य सभी विषय वेद में हैं | एक काल में केवल वेद (पुस्तक) ही विद्या का विषय रहा है |
विद्या प्राप्ति से ज्ञान प्राप्त होगा ही यह सुनिश्चित नहीं है | ज्ञान प्राप्ति के मार्ग में बाधक है अकड़ खड़ा मैं | अहङ्कार अंतिम बाधा है | ज्ञान प्राप्ति या परमात्मा से ऐक्य के लिए इस बढ़ा को पार कर अनाहङ्कारि होना आवश्यक है | अनाहङ्कार यह अन्तः स्थिति है | उक्त स्थिति का बाह्य प्रकटन विनय या विनम्रता है | अनाहङ्कार सूक्ष्म अवस्था है | विनय अपने शरीर और वाक् में प्रकट होता है , बिना अकड़ का शरीर एवं मृदु बोली | मैं जानता हूँ ; मैं विशेष हूँ ; ऐसी जागृत धारणायें अहङ्कार के पोषक हैं | मैं जानकार हूँ इस धारणा को , क्यों , मैं का ही अभाव विनय | श्री कृष्ण इस शब्दावली में इन दोनों शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं , विद्या एवं अनाहङ्कारी विनय | इन दोनों से युक्त ब्राह्मण का यहाँ उल्लेख है |
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