ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - ५१
न प्रहृष्येत प्रियम् प्राप्य नो द्विजेत प्राप्य च अप्रियम् | (अध्याय ५ - श्लोक २०)
ந ப்ரஹ்ருஷ்யேத் ப்ரியம் ப்ராப்ய நோத்விஜேத் ப்ராப்ய ச அப்ரியம் ... (அத்யாயம் 5 - ஶ்லோகம் 20)
Na Prahrushyet Priyam Praapya Nodwijet Praapya cha Apriyam .. (Chapter 5 - Shlokam 20)
ந ப்ரஹ்ருஷ்யேத் ப்ரியம் ப்ராப்ய நோத்விஜேத் ப்ராப்ய ச அப்ரியம் ... (அத்யாயம் 5 - ஶ்லோகம் 20)
Na Prahrushyet Priyam Praapya Nodwijet Praapya cha Apriyam .. (Chapter 5 - Shlokam 20)
अर्थ : प्रिय की प्राप्ति पर हर्षित ना होना और अप्रिय की प्राप्ति पर शोकान्वित ना होना ।
गीता में श्री कृष्ण पुनः पुनः इस विचार का आग्रह करते दिखते हैं । . मन की समता .. समत्त्व यही गीता का सार गर्भे विचार है ऐसा कहना अनुचित ना होगा । ..
प्रिय की प्राप्ति पर सुखी होना या हर्षित होना मनुष्य के लिए सहज स्वभाव है । उसी प्रकार अप्रिय की प्राप्ति पर दु:खी होना भी स्वाभाविक है । परन्तु क्या ये हर्ष एवं दु:ख निरन्तर है ? हाँ । यह सत्य है की प्रिय या अप्रिय की प्राप्ति के उस क्षण में सुख या दु:ख अवश्य अनुभव होते हैं । परन्तु यह भी सत्य है की इस हर्ष और दु:ख कुछ क्षणों में या कुछ घण्टों में या अधिकाधिक एक दो दिनों में मिट जाते हैं ।
क्षण भर के लिए उत्पन्न होकर लीन होने माया मिथ्या में , जल तरङ्ग में डूबने का प्रयास मूढ़ता या बचपना ही कहा जा सकता है । अज्ञान अवस्था से ऊपर उठो । बचपना से बढ़कर जीवन में परिपक्क्व बनो । यही श्री कृष्ण का इस शब्दावली में अभिप्राय है । डूबना हो तो शाश्वत परम में डुबना यही श्रेयस्कर है ।
Comments
Post a Comment