ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - ५३
ஸுஹ்ருதம் ஸர்வ பூதானாம் ... (அத்யாயம் 5 - ஶ்லோகம் 29)
Suhrudam Sarva Bhootaanaam ... (Chapter 5 - Shloka 29)
अर्थ : सुहृद , हृदय में अच्छी भावना रखने वाला ... सभी जीवों के लिए |
हृद ... सुहृद अच्छा भला ह्रदय । ह्रदय तो शरीर का एक अंग है आँख , हाथ , फेफड़ा जैसे । संकुचन एवं विस्तार करते हुए लप - टप लप - टप धड़कने वाला । हर संकुचन में रक्त को बाहर (शरीर में ) भेजने वाला , प्रत्येक विस्तार में रक्त को (शरीर से ) अंदर खींचने वाला एक यन्त्र है । मनुष्य शरीर में अंग जैसे रक्त और मांस से बना हुआ यन्त्र । मनुष्य जीवन में अंतिम श्वास तक कार्यरत एक यन्त्र । इसमें कोई संदेह नहीं । तो सुहृद क्या हुआ ?
ह्रदय शरीर में एक यन्त्र तो है परन्तु उससे कुछ आगे भी । जिस समय अपने भीतर भय , क्रोध , काम , लज्जा , क्षोभ , करुणा , जैसी भावना उठते हैं तो ह्रदय का चलन , ह्रदय की धड़कन तेज होती है । इसी कारण ह्रदय भावनाओं भण्डार भी माना जाता है ।
सुहृद .. अच्छी भावना युक्त ह्रदय । ह्रदय जिसमे स्नेह , करुणा , क्षमा , धैर्य , आदि भावनाओं से भरा ह्रदय ।
इस शब्दावली का प्रयोग कर परमात्मा का वर्णन रहे हैं श्री कृष्ण । की वह सुहृद है और सर्व जीव जन्तुओं के प्रति । श्री गीता में अन्य सन्दर्भ में परमात्मा का ही वर्णन करते हुए श्री कृष्ण हृद्स्थ कहते हैं । ह्रदय में स्थिर बसने वाला । स्वयं परमात्मा का निवास स्थान होकर भी हम मनुष्यों के ह्रदय "सुहृद" रो नहीं ?? यदि है भी तो सर्व भूतानां नहीं । सभी जीव जन्तुओं के प्रति सुहृद नहीं । ऐसा क्यूँ ? कई जन्मों में एकत्रित वासनाओं के बन्धन से कलंकित जो है । संसारी आकर्षणों में लिप्त , काम , क्रोध , मेरा - तुम्हारा , आदि आवेशों से पूर्ण ह्रदय आंशिक मात्रा में ही "सुहृदं सर्व भूतानाम" है ।
परमात्मा के दिशा में प्रयाण करना ही संसारिक जीवन का हेतु बताया गया है । करना क्या है ? शनैः शनैः अपने ह्रदय को सुहृद बनाना । दुर्भावनाओ का नाश कर अच्छी भावनाओं ह्रदय में खिलने देना यही परमात्म प्राप्ति के और यात्रा है । इस क्षण में भी सुहृद है परन्तु कुछ दो चार व्यक्तियों के प्रति , एक परिवार के प्रति , एक समुदाय के प्रति , एक भाषा , प्रांत या सम्प्रदाय के प्रति । अभ्यास और वैराग्य के सहयोग से इसे विस्तार कर सर्व भूतानां के ओर प्रगत होना ही परमात्म प्राप्ति है । अधिक अंश में सुहृद बनना , सर्व समावेशक बनना ही , परमात्मा के सामीप्य का गणक है ।
ह्रदय शरीर में एक यन्त्र तो है परन्तु उससे कुछ आगे भी । जिस समय अपने भीतर भय , क्रोध , काम , लज्जा , क्षोभ , करुणा , जैसी भावना उठते हैं तो ह्रदय का चलन , ह्रदय की धड़कन तेज होती है । इसी कारण ह्रदय भावनाओं भण्डार भी माना जाता है ।
सुहृद .. अच्छी भावना युक्त ह्रदय । ह्रदय जिसमे स्नेह , करुणा , क्षमा , धैर्य , आदि भावनाओं से भरा ह्रदय ।
इस शब्दावली का प्रयोग कर परमात्मा का वर्णन रहे हैं श्री कृष्ण । की वह सुहृद है और सर्व जीव जन्तुओं के प्रति । श्री गीता में अन्य सन्दर्भ में परमात्मा का ही वर्णन करते हुए श्री कृष्ण हृद्स्थ कहते हैं । ह्रदय में स्थिर बसने वाला । स्वयं परमात्मा का निवास स्थान होकर भी हम मनुष्यों के ह्रदय "सुहृद" रो नहीं ?? यदि है भी तो सर्व भूतानां नहीं । सभी जीव जन्तुओं के प्रति सुहृद नहीं । ऐसा क्यूँ ? कई जन्मों में एकत्रित वासनाओं के बन्धन से कलंकित जो है । संसारी आकर्षणों में लिप्त , काम , क्रोध , मेरा - तुम्हारा , आदि आवेशों से पूर्ण ह्रदय आंशिक मात्रा में ही "सुहृदं सर्व भूतानाम" है ।
परमात्मा के दिशा में प्रयाण करना ही संसारिक जीवन का हेतु बताया गया है । करना क्या है ? शनैः शनैः अपने ह्रदय को सुहृद बनाना । दुर्भावनाओ का नाश कर अच्छी भावनाओं ह्रदय में खिलने देना यही परमात्म प्राप्ति के और यात्रा है । इस क्षण में भी सुहृद है परन्तु कुछ दो चार व्यक्तियों के प्रति , एक परिवार के प्रति , एक समुदाय के प्रति , एक भाषा , प्रांत या सम्प्रदाय के प्रति । अभ्यास और वैराग्य के सहयोग से इसे विस्तार कर सर्व भूतानां के ओर प्रगत होना ही परमात्म प्राप्ति है । अधिक अंश में सुहृद बनना , सर्व समावेशक बनना ही , परमात्मा के सामीप्य का गणक है ।
Comments
Post a Comment