ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - ५४
अनाश्रितः कर्म फलम । (अध्याय ६ - श्लोक १)
அனாஶ்ரிதஹ கர்ம ஃபலம் ... (அத்யாயம் 6 - ஶ்லோகம் 1)
Anaashritah Karma Phalam ... (Chapter 6 - Shlokam 1)
अर्थ : कर्म फल पर आश्रित न रहकर ...
अनाश्रितः कर्म फलम .... कर्म फल पर आश्रित न रहकर .. इस शब्दावली को देखते ही हम समझ पाते हैं इस का उत्तरार्ध अवश्य होगा । हाँ , है । कार्यं कर्म करोति यः .. स संन्यासी । जो कार्य करता हो वह संन्यासी ।
गीता में पुनः पुनः श्री कृष्ण द्वारा आग्रह किये गए कुछ विचारों में यह विचार भी है । भगवद्गीता का सारगर्भ विचार यही है ऐसा कहा गया तो अतिशोक्ति नहीं होगी ।
यह कठिन अवश्य है । परन्तु सत्य है । इसलिए नहीं की यह असम्भव है परन्तु इसलिए की हम इस प्रयोजन में दुर्बल हैं । अपने आप को इस हेतु सक्षम बनाने की दिशा में तीन सीढ़ियाँ हैं । (१) ... यह समझ लें की कर्मफल का चिन्तन अपने कर्म को कैसा प्रभावित करता है । (२) ... नियोजित चेष्टायें , प्रज्ञा पूर्वक प्रयोग और अथक अभ्यास । (३) ... इस की अंतरात्मा में अनुभूति हमें प्राप्त हो जाए । बौद्धिक रीति से समझना पर्याप्त नहीं । अंतःकरण की गहराई में अनुभूति होनी चाहिए ।
कर्मफल का विचार कर्म पर कैसा प्रभाव छोड़ जाता है ? कर्म की गति धीमी होती है । कार्यक्षमता घट जाती है । कार्य बिगड़ जाता है । कार्य थम जाता है । कुछ उदाहरणों से इसे समझने का प्रयास करें ।
बच्चे का लालन पोषण करना माता पिता का कर्त्तव्य कर्म है । बच्चे का बड़ा होना , पढ़ना , धन कमाना , माँ पिता की देखभाल करना आदि इस कर्म के संभावित फल हैं । लालन पोषण करते समय , यानी कर्म करते समय कर्म फल की चिंता हुई तो क्या होता है ? माँ पालना को झुलाते हुए लोरी गा रही हो और उस समय इस कर्म फल की चिन्ता हुई तो लोरी गाता हुआ मुँह अपने आप बंद हो जाता है । पालना झुलाते हुए हाथ अपने आप थम जाते हैं । स्तन पान कराते समय ये विचार आये तो ? बच्चे के मुँह से स्तन हट जाता है परन्तु चिंता में होश खोयी हुई अम्मा को पता नहीं । रोकर माँ को चिंता की दुनिया से बाहर खींच लाना पड़ता है ।
विद्यार्थी पढ़ता है । अभ्यास करता है । लिखकर देखता है । मनन करता है । समझने का प्रयास करता है । ये सब विद्यार्जन में उसके कर्म हैं । परिक्षा में अच्छे अंक पाना , अच्छे कॉलेज में प्रवेश पाना , अच्छी नौकरी मिलना , अच्छा वेतन और फलस्वरूप अच्छा जीवन ... कुछ फल हैं । कर्म करते उस क्षण में कर्मफल का विचार ... {इसे विचार कहना अनुचित होगा । विचार करने में स्वयं का योगदान होता है । यह तो स्वप्न दर्शन है जो बेहोश अवस्था में अपने आप होता है ।} कर्म फल के ये स्वप्न विद्यार्थी के आँखों को पुस्तक से हटा देते हैं और उसका अभ्यास क्रम थम जाता है ।
उसका प्रियजन रोग ग्रस्त है और वह रोगी की सेवा सुश्रुषा में लगा हुआ है । रोगी रोग मुक्त हो जाए और अपने नियत जीवन पथ में लग जाए या रोगी मर जाए । ये ही कर्मफल हैं । ये कर्मफल की प्राप्ति से उक्त व्यक्ति सेवा सुश्रुषा से मुक्त होकर अपने नियमित जीवन पथ में लग सकता है और स्वयं के इच्छा पूर्ती की ओर दौड़ना पुनः प्रारम्भ कर सकता है । सुश्रुषा के उस क्षण में इस कर्म फल के विचार आ जाए तो ? चिढ़चिढ़ापन और तनाव युक्त हो जाएगा और सुश्रुषा कर्म जो सस्नेह और सप्रेम होनी चाहिए , बिगड़ जाती है ।
इस दिशा में नियोजित प्रयोग क्या हो सकते हैं ? दैनिक जीवन में कम से कम एक कर्म ऐसा करें , जिस में कोई फल दिखता ना हो । तुलसी के पौधे को पानी देना ; अपरिचित व्यक्ति की तात्क्षणिक आवश्यकता की पूर्ती करना और भूल जाना ; सार्वजनिक स्थान पर वृक्षारोपण जैसा सेवा कर्म में लगना ; अपना चेहरा या पहचान खोकर किसी सामूहिक जनहित कार्य में लगना ; भजन या सत्संग में सम्मिलित होना ; आदि । ब्राह्मण के लिए दैनिक त्रिकाल संध्या वंदन एक उत्कृष्ट प्रयोग है । गोसेवा या सूर्य के लिए अर्ग्य देना जैसे कर्म भी इस दिशा में सहायक हो सकते हैं । प्रयोग जैसा भी हो , बस नित्य नियमित हो , और दूर दूर तक फल की कोई संभावना ना हो ।
तत्पर अभ्यास से अनुभूति होगी । अपने आप होगी । फिर क्या ? तत्क्षण में जीने का आनंद , केवल कर्म करने का आनंद , कर्म में मग्न होने का आनंद , याने अनाश्रित; कर्म फलं कार्य करने का आनंद प्राप्त होगा । यह आनंद कर्म फल नहीं है । यह तो अपना सत्य स्वरुप है ।
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