ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - ५५
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानं अवसादयेत् । (अध्याय ६ - श्लोक ५)
உத்தரேதாத்மனாத்மானம் நாத்மானம் அவஸாதயேத் ... (அத்யாயம் 6 - ஶ்லோகம் 5)
Udhdharedaatmanaatmaanam Naatmaanam Avasaadayet ... (Chapter 6 - Shloka 5)
अर्थ : स्वयं का उद्धार करें । स्वयं का पतन ना होने दें ।
उन्नति या प्रगति जीवन भर चलने वाले क्रम होने चाहिए | सामान्यतः हम अपनी तुलना अन्यों से करते हैं | फलस्वरूप उनसे स्पर्धा में लग जाते हैं | स्पर्धा बहिरंग हो सकती है जैसे नगरों के मार्ग पर चलनी वाली - 'वेग - स्पर्धा' | स्पर्धा सूक्ष्म हो सकते हैं जो केवल अपने अन्तः-मन में चलती है | ऐसी स्पर्धा के विषय अन्यों की त्वचा का वर्ण , निवास स्थान , सम्माजिक प्रतिष्ठा , यौवन जैसे। कुछ भी हो सकता है | स्वयं को भी वह प्राप्त हो जाए ऐसा आवेश मन में उत्पन्न हो जाता है और मन को स्पर्धा में उचकाता है | यह स्पर्धा और उससे प्रेरित अपने प्रयत्न दीर्घ काल तक , कई वर्षों तक भी चल सकते हैं | हमें प्राप्त जीवन रूपी मूल्यवान काल इस अल्प भावना में , व्यर्थ प्रयत्नों में गँवाया जाता है | अपना जीवन साधना मय न बनकर अन्यों से तुलना - ईर्ष्या - स्पर्धा - तनाव - अपयश - असहाय - दुःख ऐसे क्रम में उठने वाले भ्रमर में फंस जाता है |
तुलना हो तो स्वयं से ही हो | स्वयं की सद्य स्थिति से हो | स्पर्धा अनिवार्य हो तो वह अपने आप से हो | स्व-प्रगति इस हेतु में बस यह स्पर्धा प्रेरक हो जाए | "गत बार की तुलना में अब की बार मेरा कार्य और अच्छा हो जाए " | "मेरी अब की स्थिति बस एक कदम बेहतर हो जाए" | इसमें बाह्य केंद्रित उद्वेग न होने के कारण जीवन भर शनैः शनैः उन्नति संभावना है |
अन्यों से तुलना और स्पर्धा में अपना मानस ईर्ष्या , तनाव , भय , हीं भावना , अपयश से उत्पन्न दुःख आदि अधम भावनाओं का भण्डार बन जाता है | तुलना स्वयं से ही हो तो , ऐसी अधम भावनाओं के लिए मन में कोई स्थान नहीं |
स्थूल - सूक्ष्म , लौकिक आध्यात्मिक आदि सभी विषयों में स्वयं की प्रगति पूर्णतया स्वयं के ही हाथ में है | अन्यों का इसमें किसी भी प्रकार का योगदान नहीं है | धन , ऐश्वर्य , प्रभाव , विद्या , पद , सामर्थ्य , गुण संगीत जैसे कला में नैपुण्य , वक्तृत्व जैसी क्षमतायें आदि सभी विषयों पर यह लागू है | श्री कृष्ण का तात्पर्य भी इस शब्दावली में यही है | "आत्मन आत्मानम् " .. स्वयं की उन्नति स्वयं के ही प्रयत्नों से" ... छोटे मात्रा में क्यों ना हो , उन्नति की दिशा में प्रत्येक पग जीवन में साधना है |
जब ये कह रहे हैं की , "अपने आप की अवनति ना कराओ , अपने आप को ना गिराओ" , श्री कृष्ण का यही कहना है की , "अन्यों से तुलना , ईर्ष्या एवं स्पर्धा के चक्र में ना फंसो " ; "अमूल्य अपने जीवन काल को व्यर्थ चेष्टाओं में ना गँवाओ" ; "अधम भावनाओं के लिए अपने मन में स्थान ना दो" .... आदि आदि |
श्री कृष्ण का कहना यह भी है की , "उन्नती की ओर प्रयत्न करना हो या अवनति के मार्ग पर उतरना हो , बस तुम स्वयं ही कर सकते हो" | अपने स्थिति के मात्र तुम स्वयं जवाबदार हो | अन्य कोई नहीं |
Comments
Post a Comment