ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - ५६
ஆத்மைவாத்மனா ஜிதஹ் பந்துஹு ... (அத்யாயம் 6 - ஶ்லோகம் 6)
Aatmaivaatmanaa jitah Bandhuhu ... (Chapter 6 - Shloka 6)
अर्थ : जिसने अपने आप को जीता हो वही स्वयं का बंधू है ।
आत्मैवात्मना जितः - बन्धुः । बंधू याने मित्र । जितः याने वह जिसने जीता हो । आत्मैवात्मना याने स्वयं को स्वयं द्वारा । अपने आप को ।
अपने आप को जीता हुआ याने क्या ? अपने शरीर को जीता हुआ ? अपने शरीर को वश में किया हो जो ? क्या हमें उपलब्ध शरीर अपने वश में है ? क्या यह शरीर हमारी इच्छानुसार बरतती है ? हम जो निर्णय लेते हैं , उन निर्णयों के क्रियान्वयन करती है ? एक स्थान में या एक अवस्था में रह जाओ ऐसी अपेक्षा किया तो उसे निभाती है ? क्या अपना देह अनावश्यक हलचलों के बिना रह सकता है ? घन शरीर है इसलिए सीढ़ियाँ चढ़ नहीं सकता ... भूमि पर बैठ नहीं सकता ... बड़ी तोंद है इसलिए सामने झुक नहीं सकता ... श्वास कम पड़ता है इसलिए किसी कार्य में लम्बे समय तक लग नहीं सकता ... हाथ अपनी मनमानी करता है .. खुजली ना हो तो भी खुजाने में लगता है ... नॉक , दांत या अन्य द्वारों में घुस साफ़ करने में तल्लीन जाता है .. जांघ या पग स्वेच्छा से हिलते रहते हैं ... टी वी पर आध्यात्मिक प्रवचन करने वाले एक प्रसिद्ध व्यक्ति हैं , बोलते समय जिनका पग इतना वेग से हिलता है की हमारा ध्यान उनके प्रवचन विषय से भटक कर उनके पग पर चला जाता है ।
अपने आप को जीता हुआ याने क्या ? अपने शरीर को जीता हुआ ? अपने शरीर को वश में किया हो जो ? क्या हमें उपलब्ध शरीर अपने वश में है ? क्या यह शरीर हमारी इच्छानुसार बरतती है ? हम जो निर्णय लेते हैं , उन निर्णयों के क्रियान्वयन करती है ? एक स्थान में या एक अवस्था में रह जाओ ऐसी अपेक्षा किया तो उसे निभाती है ? क्या अपना देह अनावश्यक हलचलों के बिना रह सकता है ? घन शरीर है इसलिए सीढ़ियाँ चढ़ नहीं सकता ... भूमि पर बैठ नहीं सकता ... बड़ी तोंद है इसलिए सामने झुक नहीं सकता ... श्वास कम पड़ता है इसलिए किसी कार्य में लम्बे समय तक लग नहीं सकता ... हाथ अपनी मनमानी करता है .. खुजली ना हो तो भी खुजाने में लगता है ... नॉक , दांत या अन्य द्वारों में घुस साफ़ करने में तल्लीन जाता है .. जांघ या पग स्वेच्छा से हिलते रहते हैं ... टी वी पर आध्यात्मिक प्रवचन करने वाले एक प्रसिद्ध व्यक्ति हैं , बोलते समय जिनका पग इतना वेग से हिलता है की हमारा ध्यान उनके प्रवचन विषय से भटक कर उनके पग पर चला जाता है ।
शरीरम आद्यं खलु धर्म साधनम । शरीर मात्र एक उपकरण है । धर्म मय हमारा जीवन हो और धर्म रक्षण इस हेतु से हमारे प्रयत्न हो , बस इसी साधना के लिए शरीर एक साधन है । उपकरण अपने वश में हो यही अपेक्षा है । अपेक्षित एवं निर्धारित कार्यो को करें , कुशलता पूर्वक करें तदनुकूल उपकरण रहें ।
अपने आप को जीता हुआ याने क्या ? अपने इन्द्रियों को जीता हुआ ? अपने इन्द्रियों को जिसने वश किया हो वह ? क्या अपने आँख वही दृश्य देखते हैं जो हम चाहते हैं ? क्या अपने कान वही विषय सुनते जिसे हम समझना चाहते हो ? क्या हमारी जिह्वा वही रुचि की लालसा रखती है जो हमारे लिए हितकारक हो ? क्या अपने इन्द्रिय हमारे लिए अहितकारी , हमारे लिए अनुपयोगी विषयों की अनदेखा करती हैं ?
मन हमारा छटा इन्द्रिय है । क्या मन अपने वश में है ? या इधर उधर भटकता रहता है ? क्या अपना मन उस विषय या कार्य में केंद्रित रहता है जिसमे हम रहना चाहते हैं ? क्या भय , काम , क्रोध जैसी भावना में मग्न मन विचलित होकर हमें अपने कार्य से बहा देता है ?
क्या चिंतन अपने वश में है ? क्या उपयोगी चिंतन राह भटककर स्वप्न दर्शन , चिंता , शोकानुभव , आदि में फंस जाता है ?
ये सभी अपने वश में हो , जाए इनपर हमारा संपूर्ण आधिक्य हो जाए तो हम आत्मैवात्मना जितः होंगे । उस अवस्था में हम स्वयं के मित्र / बंधू बनते हैं ।
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