ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - ५७
सम बुद्धिर्विशिष्यते ... (अध्याय ६ - श्लोक ९ )
ஸம புத்திர் விஶிஷ்யதே ... (அத்யாயம் 6 - ஶ்லோகம் 9)
Sama Buddhir Vishishyate ... (Chapter 6 - Shloka 9)
अर्थ : सम बुद्धि विशेष है । ...
समत्व .. समत्व .. श्री कृष्ण द्वारा गीता में पुनः पुनः प्रस्तुत किये गए विचारों में यह विचार महत्त्वपूर्ण है ।
मनुष्य की बुद्धि तीन प्रधान विषयों से समत्व या संतुलन खोती है । वस्तु , अनुभव और मनुष्य ।
संसारी जीवन याने अनुभवों का ढेर । अनुभव प्राप्त करना जन्म से प्रारंभ होता है और अंतिम श्वास निकलते तक चालु रहता है । अनुभव अनिवार्य हैं । अनुभव प्राप्त करें , उनमे से सीखें और सद्गति की ओर अपनी उन्नति करें तो अच्छा । परन्तु सामान्यतः ऐसा होता नहीं । हमारा मन अनुभवों को अनुकूल , प्रतिकूल , मीठे , कटु , हितकारी , अहितकारी , सुखद , दू:खद आदि विशेषण देकर विभागों में बांटता है । कुछ अनुभव मिलें ऐसी इच्छा करता है । अन्य अनुभव न मिलें ऐसी प्रार्थना करता है । परन्तु असंभव है उसके ये इच्छाएं । फलस्वरूप मन का समत्व खो जाता है ।
ऐसे ही , वस्तुओं को भी ऊँचा नीचा , श्रेष्ट कनिष्ट , मूल्यवान मूल्यहीन ऐसे विभाजित कर , ऊँचे वस्तु प्राप्त करने का काम मन में जगाने से मन का समत्व मिट जाता है ।
श्रेष्ट समझी जानी वाली वास्तु प्राप्त हो जाए ऐसी तीव्र इच्छा से प्रेरित हो कर अपनी क्षमता से अधिक भटक कर चेष्टा करने के कारण मन शान्ति खोकर संतुलन बिगाड़ लेता है ।
श्रेष्ट समझी जाने वाली वस्तु खो जाती है या नष्ट हो जाती है तो मन का संतुलन भी नष्ट हो जाता है ।
अन्यों को प्राप्त वस्तुओं को देख मन मे जलन या ईर्ष्या उत्पन्न होने के कारण मन में समत्व मिटता है ।
अन्यों से तुलना कर अपने आप को हीन या श्रेष्ट पाने के कारण मन का संतुलन मिट जाता है ।
अंक देकर अन्यों के मूल्यांकन कर , तुलना के आधार पर भेद भाव करने के कारण मन अपना समत्व खोता है ।
"यह (मान , मर्यादा , स्वागत , सत्कार , भेंट , धन आदि ) प्राप्त करने की अर्हता मुझ में है " ऐसा समझ उसे न देने वाला , अलप मात्रा मे देने वाला , अधिक मात्रा में देने वाला ऐसे व्यक्तियों के विभाजन कर फलतः मन अपना संतुलन खोता है ।
श्री कृष्ण का कहना है , "अनुभवों को यथावत स्वीकारें बस । विशेषण जोड़कर उन्हें न बांटे ।
वस्तुओं को मिटटी , स्वर्ण , महँगा , सस्ता आदि विशेषण देने से बचें और मन के संतुलन को पोषित रखें ।
मनुष्यों को साधू , पापी , मित्र , शत्रु , उदासीन , सुहृद , मध्यस्थ , द्वेषी जैसे विविध संज्ञा न देकर , उन्हें स्तम्भों में न बांटकर अपने मन का समत्व को संभालना है" ।
सम बुद्धि विशेष है ।
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