ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - ६०
யதா தீபோ நிவாதஸ்தோ ... (அத்யாயம் 6 - ஶ்லோகம் 19)
Yathaa Deepo Nivaatastho ... (Chapter 6 - Shloka 19)
अर्थ : जहाँ हवा न हो , वहाँ स्थित दीप की ज्योत जैसे ....
दीप जलने के लिए प्राण वायु की आवश्यकता है । किन्तु , यदि वायु चलती है , (चलती वायु को हवा कहते हैं ।) दीप की ज्योति हड़बड़ा जाती है । थर थर कांपने लगती है । वायु का चलन तेज हुआ तो ज्योति मिट जाती है । ऐसा स्थान जहाँ हवा न हो , दीप ज्योति स्थिर, निश्चल , और शांत रहती है । केवल प्रकाश रहता है । ज्योति अपना अस्तित्व दर्ज नहीं करती ।
यह एक उपमा है । गीता में ऐसे कई उपमा प्रयुक्त किये गए हैं । (ज्ञानेश्वरी मराठी में गीता का विश्लेषण ग्रन्थ है । श्री संत ज्ञानेश्वर द्वारा लिखी गयी है । उसमे श्रेष्ट उपमाओं का प्रयोग है , अधिक संख्या में ।) यह उपमा मन के लिए प्रयुक्त है । मनस स्थिर और शान्त हो यही अपेक्षा । सामान्यतः मन चञ्चल है । एक विषय में लम्बा समय रहता नहीं । बन्दर जैसे इधर से उधर उछलता रहता है । संस्कृत में मनो वेग , यह शब्द मन की इस वृत्ती का निर्देश करता है । मन का तेज प्रकाश से अधिक है । प्रकाश को एक स्थान से दुसरे स्थान पहुँचने में , क्षण भर ही सही , समय लगता है । मन तो तत्क्षण पहुँच जाता है । अब इस विषय पर है । उसी क्षण दूसरा विषय पर कूद जाता है । इस क्षण यहाँ है अगले ही क्षण पृथ्वी के दुसरे छोर पर पहुँच जाता है । अन्य ग्रहों में पहुँच जाता है । क्यूँ ! ब्रह्माण्ड को पार कर जाता है । संसार में कोई भी कार्य सरल है । मन को नियंत्रित करना छोड़ । मनुष्य के लिए सर्वाधिक कठिन कार्य , सब से बड़ा आह्वान यदि कुछ हो तो वह मन को नियन्त्रण करना ही है ।
आध्यात्मिक साधना का फलस्वरूप स्थिर , शान्त , निश्चल मन ही है । दीपक जलने के लिए वायु की आवश्यकता है । संसार के विषयों के साथ सम्बन्ध लौकिक जीवन में अपरिहार्य है । कोई भी मनुष्य इस सम्बन्ध के बिना रह नहीं सकता । आध्यात्मिक शब्द कोष में मनो-नाश एक शब्द है । इस का अर्थ मन को मारना नहीं । इस का अर्थ ऐसा पुरुष नहीं जो कठोर है , जिस पर संसारी अनुभव निष्प्रभावी है । योगी का मन पत्थर जैसा नहीं । वह भी सुहृद है । उसमे भी करुणा है । आंसू हैं । उसकी जिह्वा भी एक अच्छी कॉफी की या अच्छे फल का स्वाद का आनन्द लेती है । वह भी निसर्ग का सुन्दर दृश्य देखकर वाह ! वाह ! करता है । (सत्य तो यह है की उथल पुथल में फॅसे हम से एक योगी के इन्द्रिय अधिक सूक्ष्म है ।) परन्तु , वह इन्द्रिय और विषयों के सम्बन्ध से प्राप्त अनुभव द्वारा अपने भीतर उथल पुथल मचने नहीं देता । तूफ़ान उठने नहीं देता । चुने कुछ अनुभवों को पुनः पुनः भोगने की इच्छा भी नहीं करता । अन्य कुछ अनुभव प्राप्त ना हो ऐसी कामना भी । जैसे आये उन्हें स्वीकारता । ऐसी स्थिति में मन अपना अस्तित्व को दर्ज नहीं करता । मानो जैसे मन का नाश हो गया हो ! स्थिर ज्योति की उपमा इसी स्थिति का नर्देश कर रही है ।
इच्छा और द्वेष (ये दोनों भिन्न नहीं हैं । एक ही सिक्के के दो बाजू हैं ।) के अलावा भय भी मन को चञ्चल और अस्थिर बनाता है । इसी लिए , अभयम दैवी सम्पत कहा गया है (अध्याय १६) । चिन्ता भय का ही भिन्न अवतार है । एक संस्कृत सुभाषित है जिसका अर्थ है - "चिता और चिंता में बस एक बिंदु मात्र भेद है । एक जलाता है देह को और दूसरा मन को" । चिंता भी मन की स्थिरता का नाश करती है ।
राग रहित , चिंता रहित अभय मन को प्राप्त मनुष्य इस संसार में सक्रीय , प्रभावी , बहु आयामी जीवन जीते हुए भी अपने भीतर स्थैर्य और शान्ति भंग होने नहीं देता , स्थिर शान्त ज्योति जैसे ।
Comments
Post a Comment