ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - ६१
दुःख संयोग वियोगम योग .... (अध्याय ६ - श्लोक २३)
Du:kha Samyog Viyogam Yoga ... (Chapter 6 - Shloka 23)
து:க ஸம்யோக வியோகம் யோக ... (அத்யாயம் 6 - ஶ்லோகம் 23)
अर्थ : दुःख के संयोग (बन्धन) से वियोग (छूटना) ही योग है ।
दुःख के बंधन से छुटकारा पाओ । श्री कृष्ण का सुझाव । क्या दुःख हमें बांधता है ? हम ही दुःख को स्वयं से बांधकर रखते है । छोड़ने का मन होता नहीं । आगे और दुःख जुड़ते हैं । सभी को साँठकर बड़ा बोरा बन जाता है , जिसे हम जीवन भर अपने अन्दर ढोते हैं । हमारी स्थिति रस्ते का उस पागल जैसे हो जाती है जो अपने चारों ओर कूड़ा कचरा जमाकर उन्हें अपने साथ बाँध रखता है । उस पागल और हम में बहुत अन्तर नहीं है । उस पागल के पास कचरे के जो बोरे है , वे दृश्य हैं । हम ने दुःख के जो बोरे अपने अन्दर ढोया है , वे अदृश्य हैं , बस इतना ही अंतर है । परन्तु उन बोरों से अपने ये बोरे अधिक भारी हैं ।
ये दुःख के बोरे अन्यों के लिए अदृश्य हैं ऐसा कहना भी गलत होगा । हम तो , अवसर मिला , कोई हमारे सामने आया की उसके सामने ये बोरे खोलकर आलाप प्रारम्भ कर देते हैं । "बचपन मेरा बहुत कष्टमय रहा है" ; "मेरी सौतेली माँ ने मुझे बहुत दुःख दिया है" ; "मैं बीस वर्ष पहले मुम्बई आया , एक एक समय के भोजन के लिए कितना तरसा हूँ , तुम कैसे जानोगे ? तुम तो धनी बाप के बेटे हो" ; "मुझे जीवन में जितने कष्ट हैं , भगवान् करे , संसार में और किसी को न हो" : "मुझे दो लाख रुपये नष्ट हो गए । इसलिए मैं दुःखी हूँ" ; "एक बार ट्रेन में उत्तर की ओर गया । बाप रे बाप ! कितना कष्ट ? भक्कम भीड़ , हवा नहीं , भोजन नहीं" ; "कल रात्री भर बिजली नहीं रही । बड़ा कष्ट हो गया" । ऐसे कितने कितने आलाप विलाप हम सुनते हैं । अनुभव के पूर्व , 'ऐसा न हो जाय ' इस भय या सन्देह से दुःख । अनुभव लेते समय दुःख । अनुभव के बाद कई वर्षों तक उस के भार ढोकर दुःख । दुःख की अपेक्षा से , दुःख के अनुभव से , दुःख के भार से ... पूर्ण जीवन दुःख मय ।
"एक आध्यात्मिक व्यक्ति ने पूछा , "क्या दुःख के बिना जीवन सम्भव है ?" "सम्भव है यदि हम अपने अनुभवों को दुःख यह संज्ञा न दें तो" , मैं ने कहा । अपने दुःखानुभव , कष्टानुभव ही अपने दुष्कर्मों के कारण हैं ऐसा कहनेवाले कई हैं । महाभारत में कर्ण इस के ज्वलंत उदाहरण हैं । "अधर्म के पक्ष में क्यूँ खड़ा रहा ? अधर्म के लिए दुर्योधन को क्यूँ उचकाया" ? ऐसे पूछे जाने पर , "मेरी जननी ने मुझे फेंक दिया । परशुराम ने मुझे शाप दिया । किसान की गाय मेरे हाथ मर गयी तो उस का भी शाप मेरे ऊपर आ गया । जीवन के उत्तरार्ध में माता कुन्ती मेरे पास आयी और मेरे जन्म रहस्य को बताया । परन्तु अपने अन्य पुत्रों के प्राण बचाने हेतु । मेरे लिए सब कुछ वक्र ही रहा । मुझपर घोर अन्याय हुआ है" ऐसा उत्तर देगा ।
दुःख किसे नहीं है ? कष्ट किसे नहीं है ? हम समझते हैं , 'बस केवल मेरे ही ऊपर दुःख की वर्षा है' । बीते कल में हुआ । बीता कल तो गया । उसमे जो हुआ उसे क्यूँ साथ बाँध कर रखें ? आज दूसरा दिन है । यह दूसरा क्षण है । अतीत के अनुभवों को पकड़ रखना मूर्खता नहीं ? केवल दुःख संयोग को छोड़ने क्यूँ कह रहे हैं श्री कृष्ण ? हम केवल दुःखानुभव के साथ ही संयोग रखते हैं । सुखानुभवों नहीं , इसलिए ।
समत्व ही योग है । कुशलता पूर्ण कर्म ही योग है । योग की ये विश्लेषण देने वाले श्री कृष्ण कह रहे हैं "दुःख संयोग वियोगं योग" याने दुःख के साथ बंधन को तोड़ना ही योग है । यह एक सुलभ मार्ग प्रतीत होता है ।
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