ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - ७२
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोs स्मि भरतर्षभ । (अध्याय ७ - श्लोक ११)
தர்மாவிருத்ததோ பூதேஷு காமோ(அ)ஸ்மி பரதர்ஷப ... (அத்யாயம் 7 - ஶ்லோகம் 11)
DharmaAviruddho Booteshu Kaamo(a)smi Bharatarshabha ... (Chapter 7 - Shloka 11)
अर्थ : हे भरतर्षभ ! धर्म के विपरीत नहीं जो वह काम मैं हूँ ।
भूतेषु काम अस्मि , धर्म अविरुद्ध। .. जीवों में मैं ही काम हूँ , वह काम जो धर्म के विरुद्ध ना हो । श्री कृष्ण कह रहे हैं ।
काम में कैसा धर्म ?
काम केवल मनुष्य में ही नहीं , सभी जीव जन्तुओं में है । काम सृष्टि का ही अंग है । काम इस शब्द का सामान्य अर्थ इच्छा और विशेष अर्थ वह भावना जो स्त्री - पुरुष सम्भोग का कारण है । धर्म से बंधा काम क्या है ? भूख लगी तो भोजन पाने की इच्छा , तृष्णा तृप्ति के लिए जल की इच्छा , थका शरीर के लिए निद्रा की इच्छा , रोग युक्त शरीर स्वस्थ हो जाय ऐसी इच्छा . आदि नैसर्गिक है । इन इच्छाओं की पूर्ती हेतु प्रयत्न भी । प्रकृति तो परमात्मा की सृष्टि है । तो प्रकृति में कुछ भी धर्म विरुद्ध नहीं हो सकता ।
स्त्री - पुरुष सम्भोग के लिए जीवों को प्रवृत्त करने वाला काम प्राकृतिक है । इस माया सृष्टि आगे चले , इस हेतु स्त्री - पुरुष सम्भोग आवश्यक है । इसे प्रेरित करने वाला काम भी आवश्यक है । काम लुप्त हुआ सृष्टि ही ख़त्म हो जायेगी । इस दृष्टी में 'सृष्टि में सहायक काम , संतति उत्पत्ति के लिए काम धर्म के अनुकूल है । धर्म बद्ध है । अन्यतः धर्म के विरुद्ध है ।
श्री परमात्मन को जानने , उसकी अनुभूति पाने आध्यात्मिक साधना में लगे साधक गण सामान्यतः यह समझते हैं की काम मिटाया जाना चाहिए । इसलिए वे गृहस्थी जीवन छोड़कर साधना में लगते हैं । श्री कृष्ण भी सोलहवे अध्याय में काम को नरक द्वार कहते हैं । अठरहवे अध्याय में संन्यासी के विषय में बोलते हुए कहते हैं की 'सकाम कर्म त्यागने वाला ही संन्यासी' है । काम यदि प्राकृतिक है , तो सभी कर्म सकाम ही होंगे , और इसीलिए इन्हें त्यागना असम्भव है । हमारा यह सोच स्वाभाविक है । श्री कृष्ण भी इसे मानते हैं । इसीलिए कहते हैं की , "कर्म नही , कर्म फल के प्रति काम और कर्म से राग ही त्याज्य हैं । इनके अभाव में कर्म यदि हो तो वह श्रेष्ट है" । अध्यात्म के लिए गृहस्थ बाधक नहीं । अपनी आश्रम वतावस्था में आध्यात्मिक साधना के लिए सुझाया गया संन्यास पर्व जीवन काल में अंतिम पर्व है , गृहस्थ पर्व के बाद ही है ।
धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष ये चतुर्विध पुरुषार्थ हैं । धर्म और मोक्ष ये दो स्थिर घांट के मध्य में अर्थ और काम रहें यही तात्पर्य है । धर्म से बंधा काम त्याज्य नहीं है । द्वेष्य नहीं है । वह तो परमात्मा का ही स्वरुप है । श्री कृष्ण अपनी विभूतियों की चर्चा करते हुए कह रहे हैं "धर्म अविरुद्ध काम: अस्मि" ।
भूतेषु काम अस्मि , धर्म अविरुद्ध। .. जीवों में मैं ही काम हूँ , वह काम जो धर्म के विरुद्ध ना हो । श्री कृष्ण कह रहे हैं ।
काम में कैसा धर्म ?
काम केवल मनुष्य में ही नहीं , सभी जीव जन्तुओं में है । काम सृष्टि का ही अंग है । काम इस शब्द का सामान्य अर्थ इच्छा और विशेष अर्थ वह भावना जो स्त्री - पुरुष सम्भोग का कारण है । धर्म से बंधा काम क्या है ? भूख लगी तो भोजन पाने की इच्छा , तृष्णा तृप्ति के लिए जल की इच्छा , थका शरीर के लिए निद्रा की इच्छा , रोग युक्त शरीर स्वस्थ हो जाय ऐसी इच्छा . आदि नैसर्गिक है । इन इच्छाओं की पूर्ती हेतु प्रयत्न भी । प्रकृति तो परमात्मा की सृष्टि है । तो प्रकृति में कुछ भी धर्म विरुद्ध नहीं हो सकता ।
स्त्री - पुरुष सम्भोग के लिए जीवों को प्रवृत्त करने वाला काम प्राकृतिक है । इस माया सृष्टि आगे चले , इस हेतु स्त्री - पुरुष सम्भोग आवश्यक है । इसे प्रेरित करने वाला काम भी आवश्यक है । काम लुप्त हुआ सृष्टि ही ख़त्म हो जायेगी । इस दृष्टी में 'सृष्टि में सहायक काम , संतति उत्पत्ति के लिए काम धर्म के अनुकूल है । धर्म बद्ध है । अन्यतः धर्म के विरुद्ध है ।
श्री परमात्मन को जानने , उसकी अनुभूति पाने आध्यात्मिक साधना में लगे साधक गण सामान्यतः यह समझते हैं की काम मिटाया जाना चाहिए । इसलिए वे गृहस्थी जीवन छोड़कर साधना में लगते हैं । श्री कृष्ण भी सोलहवे अध्याय में काम को नरक द्वार कहते हैं । अठरहवे अध्याय में संन्यासी के विषय में बोलते हुए कहते हैं की 'सकाम कर्म त्यागने वाला ही संन्यासी' है । काम यदि प्राकृतिक है , तो सभी कर्म सकाम ही होंगे , और इसीलिए इन्हें त्यागना असम्भव है । हमारा यह सोच स्वाभाविक है । श्री कृष्ण भी इसे मानते हैं । इसीलिए कहते हैं की , "कर्म नही , कर्म फल के प्रति काम और कर्म से राग ही त्याज्य हैं । इनके अभाव में कर्म यदि हो तो वह श्रेष्ट है" । अध्यात्म के लिए गृहस्थ बाधक नहीं । अपनी आश्रम वतावस्था में आध्यात्मिक साधना के लिए सुझाया गया संन्यास पर्व जीवन काल में अंतिम पर्व है , गृहस्थ पर्व के बाद ही है ।
धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष ये चतुर्विध पुरुषार्थ हैं । धर्म और मोक्ष ये दो स्थिर घांट के मध्य में अर्थ और काम रहें यही तात्पर्य है । धर्म से बंधा काम त्याज्य नहीं है । द्वेष्य नहीं है । वह तो परमात्मा का ही स्वरुप है । श्री कृष्ण अपनी विभूतियों की चर्चा करते हुए कह रहे हैं "धर्म अविरुद्ध काम: अस्मि" ।
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