ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - ७३
आर्तो जिज्ञासु अर्थार्थी ज्ञानी । (अध्याय ७ - श्लोक १६)
ஆர்தோ ஜிக்ஞாஸு அர்தார்தி க்ஞானி ... (அத்யாயம் 7 - ஶ்லோகம் 16)
Aartho Jigyaasu Arthaarthi Gyaani ... (Chapter 7 - Shloka 16)
अर्थ : आर्त , जिज्ञासु , अर्थार्थी और ज्ञानी ।
मुझे भजने पूजने वाले भक्त चार प्रकार के । चारों भले हैं । (सुकृतिनः) । वे हैं ... 1 . आर्त - रोने वाला - दुःख और कष्ट का विलाप करने वाला भक्त । 2 . जिज्ञासु - जिज्ञासा और प्रश्न के सहारे उसे जानने की प्रेरणा लेकर भेजने वाला भक्त । 3 . अर्थार्थी - याचक , अर्थ और अन्य लौकिक विषयों के लिए उससे निवेदन करने वाला भक्त । 4 . ज्ञानी - अपने आप में सन्तुष्ट , आनन्द मग्न भक्त ।
परिवार में एक अतिथि आया । दूर प्रदेश से आया हुआ । अपने प्रदेश से विविध प्रकार के मिठाई , खिलौने और रंग बिरंगी वस्त्र लेकर आया । परिवार में चार पुत्र हैं । अतिथि द्वारा लाये गए वस्तू देखकर एक पुत्र अपने माँ के पास जाता है और रोता है । "मेरे पास तो ऐसा वस्त्र एक भी नहीं है ।" "वह खिलौना देखो कैसा सुन्दर है । तुम तो मेरे लिए ऐसे खिलौने खरीदती नहीं ।" ऐसे विलाप करता है । यह आर्त ।
दूसरा पुत्र के मन में जिज्ञासा है । "आप कहाँ से आये ?" "आपका प्रदेश कैसा है ?" "आप कैसे आये ?" "इतना सब लेकर आये हो ? किस के लिए ?" "आप के घर में कौन कौन हैं ?" "आप का हम से कैसा नाता है ?" आदि आदि प्रश्न लेकर वह उनसे वार्ता करता है । वस्तुओं में उसे विशेष रुचि नहीं । परन्तु वह जानना चाहता है । उसके मन में जिज्ञासा है । यह जिज्ञासु ।
तीसरा पुत्र अतिथि के पास जाता है और , "क्या मुझे यह खिलौना मिलेगा ?" "अगली बार आप जब आयेंगे तो क्या इस प्रकार का वस्त्र मेरे लिए लायेंगे ?" जैसे निवेदन रखता है । अतिथि उससे खुश होकर उसे कुछ मिठाई देते हैं जिसे वह स्वीकारता है । यह अर्थार्थी ।
चौथा पुत्र आगमन पर उनको नमस्कार करता है । उनका स्वागत , मंगल - कुशल वार्ता में लगे हुए परिवार जनों के साथ वहीं रहता है । तत्पश्चात वहाँ से हटकर अपने पुस्तक या जिस किसी कार्य में वह लगा हुआ था , उसी में पुनः लग जाता है । उसके मन में अतिथि के लिए यथोचित आदर है । यथोचित वार्तालाप भी करता है । परन्तु वह स्वयम में पूर्ण सन्तुष्ट है । उनके द्वारा लाये गए वस्तु या उनके प्रदेश के बारे में वर्णन के प्रति उसे आकर्षण नहीं । ज्ञानी भक्त ।
स्वयम को परखने में इस शब्दावली सहायक है । अपने आप से पुनः पुनः यह प्रश्न करें की हम श्री परमात्मा की पूजा अर्चना क्यूँ करते हैं । आराधना के पीछे अपनी भावना कैसी है यह वारंवार देखें । आर्त उपासना , याचना , बौद्धिक उपासना या उसके प्रति स्नेह प्रेम युक्त उपासना ? जीवन में स्वयम को प्राप्त या अप्राप्त विषयों में न्यूनता के लिए विलाप , चाहिए - ना चाहिए की सूची हाथ में लिए उसके सामने हाथ फैलाकर याचना , तर्क और विश्लेषण के आधार पर उसको परखकर जानने का प्रयास , इन तीन प्रकार से न होते हुए , उसके प्रति अपने ह्रदय में भरा स्नेह का प्रकट स्वरुप हो उपासना । यही श्रेष्ठ है । No Inquiries , No complaints and No demands . Love .. just Love .
मुझे भजने पूजने वाले भक्त चार प्रकार के । चारों भले हैं । (सुकृतिनः) । वे हैं ... 1 . आर्त - रोने वाला - दुःख और कष्ट का विलाप करने वाला भक्त । 2 . जिज्ञासु - जिज्ञासा और प्रश्न के सहारे उसे जानने की प्रेरणा लेकर भेजने वाला भक्त । 3 . अर्थार्थी - याचक , अर्थ और अन्य लौकिक विषयों के लिए उससे निवेदन करने वाला भक्त । 4 . ज्ञानी - अपने आप में सन्तुष्ट , आनन्द मग्न भक्त ।
परिवार में एक अतिथि आया । दूर प्रदेश से आया हुआ । अपने प्रदेश से विविध प्रकार के मिठाई , खिलौने और रंग बिरंगी वस्त्र लेकर आया । परिवार में चार पुत्र हैं । अतिथि द्वारा लाये गए वस्तू देखकर एक पुत्र अपने माँ के पास जाता है और रोता है । "मेरे पास तो ऐसा वस्त्र एक भी नहीं है ।" "वह खिलौना देखो कैसा सुन्दर है । तुम तो मेरे लिए ऐसे खिलौने खरीदती नहीं ।" ऐसे विलाप करता है । यह आर्त ।
दूसरा पुत्र के मन में जिज्ञासा है । "आप कहाँ से आये ?" "आपका प्रदेश कैसा है ?" "आप कैसे आये ?" "इतना सब लेकर आये हो ? किस के लिए ?" "आप के घर में कौन कौन हैं ?" "आप का हम से कैसा नाता है ?" आदि आदि प्रश्न लेकर वह उनसे वार्ता करता है । वस्तुओं में उसे विशेष रुचि नहीं । परन्तु वह जानना चाहता है । उसके मन में जिज्ञासा है । यह जिज्ञासु ।
तीसरा पुत्र अतिथि के पास जाता है और , "क्या मुझे यह खिलौना मिलेगा ?" "अगली बार आप जब आयेंगे तो क्या इस प्रकार का वस्त्र मेरे लिए लायेंगे ?" जैसे निवेदन रखता है । अतिथि उससे खुश होकर उसे कुछ मिठाई देते हैं जिसे वह स्वीकारता है । यह अर्थार्थी ।
चौथा पुत्र आगमन पर उनको नमस्कार करता है । उनका स्वागत , मंगल - कुशल वार्ता में लगे हुए परिवार जनों के साथ वहीं रहता है । तत्पश्चात वहाँ से हटकर अपने पुस्तक या जिस किसी कार्य में वह लगा हुआ था , उसी में पुनः लग जाता है । उसके मन में अतिथि के लिए यथोचित आदर है । यथोचित वार्तालाप भी करता है । परन्तु वह स्वयम में पूर्ण सन्तुष्ट है । उनके द्वारा लाये गए वस्तु या उनके प्रदेश के बारे में वर्णन के प्रति उसे आकर्षण नहीं । ज्ञानी भक्त ।
स्वयम को परखने में इस शब्दावली सहायक है । अपने आप से पुनः पुनः यह प्रश्न करें की हम श्री परमात्मा की पूजा अर्चना क्यूँ करते हैं । आराधना के पीछे अपनी भावना कैसी है यह वारंवार देखें । आर्त उपासना , याचना , बौद्धिक उपासना या उसके प्रति स्नेह प्रेम युक्त उपासना ? जीवन में स्वयम को प्राप्त या अप्राप्त विषयों में न्यूनता के लिए विलाप , चाहिए - ना चाहिए की सूची हाथ में लिए उसके सामने हाथ फैलाकर याचना , तर्क और विश्लेषण के आधार पर उसको परखकर जानने का प्रयास , इन तीन प्रकार से न होते हुए , उसके प्रति अपने ह्रदय में भरा स्नेह का प्रकट स्वरुप हो उपासना । यही श्रेष्ठ है । No Inquiries , No complaints and No demands . Love .. just Love .
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