ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - ७५
गीता की कुछ शब्दावली - ७५
उदाराः सर्व एवै ते । (अध्याय ७ - श्लोक १८)
உதாராஹ ஸர்வ ஏவைதே ... (அத்யாயம் 7 - ஶ்லோகம் 18)
Udaaraah Sarva Evai The ... (Chapter 7 - Shloka 18)
अर्थ : चारों प्रकार के मेरे भक्त श्रेष्ट हैं ।
श्री कृष्ण कहते हैं की , "ज्ञानी भक्त विशेष है !" आगे यह भी कहते हैं की , "वह मेरे लिए प्रिय है !" मुकुटु शिरोमणि जैसा तो उनका यह कहना की , "ज्ञानी भक्त तो मेरा ही स्वरुप है । वह मैं ही !"
अन्य तीन प्रकार के भक्त के विषय में श्री कृष्ण का क्या कहना है ? १८ वे श्लोक में श्री कृष्ण कहते हैं की , "चारों प्रकार के मेरे भक्त उदार हैं । श्रेष्ट हैं !" यह सुनकर हमें आश्चर्य होता हो । गीता वर्ग में एक चर्चा के समय श्रीरंग निवासी श्री मोहनरंगम ने एक प्रश्न पूछा । "यदि श्री कृष्ण के शब्दों में ज्ञानी भक्त इतना श्रेष्ट हुआ , तो अन्य उदार कैसे ?"
श्री कृष्ण के शब्द तर्क हीन या एक दुसरे के विरोधाभास वाले नहीं हो सकते हैं । यदि हमें ऐसे प्रतीत होते हैं तो कमी हमारे समझ की है , उनके शब्द की नहीं ।
लगभग सभी हिन्दू श्री कृष्ण द्वारा वर्णित तीन प्रकार के , नहीं नहीं दो प्रकार के भक्त में आते हुए दिखते हैं । आर्त भक्त और अर्थार्थी भक्त ।
आर्त ... मनुष्य जीवन में दुःख और कष्टों की कमी नहीं । अपने छोटे बड़े मन्दिरों में देव सन्निधि में रोते हुए , विलाप करते हुए ऐसे अनेक जनों को हम देखते हैं । वे यहाँ थमते नहीं । देवालय से बाहर जाकर , सामने कोई भी आये , कुछ क्षण सुनने की तैयारी दिखाए , उसके समक्ष भी इनका शोक आलाप विलाप प्रारम्भ हो जाता है । इनके लिए भगवान् बस मौन रहकर सुनने वाला कान है । उससे अधिक , वह अपने स्वयं के शोक - भण्डार खोलकर , इनके विलाप को रोकता नहीं । इनमे और श्री कृष्ण द्वारा उल्लिखित आर्त भक्त में बड़ा अन्तर है । आर्त भक्त भगवान् के प्रति पूर्ण श्रद्धा रखता है । वह परमात्मा के प्रति समर्पित है । एक बच्चे के लिए माँ जैसी है , वैसे इसके लिए भगवान् है । बच्चा अपने मनः के कष्टादि लेकर अपने माँ के पास जाता है और रोता है । केवल माँ के पास । अन्य किसी के पास नहीं । वह माँ के पास रोते समय यदि अन्य कोई आ जाए तो आँसू पोछकर ऐसा नाटकी हँसी हँसता जैसे उसे कोई समस्या नहीं । वैसे ही आर्त भक्त के लिए अन्य संसारी कानों में कोई श्रद्धा या विशवास नहीं । उसकी परिपूर्ण श्रद्धा केवल सूक्ष्म श्रवण वाले श्री परमात्मन के कानों में ही है । इसे तो अपने कष्ट और दुःख मिटने या न मिटने की भी चिन्ता नहीं । भगवान् से बोलकर , सन्तुष्ट होकर यह आलय से निकलता है । "उसके पास बोल दिया है । वह देख लेगा । मेरे लिए यथा योग्य करेगा !" ऐसी हर्ष भावना इसमें रहती है ।
वैसे ही अर्थार्थी ... मनुष्य की इच्छा आकांक्षाओं की भी कमी नहीं । हर दूसरा व्यक्ति इच्छा आकांक्षाओं की लम्बी सूची लेकर मन्दिरों में जाते हुए दीखता है । क्या इन्हें भक्त कह सकते हैं ? देव सन्निधि में इनकी वार्ता को प्रार्थना कहें ? इनके लिए भगवान् एक दलाल है , अपनी इच्छित वस्तुओं का सप्लाई करने वाला दलाल । अपने इच्छित सुख सुविधा की व्यवस्था करने वाला 'सर्विस प्रोवाइडर ' (Service Provider) है । अपनी याचनाओ के लिए ये राजनैतिक शक्ति केन्द्रो के पास जाते हैं । राज्य व्यवस्था में जाकर ठोकर मारते हैं । ठोकर खाते भी हैं । अन्य नैतिक , अनैतिक प्रयास करते हैं । भगवान् के पास भी आते हैं , "अपनी माँगों की पूर्ती करने में सक्षम" उसे मानते हैं इसी लिए । "उसे संतुष्ट न करने से इच्छा पूर्ती को रोकने की शक्ति रखता है" इनका यह भय भी इन्हें भगवान् के पास लाता है । अर्थार्थी भक्त और इन याचकों में बड़ा भेद है । अर्थार्थी की श्रद्धा केवल परमात्मा पर है । अपने मांग लेकर यह लौकिक शक्तियों के पास जाता नहीं । अन्य प्रयासों में लगता नहीं । इसके लिए भगवान् एक ही शक्ति है । भगवान् एक ही स्रोत है । आर्त की तरह इस का भी ध्यान अपनी मांग - पूर्ती की ओर जाता नहीं । बच्चे के लिए पिता जैसे इसके लिये भगवान् है । बच्चा अपने मांगों की पूर्ती के लिये पिता के पास ही जाता है । उनसे धनवान , उनसे शक्तिशाली पडोसी के पास नहीं । वैसे ही अर्थार्थी भक्त , अपनी इच्छाओं की पूर्ती हो न हो , पुनः पुनः भगवान् के ही पास जाता है । इच्छित वस्तु प्राप्त न होने पर याचना करने वाले अन्य जन तो मन्दिर में जाना बंद कर देते हैं या 'दुसरे भगवान्' के पास जाने लगते हैं या भगवान् की प्रतिमा तोड़कर फेंक देते हैं ।
हम में से कुछ बुद्धिशाली चिन्तक , प्रचारक भी हैं जो भगवान् के बारे में पढ़ते हैं , चिन्तन करते हैं और प्रचार करते हैं । परन्तु ये जिज्ञासु भक्त नहीं । इनके बौद्धिक विश्लेषण स्व अहंकार पुष्टि के लिए या अन्यों की प्रशंसा प्राप्ति के लिए या विश्व विद्यालयों में पदवी प्राप्त करने या वाद विवाद में जीतने के लिए होता है । जिज्ञासु तो केवल और केवल मात्र श्री परमात्मन को जानने के लिए जिज्ञासा रखता है । प्रश्न छेड़ता है ।
इसी लिए श्री कृष्ण अपने चारों प्रकार के भक्तों को उदार या श्रेष्ट कहता है । उन्हें सुकृतिन कहता है । वह जब 'मेरे भक्त' कहता है तो मन्दिरों में भटकने वाले , भक्ति का नाम लेकर पूजा इत्यादि बाहरी कर्मों में लगे हुए जनों को नहीं , उसपर श्रद्धा , केवल उसी पर श्रद्धा रखकर संसार में विचरने वालों को कहता है । आगे बारहवे अध्याय में भक्त का विश्लेषण करते समय श्री कृष्ण एक बार भी मन्दिर गमन , नैवेद्य , भजन , पूजा , अर्चना , नमस्कार , तीर्थ यात्रा , नदी स्नान , व्रत , भगवान के नाम किये जाने वाले अन्य कर्म आदि औपचारिक कर्मों का उल्लेख नहीं करता ।
श्री कृष्ण कहते हैं की , "ज्ञानी भक्त विशेष है !" आगे यह भी कहते हैं की , "वह मेरे लिए प्रिय है !" मुकुटु शिरोमणि जैसा तो उनका यह कहना की , "ज्ञानी भक्त तो मेरा ही स्वरुप है । वह मैं ही !"
अन्य तीन प्रकार के भक्त के विषय में श्री कृष्ण का क्या कहना है ? १८ वे श्लोक में श्री कृष्ण कहते हैं की , "चारों प्रकार के मेरे भक्त उदार हैं । श्रेष्ट हैं !" यह सुनकर हमें आश्चर्य होता हो । गीता वर्ग में एक चर्चा के समय श्रीरंग निवासी श्री मोहनरंगम ने एक प्रश्न पूछा । "यदि श्री कृष्ण के शब्दों में ज्ञानी भक्त इतना श्रेष्ट हुआ , तो अन्य उदार कैसे ?"
श्री कृष्ण के शब्द तर्क हीन या एक दुसरे के विरोधाभास वाले नहीं हो सकते हैं । यदि हमें ऐसे प्रतीत होते हैं तो कमी हमारे समझ की है , उनके शब्द की नहीं ।
लगभग सभी हिन्दू श्री कृष्ण द्वारा वर्णित तीन प्रकार के , नहीं नहीं दो प्रकार के भक्त में आते हुए दिखते हैं । आर्त भक्त और अर्थार्थी भक्त ।
आर्त ... मनुष्य जीवन में दुःख और कष्टों की कमी नहीं । अपने छोटे बड़े मन्दिरों में देव सन्निधि में रोते हुए , विलाप करते हुए ऐसे अनेक जनों को हम देखते हैं । वे यहाँ थमते नहीं । देवालय से बाहर जाकर , सामने कोई भी आये , कुछ क्षण सुनने की तैयारी दिखाए , उसके समक्ष भी इनका शोक आलाप विलाप प्रारम्भ हो जाता है । इनके लिए भगवान् बस मौन रहकर सुनने वाला कान है । उससे अधिक , वह अपने स्वयं के शोक - भण्डार खोलकर , इनके विलाप को रोकता नहीं । इनमे और श्री कृष्ण द्वारा उल्लिखित आर्त भक्त में बड़ा अन्तर है । आर्त भक्त भगवान् के प्रति पूर्ण श्रद्धा रखता है । वह परमात्मा के प्रति समर्पित है । एक बच्चे के लिए माँ जैसी है , वैसे इसके लिए भगवान् है । बच्चा अपने मनः के कष्टादि लेकर अपने माँ के पास जाता है और रोता है । केवल माँ के पास । अन्य किसी के पास नहीं । वह माँ के पास रोते समय यदि अन्य कोई आ जाए तो आँसू पोछकर ऐसा नाटकी हँसी हँसता जैसे उसे कोई समस्या नहीं । वैसे ही आर्त भक्त के लिए अन्य संसारी कानों में कोई श्रद्धा या विशवास नहीं । उसकी परिपूर्ण श्रद्धा केवल सूक्ष्म श्रवण वाले श्री परमात्मन के कानों में ही है । इसे तो अपने कष्ट और दुःख मिटने या न मिटने की भी चिन्ता नहीं । भगवान् से बोलकर , सन्तुष्ट होकर यह आलय से निकलता है । "उसके पास बोल दिया है । वह देख लेगा । मेरे लिए यथा योग्य करेगा !" ऐसी हर्ष भावना इसमें रहती है ।
वैसे ही अर्थार्थी ... मनुष्य की इच्छा आकांक्षाओं की भी कमी नहीं । हर दूसरा व्यक्ति इच्छा आकांक्षाओं की लम्बी सूची लेकर मन्दिरों में जाते हुए दीखता है । क्या इन्हें भक्त कह सकते हैं ? देव सन्निधि में इनकी वार्ता को प्रार्थना कहें ? इनके लिए भगवान् एक दलाल है , अपनी इच्छित वस्तुओं का सप्लाई करने वाला दलाल । अपने इच्छित सुख सुविधा की व्यवस्था करने वाला 'सर्विस प्रोवाइडर ' (Service Provider) है । अपनी याचनाओ के लिए ये राजनैतिक शक्ति केन्द्रो के पास जाते हैं । राज्य व्यवस्था में जाकर ठोकर मारते हैं । ठोकर खाते भी हैं । अन्य नैतिक , अनैतिक प्रयास करते हैं । भगवान् के पास भी आते हैं , "अपनी माँगों की पूर्ती करने में सक्षम" उसे मानते हैं इसी लिए । "उसे संतुष्ट न करने से इच्छा पूर्ती को रोकने की शक्ति रखता है" इनका यह भय भी इन्हें भगवान् के पास लाता है । अर्थार्थी भक्त और इन याचकों में बड़ा भेद है । अर्थार्थी की श्रद्धा केवल परमात्मा पर है । अपने मांग लेकर यह लौकिक शक्तियों के पास जाता नहीं । अन्य प्रयासों में लगता नहीं । इसके लिए भगवान् एक ही शक्ति है । भगवान् एक ही स्रोत है । आर्त की तरह इस का भी ध्यान अपनी मांग - पूर्ती की ओर जाता नहीं । बच्चे के लिए पिता जैसे इसके लिये भगवान् है । बच्चा अपने मांगों की पूर्ती के लिये पिता के पास ही जाता है । उनसे धनवान , उनसे शक्तिशाली पडोसी के पास नहीं । वैसे ही अर्थार्थी भक्त , अपनी इच्छाओं की पूर्ती हो न हो , पुनः पुनः भगवान् के ही पास जाता है । इच्छित वस्तु प्राप्त न होने पर याचना करने वाले अन्य जन तो मन्दिर में जाना बंद कर देते हैं या 'दुसरे भगवान्' के पास जाने लगते हैं या भगवान् की प्रतिमा तोड़कर फेंक देते हैं ।
हम में से कुछ बुद्धिशाली चिन्तक , प्रचारक भी हैं जो भगवान् के बारे में पढ़ते हैं , चिन्तन करते हैं और प्रचार करते हैं । परन्तु ये जिज्ञासु भक्त नहीं । इनके बौद्धिक विश्लेषण स्व अहंकार पुष्टि के लिए या अन्यों की प्रशंसा प्राप्ति के लिए या विश्व विद्यालयों में पदवी प्राप्त करने या वाद विवाद में जीतने के लिए होता है । जिज्ञासु तो केवल और केवल मात्र श्री परमात्मन को जानने के लिए जिज्ञासा रखता है । प्रश्न छेड़ता है ।
इसी लिए श्री कृष्ण अपने चारों प्रकार के भक्तों को उदार या श्रेष्ट कहता है । उन्हें सुकृतिन कहता है । वह जब 'मेरे भक्त' कहता है तो मन्दिरों में भटकने वाले , भक्ति का नाम लेकर पूजा इत्यादि बाहरी कर्मों में लगे हुए जनों को नहीं , उसपर श्रद्धा , केवल उसी पर श्रद्धा रखकर संसार में विचरने वालों को कहता है । आगे बारहवे अध्याय में भक्त का विश्लेषण करते समय श्री कृष्ण एक बार भी मन्दिर गमन , नैवेद्य , भजन , पूजा , अर्चना , नमस्कार , तीर्थ यात्रा , नदी स्नान , व्रत , भगवान के नाम किये जाने वाले अन्य कर्म आदि औपचारिक कर्मों का उल्लेख नहीं करता ।
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