ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - ९३
स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति । (अध्याय ८ - श्लोक २०)
ஸ ஸர்வேஷு பூதேஷு நஶ்யத்ஸு ந விநஶ்யதி ... (அத்யாயம் 8 - ஶ்லோகம் 20)
Sa Sarveshu Bhooteshu Nashyatsu Na Vinashyathi ... (Chapter 8 - Shloka 20)
अर्थ : सर्व भूत का नाश होने के पश्चात भी जो रहता है , वही परमात्मा है ।
रूचि क्या है ? किसी खाद्य पदार्थ की रूचि कैसे अनुभव करें ? उसे मुँह में डालकर , चभाकर , अन्दर निगलने के पश्चात जिह्वा में जो रह जाती है , वही रूचि है । याने पदार्थ के मिटने के बाद , अदृश्य होने के बाद , जो रह जाता है , वही उस पदार्थ की रूचि है । रूचि तो उस पदार्थ के कण कण में थी । परन्तु , रूचि को अलग किया नहीं जा सकता । वह अरूप है । उसका अनुभव मात्र सम्भव है । पदार्थ जब था तो रूचि थी । पदार्थ जब अदृश्य हो गया , पेट में चला गया , तो भी रूचि रह जाती है , जिसका अनुभव हम जिह्वा द्वारा कर पाते हैं ।
ज्ञान क्या है ? पुस्तक , लेखनी , विद्यालय , महाविद्यालय , आचार्यगण , पुस्तकालय , प्रयोग शाला , भवन ... ये सभी आवश्यक हैं । इनके बिना ज्ञान असम्भव हैं । परन्तु , प्राप्त ज्ञान को कैसे जाने ? विद्यालय पर्व बीतने के पश्चात , महाविद्यालयीन पर्व बीतने के पश्चात , पुस्तक , लेखनी , परिक्षा आदि नहीं रहने पर भी , ये सभी उसके जीवन से हट जाने के पश्चात भी , जो उसके भीतर प्रकाश स्वरुप में रहता है , उसे जीवन पथ पर ले जाता है , वही उसके लिए ज्ञान है । ज्ञान अव्यक्त है । रूप रहित है । पुस्तकों में , लेखनी में , आचार्यों में , पुस्तकालयों में , प्रयोग शालाओं में , ज्ञान सुप्त है । सर्व व्याप्त हैं । अव्यक्त है । इन सब के हटने के बाद , इन सब के मिटने के बाद , प्रकाश रूप में जो हमारे भीतर है , वही ज्ञान है ।
जीवन क्या है ? शरीर , श्वासोच्छ्वास , भोजन , वस्त्र , वाक् , लेखन , रिश्ते नाते , धनार्जन के प्रयत्न , उस हेतु प्रयोगित साधन व यंत्र , प्रवास , वाहन , जैसे अनेक विषय जीवन में है । परन्तु ये जीवन नहीं । जीवन के ये साधन है । इन्हीं को जीवन समझकर निराश होने वाले हैं । सही अर्थ में ये सब मिटने के बाद , शरीर का भी अन्त होने के बाद जो सार रूप में रह जाता है , वही जीवन है ।
यहाँ श्री कृष्ण के द्वारा परमात्मा का वर्णन है । परमात्मा से ही सब कुछ सृजित है । उसी के प्रकट स्वरुप हैं । सब जीवों में , सृष्टि के प्रत्येक कण में वह व्यापित है । सभी अपने अपने कार्य में प्रवृत्त हैं तो उसी की प्रदत्त शक्ति और सामर्थ्य से । अन्त में सब कुछ लीन होते भी उसी से और उसी मे । सभी का नाश होने के पश्चात , जो रहता है वही सत है । परम है । सृजन से व्यक्त स्वरुप में , साकार , है । प्रलय में अव्यक्त , सुप्त वही है । केवल वही है । सत वही है ।
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