ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - ९८
मोघाशा मोघ कर्माणो मोघ ज्ञाना विचेतसः राक्षसीम् मोहिनॆम् । (अध्याय ९ - श्लोक १२)
மோகா மோக கர்மாணோ மோக க்ஞானா விசேதஸஹ ராக்ஷஸீம் மோஹினீம் ... (அத்யாயம் 9 - ஶ்லோகம் 12)
Moghaashaa Mogha Karmaano Mogha Gyaanaa Vichetasah Raakshaseem Mohineem ... (Chapter 9 - Shloka 12)
अर्थ : मोघ याने व्यर्थ या अर्थहीन । मोघ आशा ... व्यर्थ आशा । मोघ ज्ञान ... अर्थहीन ज्ञान । मोघ कर्म ... व्यर्थ चेष्टायें । ये मोहित करने वाले हैं । बुद्धि भ्रष्ट कर देने वाले हैं । राक्षसी भाव प्रवृत्त करने वाले हैं ।
मूढ़ कौन है ? उपयोगी ज्ञान को मना करने वाला , भली आशा न रखने वाला और अर्थपूर्ण कर्म न करने वाला ... यह मूढ़ है । इससे अधिक ज्ञान के नाम से कूड़ा कचरा जैसे विषयों को मस्तिष्क में भरने वाला , व्यर्थ आशाएँ पालने वाला और अर्थहीन कर्मों में लगने वाला भी मूढ़ है । श्री कृष्ण इसे केवल मूढ़ न कहकर , "तामसी वृत्ति को पाने वाला , राक्षसी और बुद्धि भ्रष्ट कह रहे हैं । श्री कृष्ण द्वारा प्रयोगित शब्द ।
आशा ही जीवन का आधार है ऐसा कहा जाता है । मोघ आशा , अर्थहीन आशा कौनसी ? घर के द्वार पर कोई काला पत्थर लटकाया या हाथ में कोई रस्सी बान्ध लिया तो सब कुछ अच्छा होगा । श्री कृष्ण का उल्लेख इस प्रकार अंध विशवास की और है , ऐसा समझकर हम स्वयं को ' मूढ़ ' इस परिध से बाहर रखना चाहें तो गलत है । हमारी सामान्य आशायें कैसी हैं ? आज जो अच्छा हुआ , अनुकूल हुआ ... वही कल भी होगा । आज बुरा या प्रतिकूल हुआ वैसा आगे नहीं होगा । अन्यों से जो गलती हुई , मुझसे नहीं होगी । मेरी गलतियों की अनदेखी होगी और मुझे अच्छे ही फल प्राप्त होंगे । मेरी योजना पक्की है , इसके अनुरूप ही होगा । मेरे प्रयत्न अवश्य यशस्वी होंगे । मैं मोह की इन जाल में फँसूँगा नहीं ।मैं तो नियमित व्यायाम करता हूँ , मुझे कोई रोग वोग नहीं होगा । मैं लम्बी आयु जीयूंगा । आदि आदि । इनमे प्रत्येक आशा मोघ आशा है । ये हमें भ्रमित करती हैं ।
ज्ञान पवित्र है । ज्ञान प्राप्ति अति महत्त्व पूर्ण है । सत्य है । परन्तु , ज्ञान के नाम कूड़ा भरना और स्वयं को ज्ञानी कहलवाना ? संसार में रोजी रोटी कमाने बन्दर चार पाँच उछल कूद जो सीख लेता है , वह ज्ञान नहीं होता । वैसे ही संसार के विषय में लाख जानकारी एकत्रित कर लें और उसके आधार पर कुछ पुरस्कार पा लें , कुछ स्पर्धा जीत लें , तो भी वह मोघ ज्ञान ही है ।
मोघ कर्म या व्यर्थ चेष्टा कौनसी हैं ? छाया को पकड़ने प्रयत्न , कुत्ते की दुम को सीधा करने का प्रयत्न जैसे ही नहीं , हम में बहुमान्य जन सामान्यतः जिन कर्मों में लगे हैं , उनमे अधिकांश मोघ कर्म हैं । व्यर्थ कर्म हैं । कुत्ता हड्डी को चबाता रहता है । हड्डी तो सूखी है । सूखी हड्डी चबाते चबाते मुँह में उसीका रक्त निकलता है और अज्ञानी कुत्ता स्वयं के ही रक्त के स्वाद में मोहित होता है और हड्डी चबाने के कार्य में लगा रहता है । हम में से कई उस के सामान हैं । धन , अधिक धन , अत्यधिक धन कमा लूँ । "मैं कौन हूँ" इसे जानने का प्रयत्न यदि विवेकपूर्ण है तो "मैं कौन हूँ - इन्हें दिखा दूँ " यह प्रयत्न मोघ है । शरीर में रोग हो जाय और डाक्टरों की चक्कर काटकर , बंधू मित्रों द्वारा सूचित किये गए अनेकानेक योजनाओं के पीछे लगकर , रोग से मुक्त होने के प्रयत्न मोघ है । असत्य के आधार पर , गलत प्रयत्नों के आधार पर सही फल प्राप्त करने के प्रयत्न मोघ है । विषैली बीज रोपण कर मीठे फल प्राप्ति करने के प्रयत्न जैसे व्यर्थ हैं ।
क्या यह आवश्यक है ? क्या यह मेरे उद्धार में उपयोगी है ? इन प्रश्नों से अपनी आशा , ज्ञान और कर्म को परखें और मोघ आशा , ज्ञान और कर्म त्यागकर अमोघ जीवन , अर्थपूर्ण जीवन जियें ।
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