ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - ९९
सदसच्चाहम् । (अध्याय ९ - श्लोक १९)
ஸதஸச்சாஹம் ... (அத்யாயம் 9 - ஶ்லோகம் 19)
Sadasachchaaham ... (Chapter 9 - Shloka 19)
अर्थ : सत और असत ... दोनों ही मैं हूँ ।
वेद में मनुष्य (ऋषि गण) श्री परमात्मा का विवरण दे रहे हैं । श्री गीता में परमात्मा स्वयं अपना विवरण दे रहे हैं । श्री परमात्मा के विषय में मनुष्य के मन में जो जो प्रश्न उठने की सम्भावना है , उन सभी प्रश्नों के उत्तर दे रहे हैं ।
पत्नी भोजन पकाकर खिलाती है । स्वादिष्ट भोजन बनाती है । एक दिन भोजन में नमक या मिर्ची कम या अधिक हो जाय या भोजन अध पका रह जाय , तो क्या यह गुस्सा और झगडे का कारण बनना चाहिये ? स्वादिष्ट बनाने वाली वही और आज भिन्न रूचि में पकाने वाली भी वही ।
एक गुलाब की पौधा । प्रति दिन एक , सुन्दर , मोहक गंध युक्त गुलाब के फूल देती है । हम फूलों को स्वीकार कर ईश्वरार्पण कर , आनन्दित होते है । एक दिन , पौधे से फूल स्वीकार करते समय एक कठोर काँटा उंगलियों को चुभाकर दुःख पहुँचाती है । तुरन्त , पौधे पर गुस्सा दिखाकर उखाड़ फ़ेंक दें ? सुगन्ध युक्त , सुन्दर फूल भी वही पौधा देती आयी है । कभी , वही पौधा ने काँटा दिया तो क्या ?
एक प्रभावी पदस्थ व्यक्ति , स्वागत , प्रशंसा , सत्कार , सुविधा आदि प्राप्त करता है और हर्षित होता है । बढ़ती आयु , कोई गलती या दुष्कृति या दुर्व्यवहार , राजनैतिक सूत्र में परिवर्तन आदि किसी कारण , अपमान , तिरस्कार , अपशब्द , पदमुक्ति आदि भी पाने के अवसर आता है , जिस कारण वह शोकांकित होता है । अब सत्य तो यह है उसी एक पद इस व्यक्ति को मिले दोनों प्रकार के अनुभवों के लिए कारणीभूत है । पद नहीं होता तो दोनों अनुभव नहीं होते ।
क्लाशियस क्ले एक मल्ल युद्ध वीर था । उसकी कहनी सुनिए । "प्रशिक्षण आंगण में रोने वाला द्वंद्वांगण में हंसता है । वहाँ रोने का धैर्य जिसे नहीं , वहाँ हंसते रहना चाहता है , उसे रणांगण में रोना पड़ता है" । रोना और हंसना तो निश्चित ही प्राप्त होंगे । दोनों एक ही मल्लयुद्ध खेल के ही उपज हैं ।
समस्या पत्नी , गुलाब की पौधा , पद या मल्ल-युद्ध की नहीं । समस्या सम्बन्धित व्यक्ति में है । इसको स्वादिष्ट भोजन ही चाहिए । इसको केवल सुगंध युक्त , सुन्दर और मृदु गुलाब ही चाहिए । इसे केवल स्वागत , सत्कार , प्रशंसा , पुरस्कार , ही चाहिए । इस तो केवल हंसते ही रहना है । इनके विपरीत अनुभव उसे दुःखी बना देते हैं । उसे प्रतिकूल , कटु , अपमान , दुःख , कष्ट आदि ये अनुभव कतई नहीं चाहिए । वह मानता नहीं की ये दोनों 'एक' ही के उपज हैं । यदि उसके समक्ष यह सत्य रखा जाय , तो वह आश्चर्य चकित होता या स्तब्ध होता ।
सृष्टि उसकी रची हुई है । सृष्टित सब कुछ उसी का प्रकट स्वरुप है । याने वही है । ठंडी पुरवैया वही है । नाशकारी आंधी भी वही । रिमझिम बरसात वही । प्रकोप मय बाढ़ भी वही । मनो रम्य प्रातः कालीन नभ वही । अंगार बरसाता हुआ मध्याह्न आकाश भी वही । सुजलाम सुफलाम हरियाली वही । कठोर रेगिस्तान भी वही । समुद्र के मन्दहास खिलाते लहर वही । दूर दूर तक अट्टहास मचाने वाले सुनामी लहर भी वही । पुष्प वही । कंटक भी वही । वसंत वही । ग्रीष्म भी वही । जन्म वही । मृत्यु भी वही । उसकी योजना से सृजित सृष्टि में सब कुछ वही ।
समस्या बाहर नहीं । स्वयं हम में है । हमें एक चाहिए । एक ही चाहिये । दूसरा नहीं । हम सृष्टि को अंक देते हैं और अनुकूल - प्रतिकूल , मधुर - कटु , हितकारी - बाधक , मृदुल - कठोर , इच्छित - द्वेष्य ... आदि वर्गों में बाँट देते हैं । कहते है की जिसने प्रथम उल्लिखित विषयों को रचाया है , उसी ने दुसरे विषयों को भी बनाया होगा यह तो असम्भव है । दोनों के रचयिता एक ही है यह हमें मान्य नहीं । ग्राह्य नहीं । ख्रिस्ती और इस्लाम पन्थों ने इन दोनों प्रकार की सृष्टि के लिये दो भिन्न शक्तियाँ नियमित कर दिया है । उनके अनुसार प्रथम विषयों को भगवान बनाता है और दुसरे विषयों को शैतान ।
यहाँ श्री कृष्ण कह रहे हैं , "नहीं । नहीं । दोनों ही मैं ने बनाया । दोनों ही मैं हूँ" । सत मैं हूँ । असत भी मैं ही हूँ ।
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