ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - १०१
योगक्षेमं वहाम्यहम् । (अध्याय ९ - श्लोक २२)
யோகக்ஷேமம் வஹாம்யஹம் ... (அத்யாயம் 9 - ஶ்லோகம் 22)
YogaKshemam Vahaamyaham ... (Chapter 9 - Shloka 22)
अर्थ : योग और क्षेम का निर्वहन मैं करूँगा ।
योग याने जो आवश्यक है उसे पाना और क्षेम यानी जो है उसका रक्षण करना । संसारी जीवन में हम ये ही दो कार्य करते हैं । पाना और पोसना । (Procurement and Maintenance) वस्तु खरीदते हैं । उनका रक्षण करते है । कंगा , लेखनी जैसे अल्प विषय से जीवन में एक बार खरीदे जाने वाले घर और गाडी जैसे विषय तक ... कई वस्तु खरीदते हैं । ये वस्तु ठीक काम करे इस हेतु उनकी देखभाल करते हैं । श्री कृष्ण आश्वासन दे रहें हैं की 'इन दोनों कार्यों को मैं करूंगा' ।
"सभी के लिए" ? "उनके , जो मेरे ही अनन्य चिन्तन में मग्न रहते हैं" ।
"सभी के लिए" ? "उनके , जो मेरे ही अनन्य चिन्तन में मग्न रहते हैं" ।
सामान्यतः , स्वयं के विषय में कोई चिन्ता न करते हुए अन्यों की चिन्ता में ही जो लगे रहते हैं , उनके कोई प्रयास के बिना , उनके मन में इन अवश्यकताओं के प्रति कोई चिन्तन के अभाव में भी , उनकी सभी आवश्यकतायें पूर्ती हो जाते हैं । यह सत्य है । साधू और अपनी मातायें इस विषय में ज्वलन्त उदाहरण हैं ।
साधू अपने वस्त्र , भोजन , ठिकाना आदि आवश्यकता के विषय में सोचता नहीं । इस दिशा में कोई प्रयत्न करता नहीं । इनकी पूर्ती हेतु कोई व्यवस्था रचाई नहीं जाती । परन्तु उसकी सभी आवश्यकतायें पूर्ती होती है ।
अपने घरों में माँ किसी भी कार्य में लगे रही तो वह कार्य परिवार के अन्यों के हितार्थ में , सुखार्थ में ही होगा । माँ किसी चिन्तन में मग्न रही तो वह चिन्तन का विषय परिजनों की आवश्यकता और हित के बारे में ही होगा । उसके चिन्तन में और कार्य में "मैं - मेरी आवश्यकता - मेरी इच्छा" आदि लवलेश भी नहीं होंगे । ऐसे माता के सर्व आवश्यकता , इच्छा की पूर्ती होती है । बिना मांगे , बिना सूचित किये पूर्ती होती है ।
मेरे अलप स्वल्प जीवन में श्री कृष्ण के ये वचन अनुभूति कई बार प्राप्त हुई है । धन जुटाने के प्रयत्न नहीं करूंगा यह मेरा दृढ़ संकल्प रहा है । अपनी निजी आवश्यकता पूर्ती के लिए चेष्टा नहीं करने का संकल्प । परन्तु , मेरी आवश्यकतायें , सुख सुविधायें पर्याप्त मात्रा में - नहीं मेरी योग्यता से बहुत अधिक मात्रा में मुझे प्राप्त हुए हैं , श्री कृष्ण की कृपा से ।
इस में एक और निर्बन्ध जुड़ा हुआ है । मेरे लिए योग और क्षेम क्या हैं , इसका निर्णय मैं नहीं , वह करेगा ।मुझे क्या प्राप्त हो , मुझे प्राप्त विषयों में किन विषयों का रक्षण हो , मेरी चिंता के विषय नहीं । निर्णय वह करेगा । वह जानता है । वह देख लेगा । मुझे यह प्राप्त हो , प्राप्त यह मुझसे बिछड़ न जाय और मेरी इस इच्छा की पूर्ती में वह सहायक बनें ऐसी हमारी प्रार्थना रही तो व्यर्थ है । सहायता में वह आएगा नहीं , यह निश्चित है ।
सिंध प्रदेश में मिहिर बाबा नामक एक साधू पुरुष रहते थे । आध्यात्मिक प्रवचन करते थे । उनके तीनों पुत्र किसी मारक रोग से पीड़ित हुए और एक ही दिन में मर गए । श्री मिहिर बाबा आध्यात्मिक विषय बोलते तो थे परन्तु उन्हें अपने बेटों की मृत्यु स्वीकार्य नहीं थी । विलाप किये । सर पटक कर रोये । "भगवान ने दिए । उसी के थे । उस ने ले लिया । इसमें इतना शोक करना भी उचित है" ? उनकी पत्नी ने समझाया । वह आध्यात्मिक विषयों से अनभिज्ञ थी । परन्तु उसके शब्द गहरी आध्यात्मिक भावना को प्रकट किये । मिहिर बाबा तत्क्षण साधू हुए , उनके मन में वचन के अनुरूप भावना जगी ।
श्री रामजी समुद्र किनारे बैठे हुए , अपने सभी बाणों को रेत में गाढ़ दिये । तत्पश्चात एक एक बाण को निकाल कर , पोछकर यथास्थानम् रख रहे थे । एक बाण के नोंक पर एक मेंढक फँसा हुआ था । रक्त रञ्जित उसे देख श्री राम हड़बड़ा गए । "अरे रे ! बाण का स्पर्श होते ही आवाज दिया होता" ? " हे राम ! जन्म काल से मैं तुम्हारा नाम लेते आया हूँ और मुझे यथावश्यक भोजन देते आये हो । तुम्हारे दिए भोजन को मैं ने जीवन भर स्वीकारा है । अब वही राम के हाथ बाण का नोंक दें तो उसे अस्वीकार करुँ ? राम का दिया भोजन प्रसाद है तो राम का दिया बाण भी प्रसाद है" । मेंढक ने उत्तर दिया ।
हमारे लिए योग क्या हैं , क्षेम हैं इसका निर्णय श्री कृष्ण ही करें । "योग क्षेमं वहाम्यहम्" ।
साधू अपने वस्त्र , भोजन , ठिकाना आदि आवश्यकता के विषय में सोचता नहीं । इस दिशा में कोई प्रयत्न करता नहीं । इनकी पूर्ती हेतु कोई व्यवस्था रचाई नहीं जाती । परन्तु उसकी सभी आवश्यकतायें पूर्ती होती है ।
अपने घरों में माँ किसी भी कार्य में लगे रही तो वह कार्य परिवार के अन्यों के हितार्थ में , सुखार्थ में ही होगा । माँ किसी चिन्तन में मग्न रही तो वह चिन्तन का विषय परिजनों की आवश्यकता और हित के बारे में ही होगा । उसके चिन्तन में और कार्य में "मैं - मेरी आवश्यकता - मेरी इच्छा" आदि लवलेश भी नहीं होंगे । ऐसे माता के सर्व आवश्यकता , इच्छा की पूर्ती होती है । बिना मांगे , बिना सूचित किये पूर्ती होती है ।
मेरे अलप स्वल्प जीवन में श्री कृष्ण के ये वचन अनुभूति कई बार प्राप्त हुई है । धन जुटाने के प्रयत्न नहीं करूंगा यह मेरा दृढ़ संकल्प रहा है । अपनी निजी आवश्यकता पूर्ती के लिए चेष्टा नहीं करने का संकल्प । परन्तु , मेरी आवश्यकतायें , सुख सुविधायें पर्याप्त मात्रा में - नहीं मेरी योग्यता से बहुत अधिक मात्रा में मुझे प्राप्त हुए हैं , श्री कृष्ण की कृपा से ।
इस में एक और निर्बन्ध जुड़ा हुआ है । मेरे लिए योग और क्षेम क्या हैं , इसका निर्णय मैं नहीं , वह करेगा ।मुझे क्या प्राप्त हो , मुझे प्राप्त विषयों में किन विषयों का रक्षण हो , मेरी चिंता के विषय नहीं । निर्णय वह करेगा । वह जानता है । वह देख लेगा । मुझे यह प्राप्त हो , प्राप्त यह मुझसे बिछड़ न जाय और मेरी इस इच्छा की पूर्ती में वह सहायक बनें ऐसी हमारी प्रार्थना रही तो व्यर्थ है । सहायता में वह आएगा नहीं , यह निश्चित है ।
सिंध प्रदेश में मिहिर बाबा नामक एक साधू पुरुष रहते थे । आध्यात्मिक प्रवचन करते थे । उनके तीनों पुत्र किसी मारक रोग से पीड़ित हुए और एक ही दिन में मर गए । श्री मिहिर बाबा आध्यात्मिक विषय बोलते तो थे परन्तु उन्हें अपने बेटों की मृत्यु स्वीकार्य नहीं थी । विलाप किये । सर पटक कर रोये । "भगवान ने दिए । उसी के थे । उस ने ले लिया । इसमें इतना शोक करना भी उचित है" ? उनकी पत्नी ने समझाया । वह आध्यात्मिक विषयों से अनभिज्ञ थी । परन्तु उसके शब्द गहरी आध्यात्मिक भावना को प्रकट किये । मिहिर बाबा तत्क्षण साधू हुए , उनके मन में वचन के अनुरूप भावना जगी ।
श्री रामजी समुद्र किनारे बैठे हुए , अपने सभी बाणों को रेत में गाढ़ दिये । तत्पश्चात एक एक बाण को निकाल कर , पोछकर यथास्थानम् रख रहे थे । एक बाण के नोंक पर एक मेंढक फँसा हुआ था । रक्त रञ्जित उसे देख श्री राम हड़बड़ा गए । "अरे रे ! बाण का स्पर्श होते ही आवाज दिया होता" ? " हे राम ! जन्म काल से मैं तुम्हारा नाम लेते आया हूँ और मुझे यथावश्यक भोजन देते आये हो । तुम्हारे दिए भोजन को मैं ने जीवन भर स्वीकारा है । अब वही राम के हाथ बाण का नोंक दें तो उसे अस्वीकार करुँ ? राम का दिया भोजन प्रसाद है तो राम का दिया बाण भी प्रसाद है" । मेंढक ने उत्तर दिया ।
हमारे लिए योग क्या हैं , क्षेम हैं इसका निर्णय श्री कृष्ण ही करें । "योग क्षेमं वहाम्यहम्" ।
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