ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - ९७
परम्भावं अजानन्तो अवजानन्ति मां मूढा ... (अध्याय ९ - श्लोक ११)
பரம் பாவம் அஜானந்தோ அவஜாநந்தி மாம் மூடா ... (அத்யாயம் 9 - ஶ்லோகம் 11)
ParamBhaavam Ajaananto avajaananti Maam Moodhaa ... (Chapter 9 - Shlokam 11)
अर्थ : मेरे परम भाव को न जानकर , मूढ़ मुझे अपमानित करते हैं ।
"मुझे न जानने वाले मूढ़ हैं" , कह रहे हैं श्री कृष्ण । "मेरी परम भावना को नहीं पहचानने वाले मूढ़ हैं" कह रहे हैं श्री कृष्ण । अपनी अवतार महिमा को न जानने वालों को मूढ़ कह रहे हैं श्री कृष्ण । "मेरी प्रकृति में परब्रह्म को , स्वरुप में अरूप को , आकार में निराकार को , न देख पाने वाले मूढ़ हैं" ।
अपने वासना के कारण हम देह लेकर पृथ्वी में जन्मते हैं । वासनाओं की तृप्ति यह हमारे जन्म की हेतु है । वासनाओं के अनुरूप देह , कुटुम्भ , उसकी स्थिति , सुख - दुःख आदि मिलते हैं और अपना जीवन चलता है ।हम परवश , प्रकृति के वश में होते हैं , न की प्रकृति हमारे वश में ।
दैवी मनुष्य प्रकृति को अपने वश कर , मानव जाती पर करुणा रख , देह धारण कर , भू लोक वास करने मानो अवतरित होते हैं । उतरकर आते हैं । श्री कृष्ण कह रहे हैं की , "उनकी परम भावना को नहीं पहचान कर , उन्हें सशरीर जन्मा साधारण मनुष्य समझने वाले मूढ़ हैं" ।
यह हम सब पर लागू है । अपने निकट जी रहे मनुष्यों की दिव्यता को नहीं जानकार , उन्हें अपनी माता , भाई , नौकर , पुत्र या अन्य किसी नाते से जोड़कर देखने वाले हम मूढ़ हैं ।
"मेरी परम भावना को न जानकार मुझे अपमानित कर रहे हैं" , कहना है श्री कृष्ण का । अपमानित होने में क्या उन्हें दुःख है ? मनुष्य समूह पर करुणा लेकर आये हैं । उन्हें कैसा दुःख ? उन्हें दुःख इस बात का है की मनुष्य अपने उद्धार के लिए प्राप्त अवसर को खो रहा है । कैसे ???
"यह भी मेरे ही कैसे है । मेरे ही जैसे दोष युक्त , मेरे ही जैसे गलतियाँ करने वाला , मेरे ही जैसे अल्प सुख - दुःख के पीछे दौड़ने वाला है" ऐसा मानकर अपने दोष , गलतियाँ और सुख प्राप्ति की तृष्णा को सही और सर्व साधारण मान लेता है । अपने उद्धार के प्रयत्न रोक लेता है ।
इसे आकृष्ट करने , अपने चरण में बिठाने , अपने आप को यह अवतार मानें , दैवी पुरुष मानें और अपनी प्रतिमा , हस्त और चरण की प्रतिमा को पूजें इस हेतु चमत्कार दिखाकर , बड़ी भीड़ एकत्रित कर , भ्रमित कर देने वाले अलंकार ओढ़कर , मोहित करने वाले वचनों को बोल कई वेष धारण कर आने वाले ढोंगी के पीछे जब यह भागता है , तो अपने उद्धार के मार्ग को बंद कर लेता है । श्री कृष्ण का दुःख यदि है तो बस यही है ।
अपने वासना के कारण हम देह लेकर पृथ्वी में जन्मते हैं । वासनाओं की तृप्ति यह हमारे जन्म की हेतु है । वासनाओं के अनुरूप देह , कुटुम्भ , उसकी स्थिति , सुख - दुःख आदि मिलते हैं और अपना जीवन चलता है ।हम परवश , प्रकृति के वश में होते हैं , न की प्रकृति हमारे वश में ।
दैवी मनुष्य प्रकृति को अपने वश कर , मानव जाती पर करुणा रख , देह धारण कर , भू लोक वास करने मानो अवतरित होते हैं । उतरकर आते हैं । श्री कृष्ण कह रहे हैं की , "उनकी परम भावना को नहीं पहचान कर , उन्हें सशरीर जन्मा साधारण मनुष्य समझने वाले मूढ़ हैं" ।
यह हम सब पर लागू है । अपने निकट जी रहे मनुष्यों की दिव्यता को नहीं जानकार , उन्हें अपनी माता , भाई , नौकर , पुत्र या अन्य किसी नाते से जोड़कर देखने वाले हम मूढ़ हैं ।
"मेरी परम भावना को न जानकार मुझे अपमानित कर रहे हैं" , कहना है श्री कृष्ण का । अपमानित होने में क्या उन्हें दुःख है ? मनुष्य समूह पर करुणा लेकर आये हैं । उन्हें कैसा दुःख ? उन्हें दुःख इस बात का है की मनुष्य अपने उद्धार के लिए प्राप्त अवसर को खो रहा है । कैसे ???
"यह भी मेरे ही कैसे है । मेरे ही जैसे दोष युक्त , मेरे ही जैसे गलतियाँ करने वाला , मेरे ही जैसे अल्प सुख - दुःख के पीछे दौड़ने वाला है" ऐसा मानकर अपने दोष , गलतियाँ और सुख प्राप्ति की तृष्णा को सही और सर्व साधारण मान लेता है । अपने उद्धार के प्रयत्न रोक लेता है ।
इसे आकृष्ट करने , अपने चरण में बिठाने , अपने आप को यह अवतार मानें , दैवी पुरुष मानें और अपनी प्रतिमा , हस्त और चरण की प्रतिमा को पूजें इस हेतु चमत्कार दिखाकर , बड़ी भीड़ एकत्रित कर , भ्रमित कर देने वाले अलंकार ओढ़कर , मोहित करने वाले वचनों को बोल कई वेष धारण कर आने वाले ढोंगी के पीछे जब यह भागता है , तो अपने उद्धार के मार्ग को बंद कर लेता है । श्री कृष्ण का दुःख यदि है तो बस यही है ।
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