ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - १००
अनन्याश्चिन्तयन्तो माम् । (अध्याय ९ - श्लोक २२)
அநந்யாஶ்சிந்தயந்தோ மாம் ... (அத்யாயம் 9 - ஶ்லோகம் 22)
AnanyaashChintayanto Maam ... (Chapter 9 - Shloka 22)
अर्थ : मेरे चिन्तन में मग्न रहो । अनन्य चिन्तन , अन्य चिन्तन के बिना , केवल मेरे चिन्तन में ।
अपने लिए दो पर्याय हैं । निर्मिति - निर्माता ; जग वह ; जड़ - चैतन्य ; हम निर्मित के लिए जी सकते हैं या निर्माता के लिए । हम जड़ के लिए जी सकते हैं या चैतन्य के लिए । (निर्मित याने अपने पास जो शरीर है उससे पूर्ण संसार तक ...)
पर्याय १ : संसार के लिए , जड़ के लिए जीना । शरीर , उसकी आवश्यकता , धन , परिवार , सुख , सुविधा , नाम और प्रसिद्धि , कीर्ति , अपकीर्ति , प्रभाव , आदि आदि विषयों के चिन्तन मन में भरता है । मन में और संसारी कार्य करते समय यही चिन्तन का आधिक्य रहता है । सम्भव है की व्यापार , तदर्थ होने वाले संवाद और सौदेबाजी , उद्योग और उसका निर्वाह , नौकरी , आदि सभी संसारी कार्य उपरोक्त चिन्तन में मग्न मन के साथ सुलभता से किये जाय । एकाग्र मन संसारी कार्यों की क्षमता बढ़ा दें , यह भी सम्भव है । परन्तु , यही मन आध्यात्मिक और दैवी कार्यों में बाधक हो जाता है । मंदिरों में दृश्य इस की पुष्टि करते हैं । अधिकांश जन मंदिर में प्रवेश करते हैं , देव सन्नधि में पहुंच कर उसे एक 'साल्यूट' मारते हैं , दौड़ते हुए परिक्रमा , प्रदक्षिणा करते हैं , कुछ क्षण बैठते हैं और और बाहर निकल जाते हैं । मंदिर में उनकी चाल ऐसी होती है , जैसे मानो वे अंगार पर चल रहें हो । तीर्थ यात्रा निकलते हैं तो एक मंदिर से दुसरे मंदिर छलांग लगाते हुए , कुछ दिनों की छुट्टियों में अधिकाधिक मंदिर देखकर थके हाल वापस आते हैं । इनकी तीर्थ यात्रा से 'ट्रावेल्स' टैक्सी और होटल , रेस्टॉरेंट वालों को तो लाभ होता है , इसे नहीं । ध्यान में कुछ क्षण भी बैठ नहीं पाते । अरे ! ध्यान छोड़ो । हाथ पैर हिलाये बिना , स्थिति बदले बिना कुछ क्षण शान्त बैठना भी इनके लिए असम्भव है । भजन या प्रवचन में तो इनका हाल दयनीय हो जाता है । स्वार्थ संकल्प से होम हवन पर बैठते हैं तो , शान्त चित्त मन्त्र दोहराते हुए उस कर्म में सहभाग होते ? ना । मोबाईल पर बात करेंगे । यजमान स्थान पर बैठे हुए , अतिथि स्वागत करेंगे , उनकी पूछताश करेंगे । उक्त कर्म के विषय में कमेंट करेंगे । जोक उड़ायेंगे । बीच बीच में पुरोहित से शीघ्रादि शीघ्र पूर्ण कर देने कहेंगे । यही व्यक्ति टी वी के सामने घंटो बैठता है । निरर्थक सीरियल देखता है । मॉल में शीश दीवार के पीछे रखे हुए कूड़े कचरे को देखते हुए घंटों बिताता है । संसारी विषयों के चिन्तन इसे गहन विषयों के लिए असमर्थ बना देता है । तनाव और अस्थरिता उत्पन्न कर देता है ।
पर्याय २ : परमार्थ के लिए जिए । परम , उसकी कृपा , उसकी विभूति , उसकी रचना , अपनी सृष्टि के प्रति उसका स्नेह भाव , आदि आदि चिन्तन मन में भर जाते हैं । ऐसी मनः स्थिति मन को शान्त करता है । ध्यान , भजन में बैठना , प्रवचन सुनना और विषय ग्रहण करना , होम हवन में सहभाग होना , देवालय में या घर में पूजा अर्चना करना , पर्वत पर बसे मंदिर की ओर यात्रा करना , पुण्य तीर्थ में स्नान , गिरी परिक्रमा आदि आदि कार्य सुलभ और सुकृत हो जाते हैं । ये कर्म शान्त चित्त कर पाता है । इन कार्य से इसका मन में शान्ति दृढ़ हो जाती है ।
संसारी कार्य पर कैसा प्रभाव होता है ? कार्य जो अपर्यायी हैं , जैसे व्यापार , उद्योग , व्यवसाय , नौकरी ... ये कार्य आनन्दमयी हो जाते हैं । ये कार्य अधिक निपुणता से , अधिक क्षमता से किये जाने की सम्भावना बढ़ जाती है । फालतू कार्यों में , मोघ कर्मों में मन लगता नहीं । परम का चिन्तन रहता है , तो सभी कार्य उसी के लिये किये जाते हैं । कार्य से प्राप्त फल उसी से दत्त हैं और प्रसाद रूप स्वीकारे जाते हैं । कोई तनाव नहीं । कोई चिन्ता नहीं । कोई शोक नहीं । बस केवल आनन्द है । अक्षय आनन्द । लौकिक कार्य में आनन्द । दैवी कार्यों में आनन्द । ऐसी व्यक्ति आसपास के अन्यों के लिये यत्साह , हर्ष के लिये स्रोत बन जाते हैं ।
संसारी कार्य पर कैसा प्रभाव होता है ? कार्य जो अपर्यायी हैं , जैसे व्यापार , उद्योग , व्यवसाय , नौकरी ... ये कार्य आनन्दमयी हो जाते हैं । ये कार्य अधिक निपुणता से , अधिक क्षमता से किये जाने की सम्भावना बढ़ जाती है । फालतू कार्यों में , मोघ कर्मों में मन लगता नहीं । परम का चिन्तन रहता है , तो सभी कार्य उसी के लिये किये जाते हैं । कार्य से प्राप्त फल उसी से दत्त हैं और प्रसाद रूप स्वीकारे जाते हैं । कोई तनाव नहीं । कोई चिन्ता नहीं । कोई शोक नहीं । बस केवल आनन्द है । अक्षय आनन्द । लौकिक कार्य में आनन्द । दैवी कार्यों में आनन्द । ऐसी व्यक्ति आसपास के अन्यों के लिये यत्साह , हर्ष के लिये स्रोत बन जाते हैं ।
ऐसी अवस्था सम्भव भी है ? अनन्याश्चिन्तयन्तः ... मैं ऐसे माताओं को जानता हूँ , जो उसके श्लोकादि गुनगुनाते हुई , प्रसन्न चित्त भोजन पकाते हैं । स्वाद चखने की इच्छा नहीं । भोजन ग्रहण करने वाला क्या कहने वाला है , इस की चिन्ता नहीं । कार्य भार का उफ़ और ओह नहीं । हर्ष और उत्साह से परिपूर्ण । कार्य इनपर लाधा नहीं जाता , ये स्वयं स्वीकार करते हैं । इनका बनाया भोजन रूचि , स्वाद के विषय में कभी निराश नहीं करता । मैं ऐसे व्यापारी जानता हूँ , जो दूकान में जब ग्राहक नहीं होता , शान्त चित्त गीता पढ़ते बैठते है । व्यापार व्यापार में कमी होने से चिन्तित होते नहीं । अधिक व्यापार होने से उद्विग्न भी नहीं । दूकान पर आने वाले ग्राहक इनके लिये भगवान का ही स्वरुप होता है । इनसे यथोचित व्यस्तता या कुछ न करते हुये शान्तता , दोनों ही सम्भव है ।ये व्यापार करते हैं उसके लिये । परिश्रम उसके लिये । जो भी मिले , उसी का प्रसाद बन जाता है ।
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ... मुझमे , मेरे चिन्तन में मग्न रहो । अनन्य चिन्तन में , मेरे ही चिन्तन में ।
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