ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - १०४
पत्रं पुष्पं फलं तोयम् यो मे भक्त्या प्रयच्छति यो मे भक्त्या प्रयच्छति ... तदहं भक्त्युपह्रुतम् अश्नामि प्रयतात्मनः ... (अध्याय ९ - श्लोक २५)
பத்ரம் புஷ்பம் ஃபலம் தோயம் யோ மே பக்த்யா ப்ரயச்சதி .. ததஹம் பாக்த்யுபஹ்ருதம் .. அஶ்நாமி ப்ரயதாத்மனஹ ... (அத்யாயம் 9 - ஶ்லோகம் 25)
Patram Pushpam Phalam Toyam Yo Me Bhaktyaa Prayachchati ... Tadaham Bhaktyupahrutham Ashnaami Prayaataatmanah ... (Chapter 9 - Shlokam 26)
अर्थ : एक पत्र , एक पुष्प , एक फल या एक बूँद जल , ऐसा मेरा भक्त जो कुछ मुझे देता है ... मुझे स्वीकार्य है । मैं तो उसका भक्ति पूर्ण स्वच्छ मन को लेता हूँ । (स्वच्छ मन से दिए गए इनको स्वीकारता हूँ , ऐसा भी अर्थ हो सकता है ।)
भक्ति के मार्ग पर चलने में उपयोगी उपाय । स्वयं श्री भगवान द्वारा दिया गया उपाय ...
सभी विषयों में बाहरी ढांचा होती है । आतंरिक भाव या प्राण होता है । वस्तु बाहरी है तो उसकी उपयोगिता आतंरिक है । खाद्य वस्तु के रंग रूप बाहरी है तो उसका स्वाद और स्वास्थ्य के लिए हितकारी या अहितकारी होना आतंरिक है । शब्द बाहरी है तो भाव आतंरिक । कार्य का आतंरिक रूप उसकी हेतु है । हम सामान्य मनुष्य बाह्य रूप को देख पाते हैं । आतंरिक रूप को देखने की हमारी क्षमता नहीं के बराबर होती है । बाह्य ढांचा को महत्त्व देकर , उसके आधार पर मूल्यांकन करते हैं ।
मनुष्यों को उनकी बाहरी वेश भूषा के आधार पर आंकते हैं । उनकी गाडी , घर जैसे विषयों के आधार पर उनको ऊँचा या नीचा मानते हैं । इस कारण , आम मनुष्य भी अपने बाहरी स्वरुप को जितना महत्त्व देता है , गुण और प्रतिभा जैसे आतंरिक आभूषण को देता है । आकर्षक विज्ञापन और बाहरी साज सजावट में मोहित होकर वस्तुओं को खरीदते हैं । इन्हीं आधार पर सेवाओं को स्वीकारते हैं । उनकी उपयोगिता , अपना और अन्यों का स्वास्थय पर प्रभाव , समाज की आर्थिक स्थिति और निसर्ग पर होने वाला अनुकूल प्रतिकूल प्रभाव आदि का अनदेखा करते हैं । इसी वृत्ति के कारण सामाजिक संस्थाओं में , राजनीतिक पक्षों में , इतना ही नहीं , अपने परिवारों में भी नाटकी भाषा , प्रशंसा , दम्भ , सत्कार - नमस्कार जैसे बाहरी व्यवहार महत्त्वपूर्ण और सर्व सामान्य हो गये ।
मनुष्यों को उनकी बाहरी वेश भूषा के आधार पर आंकते हैं । उनकी गाडी , घर जैसे विषयों के आधार पर उनको ऊँचा या नीचा मानते हैं । इस कारण , आम मनुष्य भी अपने बाहरी स्वरुप को जितना महत्त्व देता है , गुण और प्रतिभा जैसे आतंरिक आभूषण को देता है । आकर्षक विज्ञापन और बाहरी साज सजावट में मोहित होकर वस्तुओं को खरीदते हैं । इन्हीं आधार पर सेवाओं को स्वीकारते हैं । उनकी उपयोगिता , अपना और अन्यों का स्वास्थय पर प्रभाव , समाज की आर्थिक स्थिति और निसर्ग पर होने वाला अनुकूल प्रतिकूल प्रभाव आदि का अनदेखा करते हैं । इसी वृत्ति के कारण सामाजिक संस्थाओं में , राजनीतिक पक्षों में , इतना ही नहीं , अपने परिवारों में भी नाटकी भाषा , प्रशंसा , दम्भ , सत्कार - नमस्कार जैसे बाहरी व्यवहार महत्त्वपूर्ण और सर्व सामान्य हो गये ।
हमे आतंरिक भाव को देखने की न क्षमता है , न इच्छा । श्री कृष्ण केवल आतंरिक भाव को देखना चाहते हैं । उसीको महत्त्व पूर्ण मानते हैं । उसीका स्वीकार करते हैं । बाहरी सज्जा , बाहरी व्यवहार , होंठो से निकलने वाली "मधुर" एवं अलंकृत भाषा , आदि से मोहित होते नहीं । "एक पत्ती , एक पुष्प , एक फल , एक बूँद जल , तुम से दी हुई भेंट कुछ भी हो , मैं भक्ति पूर्ण , पवित्र मन को स्वीकारता हूँ" ।
द्रौपदी , गजेंद्र , शबरी और विदुर ये चार क्रमशः पत्रं , पुष्पम फलम और तोयं (जल) का भेंट चढ़ाकर श्री परमात्मा के परिपूर्ण कृपा पात्र हुए । पांडवों के वनवास काल में , द्रौपदी ने भाजी की एक पत्ती , वह भी भोजन के पश्चात खाली पात्र पर चिपकी हुई एक पत्ती श्री कृष्ण को दिया । गजेंद्र , हाथी समूह का राजा ने मगर मच्छ के प्रति अपने संघर्ष में श्रीमन नारायण को एक कमल का पुष्प अर्पित किया । शबरी माता ने श्री राम को बेर के फल , जूठे फल अर्पित किये । विदुर ने अपनी कुटिर में आये हुए श्री कृष्ण को , राजमहल के भोग को अस्वीकार कर आये हुए श्री कृष्ण को , नीराहार दलिया खिलाया । दिए गए वस्तु इनपर अनुग्रहित कृपा को बाधित नहीं कर सके । भेंट के "मूल्य" की ओर उन्हें देने वालों का भी ध्यान नहीं था , उन्हें स्वीकारने वाले श्री कृष्ण का भी ध्यान नहीं था । इन्हों ने आनंद से दिया । उन्हों ने आनंद से स्वीकारा । वस्तु नहीं , उन्हें देने वाला मन ही , उस मन में स्थित भावना ही प्रधान है।
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