ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - १०७
अनित्यम् असुखम् लोकम् ... (अध्याय ९ - श्लोक ३४)
அநித்யம் அஸுகம் லோகம் ... (அத்யாயம் 9 - ஶ்லோகம் 34)
Anithyam Asukham Lokam ... (Chapter 9 - Shlokam 33)
अर्थ : यह लोक अनित्य है और सुख हीन है ।
गीता में पुनः पुनः दोहराये कुछ विचारों में यह भी एक है । यह जगत अनित्य है । सुख विहीन है । पुनः पुनः दोहराने की क्या आवश्यकता है ? दो प्रमुख कारण हैं । प्रथम कारण यह की गीता एक संवाद है । श्री कृष्णार्जुन संवाद । यह पूर्व तयारी के साथ दिया गया विषय बद्ध प्रवचन नहीं । संवाद में श्रोता के प्रश्न के अनुसार , अपेक्षानुसार विषय आते है । क्रमबद्ध ही होता है ऐसा नहीं । एक ही विषय पुनः पुनः आने की सम्भावना है । अर्जुन एक नर है । हम आपके समान एक साधारण मनुष्य है । यही दूसरा कारण । 'गाय के लिए एक चटका और मनुष्य के लिए एक शब्द पर्याप्त है' ऐसा एक कहावत है । परन्तु सभी मनुष्यों को यह लागू नहीं है । अर्जुन भी सर्व सामान्य ही है । (इस कहावत के विपरीत अर्थ वाले शब्द भी तो है । श्मसान वैराग्य , क्षण चित्त जैसे ।)
(इस अवसर पर हम मनुष्यों की एक कमजोरी की ओर ध्यान दिलाता हूँ । कोई एक क्षेत्र में अद्भुत प्रतिभा दर्शाता है तो उसे हम असाधारण और विशेष व्यक्ति मान लेते हैं । एक उत्कृष्ट नट , जनाकर्षक भाषण देने वाला , कवी , लेखक आदि सभी व्यक्ति केवल अपने अपने क्षेत्र में निपुण होते हैं । अन्य क्षेत्रों में और जीवन दृष्टी में वे अति सामान्य ही होते हैं ।) अर्जुन भी एक सामान्य मनुष्य है । अठारह अध्याय गीता सुनने के पश्चात , "मैं स्थिर हुआ । सन्देह नष्ट हुए । भ्रम दूर हुआ । आप जैसे कहेंगे , वैसे ही मैं करूंगा" ऐसा आश्वासन श्री कृष्ण को देने के बाद , ग्यारह दिन युद्ध बीत जाने के बाद , जब अभिमन्यू की मृत्यु होती है तो , अर्जुन ने क्या किया ? विलाप किया और आत्महत्या करने की बात । कुरुक्षेत्र युद्ध के समाप्ति पर एक दिन पञ्च पाण्डव राजमहल में बैठे हुए थे । अर्जुन ने श्री कृष्ण से कहा , "हे कृष्ण ! उस दिन जब आपने गीता सुनाई , मैं एक विशेष मनःस्थिति में था । गीता ठीक समझ न सका । आज हम सब आराम से , शांत चित्त बैठे हैं । आज यदि आप पुनः एक बार गीता सुनाओगे तो अच्छा होगा ।
(इस अवसर पर हम मनुष्यों की एक कमजोरी की ओर ध्यान दिलाता हूँ । कोई एक क्षेत्र में अद्भुत प्रतिभा दर्शाता है तो उसे हम असाधारण और विशेष व्यक्ति मान लेते हैं । एक उत्कृष्ट नट , जनाकर्षक भाषण देने वाला , कवी , लेखक आदि सभी व्यक्ति केवल अपने अपने क्षेत्र में निपुण होते हैं । अन्य क्षेत्रों में और जीवन दृष्टी में वे अति सामान्य ही होते हैं ।) अर्जुन भी एक सामान्य मनुष्य है । अठारह अध्याय गीता सुनने के पश्चात , "मैं स्थिर हुआ । सन्देह नष्ट हुए । भ्रम दूर हुआ । आप जैसे कहेंगे , वैसे ही मैं करूंगा" ऐसा आश्वासन श्री कृष्ण को देने के बाद , ग्यारह दिन युद्ध बीत जाने के बाद , जब अभिमन्यू की मृत्यु होती है तो , अर्जुन ने क्या किया ? विलाप किया और आत्महत्या करने की बात । कुरुक्षेत्र युद्ध के समाप्ति पर एक दिन पञ्च पाण्डव राजमहल में बैठे हुए थे । अर्जुन ने श्री कृष्ण से कहा , "हे कृष्ण ! उस दिन जब आपने गीता सुनाई , मैं एक विशेष मनःस्थिति में था । गीता ठीक समझ न सका । आज हम सब आराम से , शांत चित्त बैठे हैं । आज यदि आप पुनः एक बार गीता सुनाओगे तो अच्छा होगा ।
एक शब्द को एक बार सुन लिया और और समझ लिया , यह सामान्य मनुष्यों के लिए लगभग असम्भव है । पुनः पुनः सुनने की आवश्यकता है । पढ़ने की आवश्यकता है । चिन्तन करने की आवश्यकता है । अपने ही एक जीवन में विविध आयु में , विविध घट्टों में , सूनी हुई या पढ़ी हुई एक ही विचार , अलग अलग अर्थ लेकर आती है ।हम जैसे जैसे परिपक्क्व होते हैं , वैसे वैसे सूक्ष्म , अति सूक्ष्म गहराई तक समझने की हमारी क्षमता बढती है ।
हिन्दू धर्म यह नहीं कहता की संसार झूठा है । हिन्दू धर्म संसार को तिरस्कार करने नहीं कहता । यही कहता की जग मिथ्या है । एक माया है । मिथ्या याने .. भ्रामक , ऐसा लगता की है परन्तु वास्तव में नहीं । नित्य जैसे लगता है । परन्तु प्रति क्षण नष्ट होते जाता है । सुखमय दीखता है परन्तु दुःख का निरन्तर साथ है । इस भ्रामक दृश्य में मोहित न होने की चेतावनी देता है हिन्दू धर्म । अपने जीवन में अज्ञान मय शैशव और बालपन , अक्षम युक्त वृद्धावस्था , रोग पीड़ा का काल आदि को घटा दिया तो युवावस्था का अल्प काल ही बचता है । कार्य क्षमता इसी पर्व में उच्चतम रहता है । उत्साह भी इसी पर्व में अधिकतम रहता है । काल एक बार निकल गया तो पुनः प्राप्त हो नहीं सकता । "संसार अनित्य है । असुखि है" । श्री कृष्ण इन शब्दों द्वारा जीवों को सतर्क कर रहे हैं की , "इस मोह में फँस कर अपनी युवावस्था को खो न देना" ।
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